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Showing posts from 2020

बेहाल मिर्ज़ापुर

और वही हुआ जो लगभग 90 प्रतिशत वेब सिरीज़ में होता है। पहला पार्ट तो जबरदस्त बनाते हैं लेकिन दूसरे सीज़न में सब गोबर कर देते हैं।'मिर्ज़ापुर' वेब सिरीज़ का भी वही हाल हुआ।  वैसे तो वेब सिरीज़ का चलन दुनियां के अन्य हिस्सों में बहुत ज़्यादा फैला है लेकिन अगर कहा जाए कि भारत जैसे देश में इसकी शुरुवात 'मिर्ज़ापुर' हुई है, तो ये गलत नहीं होगा। जितनी लोकप्रियता 'मिर्ज़ापुर' की है शायद ही किसी वेब सिरीज़ की हुई हो। हमारे देश में जहाँ लोग मुश्किल से अपना मोबाइल ही रीचार्ज करा पाते हैं, वहां पर एक वेब सिरीज़ को देखने के लिए अगर लोग 'ऐमेज़ॉन प्राइम' का रीचार्ज करा रहे हैं तो ये एक बड़ी बात है। यही बात इस वेब सिरीज़ को अन्य सिरीज़ से अलग कर देती है। 'मिर्ज़ापुर' का पहला सीज़न हर आयु वर्ग के व्यक्ति को पसंद आया। इसकी कहानी का कसाव...इसके हर करेक्टर की डायलॉग डिलीवरी, अपने आप में अनूठी है। जैसे 'शोले' फिल्म का हर करेक्टर उसी फिल्मी नाम और डायलॉग से अमर हैं। वैसे ही मिर्ज़ापुर के करेक्टर वो चाहे 'गुड्डू पंडित' हो 'कालीन भैया' या 'मुन्ना भैया' हो...

प्रेम की पाठशाला

वो जो मन के ठोस हैं संवेदनाओ के शुष्क हैं भावना हीन पाषाण हैं संवेगो से जड़ हैं करुणाहीन, स्थिर हैं वो प्रेम को क्या समझेंगे! प्रेम तो सारे तटबंधो का टूट कर ढहना है ! पाषाणो का सीना चीर के उन्मुक्त नदी सा बहना है ! जलती लौ में मोम सा पिघल कर, दर्द को सहना है ! संवेगो का आभूषण है, आवेगों का गहना है ! इससे इतर  जो शुष्क, ठोस, पाषाण हैं और अहंकार में चूर हैं  ! वो दया के पात्र हैं प्रेम से कोसो दूर हैं !            ● दीपक शर्मा 'सार्थक'

तुम हो पर नहीं हो!

तुम पानी हो  फ्रिज वाला ! यानी मुर्दे की तरह 'ठंडे' हो अंग्रेज़ी वाले 'कूल' हो  'चिल्ड' हो बस 'शीतल' नहीं हो ! तुम मुस्कुराहट हो सेल्फ़ी वाली ! यानी दिखावटी हो कृतिम हो होठों पे आई, जबरदस्ती की हँसी हो बस प्रसन्नत नहीं हो ! इसका मतलब है कि तुम होते हुए भी नहीं हो ! तुम्हारा खोल तो वैसा ही है बस बिना आत्मा के हो !            ● दीपक शर्मा 'सार्थक'

आप बन्दर हैं

कभी खुद को दूर से देखें, खुद से अलग होकर ! अपने मजहब से अलग होकर अपनी जाति से अलग होकर अपनी नस्ल से अलग होकर अपनी परम्पराओ से अलग होकर ऐसा होते ही आखों से पर्दा हट जायेगा ! आप जंजीरों क़ैद हैं ये दिख जाएगा ! तब आप समझेंगे कि  ये समाज मदारी है  और आप बन्दर हैं ! समाज के कायदे-कानून बाहर हैं और आप पिंजरे के अंदर हैं !           ● दीपक शर्मा 'सार्थक'

बलात्कार

एक ने हवस मिटाई दूसरे ने शरीर नोचा तीसरे ने खेत में घसीटा  चौथे ने ज़बान काटी  ये सिलसिला यहीं नहीं रुका ! फिर पाँचवे ने रिपोर्ट नहीं लिखी छठे ने सबूत मिटाए सातवें ने जबरदस्ती जलाया आठवें ने घर वालों को धमकाया  नवे ने इसको कवर न करके  केवल सुशांत की मौत से टी आर पी कमाई ! दसवां बोला ! उनके राज्य में भी तो रेप हुआ, वहाँ नहीं जाते! ग्यारहवें  ने गरदन उचकाई और कहा, "सब राजनीति है, हमसे क्या मतलब !" और इस तरह बारी-बारी से सबने बलात्कार किया !              ●दीपक शर्मा 'सार्थक'

सोशल मायाजाल

जब मैथलीशरण गुप्त जी ने "नर हो न निराश करो मन को..कुछ काम करो..कुछ काम करो !" कविता लिखी थी तब उनका ये कतई मतलब नहीं रहा होगा कि लोग दिन रात बस मोबाइल पे काम करते रहें। यहां तक अपने नरसैगिक नित्यकर्म के समय भी लोग मोबाइल लेके काम करते रहेंगे। अगर इसका ज़रा सा भी अहसास उनको होता तो "कुछ काम करो..कुछ काम करो !" जैसी बात कभी नहीं करते। मोबाइल वाला मनोरोग, यहां तक लोगो के दिमाग में घुस गया है कि लोग अपने मोबाइल से एक क्षण के लिए भी दूर नहीं हो पा रहे हैं। खासकर किशोरावस्था के बच्चे जिनके अमीर माँ बाप उनके पैदा होते ही एक मोबाइल हाथ में पकड़ा देते हैं। मेरी समझ में नहीं आता की आखिर 24 घन्टे कौन सा काम मोबाइल पे करते हैं।इससे भी बुरी बात ये है कि समाज ने इस बात को इस कदर स्वीकार कर लिया है कि बिना मोबाइल वाले की व्यक्ति की गिनती असमान्य लोगों में होने लगी है। उदाहरण के लिए- मान लीजिए कोई व्यक्ति कहीं पब्लिक प्लेस पे बैठा हो! एकदम शान्त..बिना हाथ में मोबाइल लिए, बस बैठा हो, कुछ कर न रहा हो।ऐसे में वहां से जो लोग गुजरेंगे वो उसको ध्यान से देखेंगे। आखिर ये कुछ कर क्यूँ नहीं रह...

