सोशल मायाजाल

जब मैथलीशरण गुप्त जी ने "नर हो न निराश करो मन को..कुछ काम करो..कुछ काम करो !" कविता लिखी थी तब उनका ये कतई मतलब नहीं रहा होगा कि लोग दिन रात बस मोबाइल पे काम करते रहें। यहां तक अपने नरसैगिक नित्यकर्म के समय भी लोग मोबाइल लेके काम करते रहेंगे। अगर इसका ज़रा सा भी अहसास उनको होता तो "कुछ काम करो..कुछ काम करो !" जैसी बात कभी नहीं करते।
मोबाइल वाला मनोरोग, यहां तक लोगो के दिमाग में घुस गया है कि लोग अपने मोबाइल से एक क्षण के लिए भी दूर नहीं हो पा रहे हैं। खासकर किशोरावस्था के बच्चे जिनके अमीर माँ बाप उनके पैदा होते ही एक मोबाइल हाथ में पकड़ा देते हैं। मेरी समझ में नहीं आता की आखिर 24 घन्टे कौन सा काम मोबाइल पे करते हैं।इससे भी बुरी बात ये है कि समाज ने इस बात को इस कदर स्वीकार कर लिया है कि बिना मोबाइल वाले की व्यक्ति की गिनती असमान्य लोगों में होने लगी है। उदाहरण के लिए-
मान लीजिए कोई व्यक्ति कहीं पब्लिक प्लेस पे बैठा हो! एकदम शान्त..बिना हाथ में मोबाइल लिए, बस बैठा हो, कुछ कर न रहा हो।ऐसे में वहां से जो लोग गुजरेंगे