नैतिकता की नेक्कर

बात की साहित्यीकरण करके उसको रबड़ की तरह नही खीचुँगा, सीधे मद्दे पे आता हूँ। जब भी साहित्य की बात होती है। तो हर कोई तपाक से बोलता है कि "साहित्य समाज का आईना होता है।" यानी समाज में जो भी कुछ घट रहा है,साहित्य उसका अक्षरशः वर्णन करता है।पर आजकल परिस्थिति कुछ ऐसी हैं कि कोई साहित्यकार,जैसा समाज है अगर उसका दस प्रतिशत भी वर्णन कर दे तो लोगों को मिर्ची लग जाती है। मेरा सहित्य कैसा है ये मुझे नहीं पता,लेकिन मै खुद को एक 'दर्शक' की तरह पाता हूँ, जो समाज को बस देख रहा है। और जो भी कुछ इस समाज मे घट रहा है।उसे अपने शब्दों में लिख देता है। वैसे भी जो साहित्यकार, समाज को कैसा होना चाहिये..किस दिशा में समाज को बढ़ना चाहिये..समाज में कौन-कौन से बदलाव होने चाहिये, इस तरह के विषय पे लिखते हैं। उनको मै साहित्यकार कम दार्शनिक ज़्यादा मानता हूँ। हो भी क्यूँ न वो समाज के दर्शक भर नहीं हैं।वो तो समाज को दिशा देने में लगे हैं।यानी ऐसे लोग पथ प्रदर्शक हैं। इस लिए इनको दार्शनिक कहना चाहिए। इस समय ऐसे साहित्यकारों के आगे एक समस्या पैदा हो गई है। चूँकि साहित्य समाज का आईना है और ऐसे दार्शनिक ...

जय किसान

अंबानी - किसान भाईयों ! हमारा नाम अंबानी है और हमने आप लोगों की ज़मीन लीज़ पे ली है। अब आप लोगों के अच्छे दिन आने ही वाले हैं। बस आप लोगों को मेरे कहने पर पुदीने की खेती शुरु करनी होगी। किसान - आयं! यू का बता रहे हो भईया! अब हमका आप के लिए खेती करनी पड़ेगी। मतलब हम किसान अपनी मर्ज़ी से खेती भी नहीं कर पाएंगे! अंबानी- मूर्खता वाली बातें मत करो आपलोग। जब जमीन मैने लीज़ पे ली है तो आप को मेरे अनुसार ही खेती करनी पड़ेगी।  किसान- ये कैसे हो गया भईया। हम लोग तो कुछ जान ही नहीं पाए! अंबानी- अर्रे मूर्खदास तुम लोग तो कुछ नहीं जानते। ये वैसे ही हुआ जैसे किसी जमाने में ईस्ट इंडिया कंपनी ने किसानो से 'नील की खेती' कराने के लिए उनकी जमीन लीज़ पर ली थी। जिस तरह उस टाईम किसान नील की खेती कर रहे थे,वैसे ही अब आप लोग मेरे लिए पुदीने की खेती करेंगे। किसान - पुदीना ..पुदीना ! काहे चिल्ला रहें हैं साहब ! का बहुत पसंद है आप को पुदीना ! अंबानी- हमको पुदीना नहीं बल्कि उसके तेल से मतलब है। हम पुदीने से तेल बनायेंगे, और फिर उसे हर भारतीय को बेचेंगे। ये तेल लगाके हर भारतीय का तनाव कम होगा।और वो चैन की नींद सो...

शब्दव्यूह

मेरा शब्दव्यूह का रचना और तुम्हारा कुछ न कहना ! रति विरक्त मैं व्योम व्यंग्य का कटु वीभत्स लिखने का आदी तटविहीन उद्विग्न हृदय में  निज प्रश्नो की लिए समाधी  किन्तु सकल अनुभव शब्दों में  व्यक्त तुम्हें अक्षरशः करना ! मेरा शब्द व्यूह का रचना  और तुम्हारा कुछ न कहना ! है श्र्ंगार का सार अपरिचित मैं संयोग-वियोग न मानू पुलकित प्रेम प्रकट हो कैसे हूँ अनभिग्य न कुछ मै जानू मद अज्ञान के हठ में डूबा सदा तम्हें शब्दों से छलना ! मेरा शब्द व्यूह का रचना और तुम्हारा कुछ न कहना ! मैं गणितीय सूत्र से प्रतिपल प्रेम समझना चाह रहा था तर्क-वितर्क के मापदंड से करुणित प्रेम को आंक रहा था तू अबोध निश्छल अरुणोदय  निर्विकार नि:स्वार्थ निकलना ! मेरा शब्दव्यूह का रचना और तेरा कुछ भी न कहना ! मेरे शब्दकोश के जितने शब्द तुम्हारे पास नहीं हैं मेरे इस निष्ठुर स्वभाव से भले तुम्हें अब आस नहीं है पर मेरे अपराध भुलाकर पुन: मुझे आलिंगन करना ! मेरा शब्दव्यूह का रचना और तुम्हारा कुछ न कहना !        ● दीपक शर्मा 'सार्थक'

प्रेम का फिजिकल डेफिसिट

जबसे सम्बंधों के शेयर गिरने लगे हैं सपनों के स्टॉक एक्सचेंज रुकने लगे हैं ! हम कमोडिटी बाज़ार जैसे मटेरिलिस्टिक तुम 'इक्विटी' बाज़ार जैसे मायावी ! हम 'निफ्टी' जैसे सिकुड़े  तुम 'बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज' जैसे हावी ! हमारा प्यार, 'एफ.डी.आई' की तरह स्थिर ! तुम्हारा व्यवहार  'पोर्टफोलियो' जैसे अस्थिर ! उसपर भी तुम्हारी उम्मीदों का इन्फ्लेशन चढ़ रहा है ! और मुझ गरीब का 'फिज़िकल डेफिसिट' बढ़ रहा है ! अब जब भावनाओं का  'आयात-निर्यात' रुक गया है ! 'ग्लोबलाईजेशन' की चमक में  गैरों के फंड पे, दिल तुम्हारा झुक गया है ! तो क्यों न प्यार के 'बाज़ार' में  हम दोनो ढल जाएं नये 'कार्पोरेट कैपिटल' की तलाश में  अपने-अपने रास्ते निकल जाएं !              ● दीपक शर्मा 'सार्थक'

घमंड के बुर्ज़ खलीफ़ा

समय से पहले बड़े हो गए  अब अबोध रहता है कौन ! एक प्रश्न के सौ उत्तर दें  बड़ो की अब सहता है कौन ! बस लीपा-पोती में लगे हैं अब दिल की कहता है कौन ! मछली से फँस गए जाल में  अब विमुक्त बहता है कौन ! हर संबंध की माला तोड़ें मोती ले गहता है कौन ! हैं घमंड के बुर्ज़ खलीफ़ा  त्याग में अब ढहता है कौन !         ● दीपक शर्मा 'सार्थक'

हिंदी हैं हम

अगर आप सोचते हिंदी में हैं और बोलते अंग्रेजी में हैं तो आप एक नंबर के धोखेबाज हैं विदूषक हैं भांड हैं जाहिल हैं बनावटी हैं  दूसरों पे सेखी झाड़ने वाले, अपनी जड़ों से कटे, दिखावटी हैं ! अगर आप सोचते भी अंग्रेजी में हैं और बोलते भी अंग्रेजी में हैं  तो फिर आप पैदाइशी अंग्रेज हैं अपने रंग पे दूसरे का रंग  चढ़वा लेने वाले रंगरेज़ हैं आपके शरीर में  दूसरे की आत्मा का साया है आप बीमार हैं, दलिद्र हैं आप का सब कुछ पराया है ! अगर आप सोचते हिंदी में हैं और बोलते भी हिंदी में हैं तो आप में सांस्कृतिक चेतना है आप भाषिक समृद्ध हैं, स्वतंत्र हैं मातृभूमि के प्रति संवेदना है क्योंकि आपको मातृभाषा का मान है इसीलिए आपके हृदय में  अन्य भाषा का भी सम्मान है !               ©️ दीपक शर्मा 'सार्थक'

सर्व धर्मान परित्यज्य

हाँ मुझमे विकार है वो जो सदियों से रुढ़िवाद का स्थापित आकार है उसमें बदलाव ही तो विकार है ! हाँ मेरे अंदर विरोध है वो जो परिवर्तन का अवरोध है बस उसी का तो विरोध है ! हाँ मुझमें द्वंद्व है नव चेतना जो  परम्पराओ के बोझ से, मस्तिष्क में बन्द है इसिलए तो द्वंद्व है ! हाँ मुझमें आक्रोश है वो जो धर्म की अफीम चाट के दुनियां बेहोश है बस उसी का आक्रोश है !         ● दीपक शर्मा 'सार्थक'

असत्य का सत्य

एक तो हम इस दुनियां से हारे हैं! परेशान करके रखा हुआ है।बचपन से ही हम लोगो को रटाया जा रहा है की "सत्यमेव जयते" यानी सत्य की हमेशा जीत होती है। और अगर किसी से पूछ लो की सत्य है क्या? तो किसी को कुछ नहीं पता है। भारतीय दर्शन के चार्वाक, सांख्य, जैन,अद्वेत, न्याय, बौद्ध जैसे दर्शन हो या फिर पाश्चात्य दार्शनिक जैसे प्लेटो, अरस्तू, देकार्त, स्पनोजा, हेगल हो, हर कोई बस सत्य को ही ढूढ रहा है। जितने मुह उतनी बातें! जितने दर्शन उतने सत्य! हालत कुछ इस तरह की है एक व्यक्ति को कच्चा आम खाने को दिया जाए और दूसरे को पका हुआ आम खाने को दिया जाए,फिर उन दोनो लोगों से आम के स्वाद के बारे में पूछा जाए। तो जिस व्यक्ति ने कच्चा आम खाया होगा हो खट्टा-खट्टा चिल्लायेगा,और जिसने पका हुआ आम खाया है वो मीठा-मीठा चिल्लाएगा। कहने का मतलब ये है कि सत्य का स्वरूप क्या है ये किसी को नहीं पता।परिस्थितयों के अनुसार सत्य का स्वरूप भी बदलता जाता है। जबकी असत्य अपने आप में स्पष्ट है, जाहिर है।असत्य को लेकर कोई भ्रम नहीं है। इसमे बुरा मनाने वाली कोई बात नहीं है पर इसको मानना ही पड़ेगा का असत्य स्वभाव से सत्य से ज़...

न्यूज़ मा दिखावत रहैं

"के हो ! मनौ अब लड़ाई होएन जई!" बड़े ताऊ की ये बात सुनकर अनायास मैं पूछ बैठा ,"किससे लड़ाई हो जाएगी दद्दू !" अर्रे भारत और चीन मा भईया! न्यूज़ मा दिखावत  रहैं कि एक से बड़ि कै एक मिसाइलै चल रही हैं!।  औ भईया चीन थर-थर,थर-थर डर के मारे कापि रहा है! अब जाके मुझे पूरा माजरा समझ में आया। असल में फ़्री वाला DTH और चाइनीज़ टीवी की आज कल गांवो में भरमार हो गई है। जहाँ एक ज़माने में किसी गांव में केवल एक दो घरो में टीवी हुआ करती थी वही अब लगभग हर घर में चाइनीज़ टीवी की भरमार हो गई है। और इस फ़्री DTH में लगभग सभी कूड़ा न्यूज़ चैनेल भी फ़्री में आते हैं।  बिचारे हमारे दद्दू इन्ही गॉसिप चैनलो का शिकार बन गये हैं। दरसल ये सारे न्यूज़ चैनेल युद्ध की उत्तेजना पैदा करने के लिए खबरों के साथ तमाम हॉलीवुड की मूवी के सीन लेके टीवी पर दिखाते रहते हैं। इसके साथ ही अमेरिका जैसे देशो के युद्ध अभ्यास की फुटेज भी बीच बीच में डालते रहते हैं। इनको देख के साधरण ग्रमीण भारतीय को ये सब सच लगने लगता है।  खैर मैने इतनी डिटेल में उनको समझाने के बजाय बस इतना कहा," दद्दू इन चैनलो की बातों में मत आओ, कहीं युद...

साम्यवादी प्रेम

दर्द ये आठ पहर देंगे दवा के नाम ज़हर देंगे ! पूंजीवादी प्रेम तुम्हारा जो बस पाना जानता है मेरा 'सर्वहारा' स्वभाव है दामन प्यार से भर देंगे ! तेरे मेरे वर्ग में यूं तो इक संघर्ष सदा से है तुम अवसर पाकर मारोगे हम हथियार भी धर देंगे ! सब साधन सत्ता तेरी है सारे स्रोत तुम्हारे हैं मेरे पास हृदय है केवल नाम तुम्हारे कर देंगे ! लेकिन 'भौतिक द्वंद्व' तम्हें भी चैन नहीं लेने देगा हम मिट कर भी 'साम्यवाद' का एक विचार अमर देंगे !        ● दीपक शर्मा 'सार्थक'
धर धीर धरा भी अधीर हुई नभ नम नयनो से बह निकले सुर संत सकल संताप भरे मृत मेरु, मनुज दुख से मचले अप्कर्म अधम की वृद्धि हुई दुष्कर्म दोष विस्तार हुआ फिर मध्यरात्रि अष्टम भादों धरती पे कृष्ण अवतार हुआ कारागृह कलि कृत नष्ट हुआ बंधन स्वतंत्र वसुदेव हुए दुर्गम गोकुल पथ सुगम हुआ यशुदा के भाग्य भी उदय हुए फिर पाप मुक्त धरणी करके श्रुति कर्मयोग विज्ञान दिया और धर्म ध्वजा स्थापित कर रण में गीता का ज्ञान दिया          ● दीपक शर्मा 'सार्थक'

शिक्षा के निरुद्देश्य

जैसे ही नई शिक्षा नीति चर्चा में आई वैसे ही तमाम शिक्षाविदों को अपनी बिलों से बाहर आने का मौका मिल गया है। अब ये शिक्षाविद् रात में जैसे सियार चिल्लाते हैं वैसे ही सौ साल पुराने राग यानी 'शिक्षा का क्या उद्देश्य है', इसको लेकर शोर मचाने लगे हैं।हालत ये है की इन सौ सालो में शिक्षा के उद्देश्य को लेकर जितनी बहस हुई है वो अगर स्वयं माँ सरस्वती को पता चल जाए तो वो भी शिक्षा के उद्देश्य को लेकर भ्रम में पड़ जाएंगी। शिक्षा के उद्देश्य वाले इस महाकाव्य से मेरा पाला बी.एड. करने के दौरान पड़ा।तबसे लेकर अब तक न जाने ऐसे कितने ही खोखले उद्देश्य को पढता आया हूँ।पर हकीक़त में  शिक्षा के उद्देश्य की आड़ में शुरु से ही घिनौने लोग अपने स्वार्थ को पूरा करने में लगे हैं। सबसे पहले मैकाले भाईसाहब के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य भारत में ऐसा वर्ग तैयार करना था, जिनका रंग और रक्त भले ही भारतीय हों लेकिन वह अपनी अभिरूचि, विचार, नैतिकता और बौद्धिकता में अंग्रेज हों। और आज के भारत को देख के साफ पता चलता है की धूर्त मैकाले अपने उद्देश्य में सफल हो गया है। भारत के नेताओं के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य अपने काले ...

मौलिकता का अंकुरण

उनका मानना है कि  जो वो मनाते हैं वो सब माने! वो चाहते हैं की जो वो चाहते हैं वो सब चाहें! उनका सोचना है कि  जैसा वो सोचते हैं वही सब सोचें! और इस तरह वो जो भी मानते चाहते या सोचते हैं  वही औरो पे थोपते हैं! इसी तरह दुनियां में कुछ भी मौलिक और नया होने से रोकते हैं! और इसी प्रयास में  दिन रात कुत्ते के जैसे भौंकते हैं! लेकिन बदलाव की आंधी में  अवरोध सारे उड़ जाते हैं  परिवर्तन की भट्ठी में  जड़ विचार जल जाते हैं  फिर नया दर्शन नई सोच निर्वात में स्फुटित होती है! जड़ता का सीना चीर के मौलिकता अंकुरित होती है!           ●दीपक शर्मा 'सार्थक'

बेबस मध्यवर्ग

 बेबस मध्यवर्ग ! सामाजिक बंधन से बंधा  कायदे कानून से लदा न उच्चवर्ग जैसी मुक्ती न निम्नवर्ग जैसी चुस्ती जीवन एकदम नर्क बेबस मध्यवर्ग ! मध्यक्रम बल्लेबाज सा दायित्वों के निर्वाह सा न ओपनर सी आज़ादी न निचले क्रम से आत्मघाती  हर चीज़ में बेड़ागर्क बेबस मध्यवर्ग ! कस्बे जैसी जिन्दगी हर जगह फैली गंदगी  न शहर जैसी स्वतंत्रता  न गांव जैसी उदंडता हर घटना से पड़ता फर्क बेबस मध्यवर्ग !        ● दीपक शर्मा 'सार्थक'

हिजड़े गांव

अबे बेहूदे गांव ! क्यूँ दिन पर दिन बदलते जा रहे हो शहर बनने की हड़बड़ाहट में, अब न गांव ही रह गए हो, न ही पूरी तरह शरह बन पा रहे हो ! तुम्हारे पास न तो शहर वाली सुविधायें हैं  और न ही गांव वाला सुकून और हवाएं हैं  न शहर वाली नाली सड़के सीवर वाला प्लान है न ही गांव वाली हरियाली बाग खलियान है अबे अधकचरे बेहूदे गांव तुम न इधर में रहे न उधर में   सुना साले हिजड़े गांव !                ●दीपक शर्मा 'सार्थक'

फ़्री और सस्ता

जीन्स को अपने पिछवाड़े की सबसे निचली तलछटी पे बाँध के जॉकी की चड्डी दिखाने वाले, और बात-बात पर एप्पल वाला आईफोन निकाल कर दिखावा करने वाले महमनवों को अगर किनारे कर दिया जाए तो बाकी बचे भारतीयों के लिए, फ़्री और सस्ता सामान सदा से माइने रखता आया है।लेकिन अगर गहराई से सोच कर देखें तो पता चलेगा की इस संसार में प्रेम को छोड़ के कुछ भी फ़्री नहीं मिलता।यहाँ प्रेम से मेरा आशय, "मेला बाबू मेले जन्मदिन पे कौन छा मोबाइल गिफ्ट में देगा!" वाली हरामखोरी से नहीं है। यहाँ प्रेम से मेरा मतलब नि:स्वार्थ एवं नि:छल प्रेम से है।और ऐसे प्रेम को छोड़ कर इन्सान को हर चीज़ की क़ीमत चुकानी पड़ती है। बस केवल समझ का फेर है जो हम इस बात को जान नहीं पाते। बड़ी से बड़ी और टिटपुजिया से टिटपुजिया कंपनी, फलाने के साथ ढिमाका फ़्री, इसके साथ वो फ़्री, वाले लुभावने ऑफर निकालती है और इन ऑफरों को देख के ग्राहकों की लार एकदम उसी तरह से टपकने लगती है जैसे एक विशेष जानवर की लार खाने को देख के टपकने लगती है। लेकिन फ़्री के लालच में लोग ये भूल जाते हैं की ये फ़्री ग्राहको को फंसाने के लिए मात्र एक फसला (मछली को फंसाने वाला जाल ) है...
सच पूछों तो आत्महत्या में हत्या होती है खुद को विशेष समझने के भ्रम की ! खुद से जुड़ी अथाह अपेक्षाओं की ! सारे हालातों को थमाने की ज़िद की ! खयाली मकडजाल को बुनने के लत की ! रही बात आत्महत्या की तो आत्मा की हत्या  कोई कैसे कर सकता है! आत्मा अजर अमर जो ठहरी!             ●दीपक शर्मा 'सार्थक'

अंध दूरदर्शी

दास राज! मेरे पिता महाराज शान्तनु आप की बेटी देवी सत्यवती से प्रेम करते हैं।फिर आप को उनके विवाह में क्या आपत्ति है? मुझे आपत्ति नहीं है राजकुमार देववृत ! परन्तु इस विवाह से मेरी पुत्री को क्या प्राप्त होगा? अरे दास राज! वो महान कुरु वंश की महारानी बन जाएंगी।और क्या चाहिए ? पर राजकुमार थोडा और आगे की सोचो! मेरी पुत्री सत्यवती का पुत्र कभी राजा नहीं बन पायेगा।क्योंकि महाराज शान्तनु के बाद राजा तो आप बनेंगे। तो ठीक है दास राज ! मैं ये प्रण लेता हूँ कि मै राजा नहीं बनुंगा। देवी सत्यवती से उत्पन्न पुत्र ही राजा बनेगा। वो तो ठीक है राजकुमार लेकिन थोड़ा और आगे की सोचो।आप तो राजा नहीं बनेंगे लेकिन आगे चलके आप के पुत्र राज्य पर अपना दावा ठोक देंगे। फिर मेरी पुत्री के पुत्रों का क्या होगा? अगर ऐसा है तो मैं प्रण करता हूँ की मै आजीवन ब्रम्हचर्य का पालन करूंगा। कभी विवाह नहीं करूंगा।और संतानहीन रहूँगा। उक्त घटनाक्रम महाभारत में भीष्म प्रतिज्ञा के नाम से प्रचलित है।यहाँ गौर करने वाली बात ये है कि इस घटनाक्रम में भीष्म के महान त्याग और उनकी अखंड प्रतिज्ञा केंद्र में रहती है और सत्यवती के दो कौड़ी के ...
'मोहोम्मद' का मतलब 'मोहब्बत' ही है बस खलिश को दिलों से हटाओ जरा ! सारे शिकवे गिले पल में मिट जाएँगे  एक दूजे को दिल में बसाओ जरा ! सिर्फ इंसानियत का ही पैगाम है सारे मज़हब की पुस्कत उठाओ ज़रा ! नफ़रतों की जलन पल में बुझ जाएगी प्यार में एक डुबकी लगाओ ज़रा ! साजिशन स्वार्थी तुमको लड़वा रहे  आँख से अपने पर्दा हटाओ ज़रा ! इक सदी दुश्मनी में गुज़र ही गई दोस्ती का दिया अब जलाओ ज़रा ! साथ मिलके रहें मुल्क आबाद हो ऐसी उम्मीद दिल में जगाओ ज़रा ! मज़हबी धर्मिक सब सहिष्णु बने  एक ही सुर में बस गुनगुनाओ ज़रा !                      ●दीपक शर्मा 'सार्थक'

भक्त या चमचे

मनु महाराज ने किसी जमाने में समाज को चार वर्णों में विभाजित किया था।जिसका खामियाजा आज तक समाज भुगत रहा है।पर इधर कुछ वर्षो से दो मुख्य राजनीतिक दलों के आई.टी.सेल के उकसाने के बदौलत भेड़ चाल चलने वाले भारतीयों(मेरे अनुसार नहीं, भारतेंदु जी के अनुसार) ने खुद को 'भक्त' और 'चमचे' नामक की दो जातियों में स्वत: ही बांट लिया है। जैसे सांख्य दर्शन में मोक्ष के लिए द्वेत मार्ग (यानी दो मार्ग) बतलाया गया है। वैसे ही आज के समय किसी व्यक्ति को उसके विचारों के अनुसार दो ही श्रेणी में रखा जायेगा। और इन श्रेणी के अनुसार अगर किसी के भी विचार सत्ता पक्ष से मेल नहीं खाते हैं तो वो 'चमचा' है और अगर वो सत्ता पक्ष के किसी कार्य की तारीफ कर दे तो वो 'भक्त' है। अब ये स्थिति इतनी विकराल हो गई है की किसी के विचार चाहे जितने मौलिक एवं यथार्थवादी क्यों न हो पर ये भेड़ मानसिकता वाले लोग उन विचारों को भक्त और चमचा नाम के दो कोल्हुओ में जबरस्ती ठेल कर उनका रस निकाल लेते हैं। भारतेंदु जी के ही अनुसार इन भेड़ों को चलाने या कह लीजिए चराने के लिए एक इंजन की आवश्यकता होती है। पर वर्तमान समय म...
उसके खिलाफ़ एक भी गवाह न मिला सारे गुनाह करके वो बेदाग हो गया कानून तोड़ के मरोड़ के बदल दिया था वो कुसूरवार मगर पाक़ हो गया मुज़रिम भी था वही, वही सफ़ेदपोश भी हर बार की तरह ये इत्तफ़ाक हो गया  अपने हुकूक के लिए जो लड़ रहा था वो ताउम्र लड़ते ही सुपुर्द-ए-खाक़ हो गया मुंसिफ़ भी बिक गया अदालतें भी बिक गई इन्साफ मिलना अब बड़ा मज़ाक हो गया मुर्दा अवाम डर से बेज़ुबान हो गई जिसने किया सवाल जल के राख हो गया            ●दीपक शर्मा 'सार्थक'
वो जो फिरते हैं हरदम वजह ढूढ़ते  इक अदत से सकूं की जगह ढूढ़ते वो मोहोब्बत के दरिया में उतरें भी तो ज़िन्दगी बीतती है सतह ढूढ़ते खोजने में रहे प्यार को जब तलक बेबसी से भटकते रहे तब तलक वो समझने में उलझे रहे प्यार को ज़िन्दगी गुजरी पूरी मिली न झलक इल्म उनको मोहोब्बत का होता अगर यूं भटकते न पाने को वो दर बदर प्यार मिल जाता है बेवजह बेसबब ढूढ़ने से नहीं मिलती इसकी डगर प्यार एक खुबसूरत सा अहसास है प्यार में जीत है न कोई हार है प्यार आधर है सारे संसार का इसमे डूबा है जो बस वही पार है           ●दीपक शर्मा 'सार्थक'          

द्रोपदी चरित्र

हा हा हा ! अंधे का पुत्र भी अंधा ! इन शब्दों में अपमान है एक चक्रवर्ती राजा का ! रिस्ते में ससुर का ! विकलांगता का ! घर आए महेमान का ! अपने पति के छोटे भाई का ! साथ में परिवार का ! जाहिल दुर्योधन जैसे लोग बदले में कर देते हैं  इससे भी बड़ा अपमान ! और इतिहास उस बड़े अपराध के आवरण से ढक लेता है ऐसी ही  स्त्रियों के अपराधों को! लेकिन अंधे का पुत्र अंधा  ही बीज है महाभारत का ! परिवार के नाश का ! हो भी क्यूँ न ! वो यज्ञ से पैदा ही हुई थी कुरु वंश के नाश के लिए!           ●दीपक शर्मा 'सार्थक!

इमेज़ का बोझ

मज़ाल है की मेरे फलाने मित्र कभी अकेले मिलने आ जाए..वो जब भी आते हैं तो साथ मे अपनी खुद की बनाई 'इमेज़' को भी अपने कमज़ोर कन्धों पर बैठाल कर साथ में लाते हैं। हालाकि उन्होंने अपनी नज़रो में खुद की जो इमेज़ बना रखी है वो इमेज़ दूसरों की नज़रो में उसी तरह ही है जैसा वो खुद के बारे में सोचते है..ये अभी तक साबित नहीं हुआ है। लेकिन वो हमेशा इसी खुशफ़ैमी में जीते हैं की दूसरो की नजरों में उनकी वही इमेज़ है जैसा वो दिन रात खुद के बारे में सोचते हैं। मेरे ये फलाने मित्र अपनी इमेज़ को इनती गम्भीरता से जीते हैं कि आज तक वो कभी खुद की बनाई इमेज़ के पायजामे से बाहर नहीं आए हैं।पर न जाने क्यों उनको देख के कभी-कभी  लगता है की उन्होंने खुद की इतनी विशालकाय इमेज़ बना रखी है जिसके नीचे दब कर उनका असली वाला मरिल्ला व्यक्तित्व बकरी के बच्चे के जैसा मिमिया रहा हो।पर फिर भी वो गोबर्धन पर्वत की तरह अपनी इमेज़ को लादे मन्द-मन्द दांत निकाल के मुस्कराया(खिसियाया ) करते हैं। उनकी यही तो विशेषता है की वो खुद को इतना विशेष(युनीक) समझने लगे हैं कि कभी-कभी उनको लगता है कि "अपुन इच ही भगवान है !"। बस अफ़सोस इसी ...

इरफ़ान खान

भारतीय सिनेमा के इस थर्ड क्लास दौर में जिसमे आज भी 95% फ़िल्मों में जब हीरो 20 गुन्डो से घिर जाता है, तो एक विलेन आगे दौड़ के आता है। जिसके बाद हीरो उस विलेन को एक मुक्का मारता है और वो 20 फिट दूर जाके गिरता है। जिसके बाद हीरो बाकी विलेन की भी पिटाई करता है।ऐसी फिल्म देखने के बाद दर्शक भी आस्तीने चढ़ाए हुए और शरीर को अनावश्यक फुलाते पिचकाते हुए और साथ में स्टाइल से सिगरेट पीते हुए सिनेमा हाल के बाहर मिल जाते है। यानी थोडा और बुरे लहज़े में कहूँ तो-"जैसे घटिया फिल्मे वैसे ही दर्शक" तो गलत नहीं होगा। लेकिन इसी दौर में इरफ़ान खान जैसा अभिनेता इस कूड़े के ढ़ेर( हिन्दी सिनेमा) में पड़े एक हीरे के जैसे दूर से ही अपनी अपनी चमक से पहचान में आ जाता है। साधारण कद काठी और बिना बाई सेप और ऐप्स पैक के दुबला-पतला सा एक अभिनेता, कैसे इस मन्दबुद्धि सिनेमा में अपनी जगह बनाता है ये अचरज पैदा कर देता है। उनकी संवाद शैली, उनकी भाव-भंगिमाएं उनका बिना संवाद बोले ही मात्र आंखो से ही अपने अपने किरदार को जी लेने की कला शायद ही और किसी अभिनेता के पास हो। साधरण से दृश्य को अपने अभिनय से असाधारण बना देना कोई इर...

सब परेशान हैं

अगर थोड़ा ध्यान से देखा जाए तो पता चलेगा कि सब परेशान हैं..बस सबकी परेशानी अलग अलग है। आम आदमी परेशान है की बाकी दुनियां उसके जैसा क्यों नहीं सोचती है। वहीं बुद्धजीवी परेशान है की वो दुनियां से कुछ अलग क्यों नहीं सोच पा रहा है। विपक्षी परेशान है की उसे सत्ता की मलाई नहीं चाटने को मिल रही है।वहीं सत्ताधारी परेशान है की ये मलाई उसे बस पांच सालों के लिए चाटने को मिली है।कहीं ऐसा न हो की ये मलाई उससे छीन के विपक्षियों को मिल जाए। अभिभावक परेशान है की उनके बच्चे कहीं पढ़ाई को ताख पे न रख दें। जिससे उनका अपने बच्चों को आइंस्टाइन और गैलीलियो बनाने का सपना अधूरा न रह जाए (हालाकि इन अभिभावकों के खुद के पर्सनल बापों ने भी उन्हें आइंस्टाइन बनाने की कोशिश की थी, जो पूरी नहीं हुई। इसलिये वो भी परेशान ही मर गये थे)। वहीं बच्चे अपने जाहिल बाप द्वारा लाख टेस्टोस्टिरोन हार्मोन्स (सेक्स हार्मोन्स) कुचले जाने के बाद भी दिन रात बस अपने बाबू अपने सोना से मिलने के लिए परेशान हैं। तथाकथित राष्ट्रवादी दल इसलिए परेशान हैं क्योंकि उनके द्वारा राष्ट्रवाद की जो संकीर्ण परिभाषा बनाई गई है उसे पूरा देश मानने को तैयार...

मजबूर मज़दूर

वैसे तो 'हम बोलेगा तो बोलोगे की बोलता है !' लेकिन क्या करें बोले बिना रहा भी नहीं जाता। बात इतनी सी है की सब अपने घरों मे क़ैद हैं और बेबसी से लॉकडाउन एक-एक दिन काट रहें हैं।ऐसे में अपने घर की वॉल पर लगी स्लिम टीवी पर गुजरात और महारास्ट्र में लाखों मज़दूरों को रोड पर इकट्ठा देख के सासें फूलने लगी है। बहुत ही संवेदनशील होने की कोशिश करने के बाद भी दिल के किसी कोने से आवाज़ आती है की "ये मज़दूर खुद तो मारेंगे ही ,हमें भी कोरोना से मार के मानेंगे!" लेकिन इस सब के बीच थोडा समय में पीछे चलके, बारीकी से इसपर विचार करते हैं।गौर करने वाली बात ये है कि इन मज़दूरों में अधिकतर मज़दूर उत्तर भारत के है। यही तो हम उत्तर भारतियों की खासियत है, चांद पर भी अगर कभी निर्माण कार्य हुआ तो मज़दूर हमारे उत्तर भारत से ही जाएंगे।  ऐसे में जब कोरोना महामारी भारत में पैर पसार रही थी तो इन मज़दूरो को लेकर नीति निर्माताओं ने क्या योजना बनाई थी ? वैश्विक परिदृश्य से इतर भारत में भी कोरोना की दस्तक फरवरी माह से ही हो गई थी। नीति निर्माताओं के पास इटली और ईरान में महामारी के कारण लॉकडाउन का अनुभव भी था।तो क...
इस ज़मीं पे रहो या बसो जा फलक जिन्दगी जब तलक उलझनें तब तलक एक अलग ही जहाँ को बसाये हुए इतनी उम्मीद खुद से लगाए हुए  दसियों सालों की प्लानिंग बनाए हुए लाखों ख्वाबों को दिल में सजाए हुए पल में डूबेगा सूरज मिलेना झलक ज़िन्दगी जब तलक उलझनें तब तलक पांच पुस्तों की परवाह करते हो जो पड़के लालच में पैसे पे मरते हो जो खामखां ही विवादों में पड़ते हो जो गैरों को खीच के आगे बढ़ते हो जो पाप का ये घड़ा जायेगा पर छलक जिन्दगी जब तलक उलझने तब तलक इस ज़मीं पे रहो या बसो जा फलक जिन्दगी जब तलक उलझने तब तलक                ● दीपक शर्मा 'सार्थक'

विभीषन धर्म

ऐसे ही कहावत नहीं बनी है की "घर का भेदी लंका ढाए।" विभीषन ने बाकायदा इस कहावत को अपने कृत्य से चिरितार्थ किया है। हमेशा से ही सुनते चले आ रहे हैं की कोई भी अपने बच्चे का नाम 'विभीषन' नहीं रखता, जबकी उन्हे राम का परम भक्त कहा जाता है। कभी-कभी कोई चाहे जितना भी धर्म के पथ पे क्यूँ न हो, पर उसे इतिहास में कभी सम्मान नहीं मिलता। विभीषन का चारित्र भी कुछ ऐसा ही है। माना रावण अधर्म के पथ पर था। उसमे लाख बुराई थी। माना विभीषन अधर्म में रावण का साथ नहीं देना चाहते थे।ये सब होने के बाद भी इस प्रश्न को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता की आखिर विभीषन राम से क्यों जा मिले ? न्याय तो यही कहता है की उनको लंका से निकलने के बाद इस पूरे युद्ध से खुद को दूर कर लेना था। न की बेहूदगी पे उतर के राम को रावण के मारने के राज बताने चाहिये थे। रावण ने अपने जीवन में न जाने कितने पाप किए होंगे पर तब तो विभीषन स्वर्ण नगरी लंका में ही सूख भोग रहे थे। ये वही लंका थी जिसे रावण ने अपने भाई कुबेर से छीनी थी। लेकिन तब तो विभीषन को कोई समस्या नहीं थी।  इस कृत्य से तो ऐसा ही लगता है की जैसे ही उनको पता चला की ...

भक्ति और तर्क

शान्त चित्त और मस्ती में राम नाम जपता हुआ 'भक्ति' अपनी गली से गुजर ही रहा था की एक हज़ार सवालों वाला मुँह लेके 'तर्क' उसके सामने आ गया। 'तर्क' को देख के 'भक्ति' मुह बिचका के बोला, "आज हमारी गली में कैसे आ गये 'तर्क' भाई ?" जवाब में तर्क मुस्कुरा के बोला, "मै तर्क हूँ।मुझे कही आने जाने से मनाही नही है भक्ति डीयर!" "हाँ, ये बात तो अपने बारे में तुमने एकदम सही कही तर्क! जहाँ कही भी कोई भक्तिमय माहौल हो तो उसे बिगाड़ने के लिए तुम दालभात में मूसलचंद बनके आ ही जाते हो।" भक्ति, तर्क की बात पे ठंडी प्रतिक्रिया देते हुए बोला।" भक्ति की बात सुनकर तर्क उसे समझाते हुए बोला, "डीयर, इसमे बुरा मानने वाली कोई बात नहीं है।मै तो इन्सान के बुद्धि,विवेक की उपज हूँ।मेरा होना एकदम स्वाभविक है।" भक्ति बोला,"चलो अगर तुम्हारी बात मान भी ली जाए तो भी तुमको पहले से स्थापित आस्था पर तरह तरह के प्रश्न खड़े करके,उसे चोट नहीं पहुचानी चाहिए।" तर्क, भक्ति की बात सुनकर बोला,"मै किसी को चोट नहीं पहुचाना चाहता डीयर! पर मै क्य...
विश्व में कोरोना से मरने वालों की संख्या 20 हज़ार हो गई है और इसमें निरंतर इज़ाफा होता जा रहा है।यहाँ गौर करने वाली बात ये है की भारत जैसे देश, जिसकी 75%आबादी को आज़ादी के 75 साल बाद भी अभी तक सरकार पूरी तरह ये समझाने में कामयाब नहीं हो पाई है कि कमसे कम खुले में सौच न करें।और सौच के बाद कमसे कम एक बार हाथ तो धो ही लें। ऐसी स्थिति में हैंड सेनिटाईज़ार और साफ सफाई की बात करना बैमानी सी हो जाती है। चूँकि समस्या इतनी विकराल है कि पूरी मानवता हिल गई है।ऐसे में इसका सामना करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है। युरोप जैसे विकसित देशो में इस महामारी का विकराल रूप देख के,और अपने देश के आधारभूत संरचना का पूरा आकलन करने के बाद इस महामारी से बचने का उपाय जो मुझे समझ में आ रहा है वो आप से खुले दिल से कहना चाह रहा हूँ ।बात तीखी हो सकती है..कलेजे में चुभ सकती है पर यकीन मानिए सच ही बोलूंगा। जैसा की प्रधान सेवक से लेके ग्राम प्रधान तक इस महामारी से बचने के लिए पूरी तरह घर पर ही रहने की बात कर रहे हैं। देश को लॉकडाउन कर दिया गया है।पर फिर भी लोग बाहर निकल रहे हैं। अब आप से ज़िक्र करना चहता हूँ की कौन कौन सी ...

क्या कहने !

कुछ लोकोत्तियां एवं उनके वाक्य प्रयोग-  1 उड़ता तीर लेना - जब दिसम्बर से ही विश्व में कोरोना वायरस की सुगबुगाहट शुरु हो गई थी तब देश के ये साले कैपेटिलिस्ट मार्च के महीने तक उड़ता तीर लेने विदेश क्यूँ घूमने जा रहे थे! 2 सांप निकलने के बाद लाठी पीटना -  कोरोना वायरस लेके जब ये लीचड़ कैपेटिलिस्ट देश में वापस आ रहे थे तब तो साहब ने उनकी एन्ट्री को पूरी तरह बैन नहीं किया और जब वायरस देश में घुस आया तो देश को लॉकअप में डाल के थाली बजाने को कह रहे हैं। ये तो वही बात हुई की सांप निकल गया और बाद में लाठी पीट रहे हैं! 3 खेत खाए गदहा मारा जाए जुलाहा- अब जब ये लीचड़ कैपेटिलिस्ट विदेशो से ये महामारी देश में ले आए हैं।तो ऐसे मे बिचारा दो वक्त की रोती के लिये ज़ीद्दोज़हद करने वाला गरीब भी खतरे में पड़ गया है। ये तो वही बात हुई की खेत खाए गदहा और मारा जाए जुलाहा ! 4 मरता क्या ना करता - ये शहर में महीने भर का राशन भरके बैठे लोग जो थाली बजा रहे हैं उनको शायद पता नहीं गांव का बिचारा गरीब घर में नहीं बैठ सकता क्यकि खेत में फसल पक चुकी है। उसको फसल भी काटनी है।उसे अपने घर में बंधे जानवरों के लिये बाहर स...

उधेड़बुन

इस सदी तक उधड़ते रहे और तुम एक लम्हें में कैसे बुनोगे हमें  पहले सुलझा तो लो, जो है उलझा हुआ गिरहे पड़ जायेंगी जो छुओगे हमें टूटे ख्वाबों की बिखरी जो कतरन पड़ी  उनमें बस खोजते ही रहोगे हमें ।। दर्द की सिलवतों में हूँ लिपटा हुआ खीच कर अब कहाँ ले चलोगे हमें    बीच से डोर जीवन की खींचो नहीं  ढूढ़ो पहला सिरा तब सुनोगे हमें ! घाव से मेरे पैबन्द खीचो नहीं  मर गये गर कहीं क्या करोगे हमें           ● दीपक शर्मा 'सार्थक'
वो जब भी देखते हैं  तो अपेक्षा भरी नजरों  से देखते हैं  या उपेक्षा भरी नज़रों से देखते हैं  उनके मन का होता रहे वो उसे ही प्रेम समझते हैं  समझे भी क्यूँ न ! वो प्रेम को अपनी बपौती जो समझते हैं  उन्हें कौन समझाए की उनके बंजर हृदय में  प्रेम का स्रोत कब का सूख गया है उनकी वीरान स्वार्थी आखों से प्रेम कबका रूठ गया है इसलिये जब वो देखते हैं  तो अपेक्षा भरी नज़रों से देखते हैं  या उपेक्षा भरी नज़रों से देखते हैं             ● दीपक शर्मा 'सार्थक'

छोटी सी बात !

बात उन दिनों की है जब हम ताज़ा-ताज़ा जवान हुए थे।और वो जवानी ही किस काम की जो गांव से शहर जाने के लिये ना चर्राने लगे, इसलिये तमाम आधुनिक युवाओं की तरह हम भी घर वालों को "आई.ए.स" की तैयारी के नाम का चूरन चटा कर अपने नज़दीकी शरह लखनऊ में किराये पर रुम लेकर रहने लगे।  वही पर मेरी मुलाकात पूर्वांचल के एक विशेष जिले के रहने वाले एक चलते फिरते साईनाइड टाइप के व्यक्ति से हुई। वो साहब एक नेता जी से बहुत प्रभावित थे। दिन रात उनका गुणगान मेरे से करते रहते। उन्होने बताया की उनके यहाँ के नेता जी इतने जबरदस्त हैं की एक बार उन्होने अपनी रैली में भाषण देते हुए अल्पसंख्यक सम्प्रदाय को संबोधित करते हुए कह दिया था की " कृपया आप लोग मुझे वोट ना दें..अगर मुझे पता चला की किसी अल्पसंख्यक भाई ने मुझे वोट दिया है तो मै बैलेट बाक्स को पहले गंगाजल से धुलवाउंगा..उसके बाद वोटों की गिनती होगी।" इसी तरह दिन रात बहुत मेहनत करके वो मेरे आशिक़ मिज़ाज शायर दिमाग में अपने अन्दर का ज़हर घोल कर ये समझाने में कामयाब रहे की मै एक "हिन्दू" हूँ। लेकिन वो साहब यही तक नहीं रुके।उनके परमहंसो वाले प्रवचन ...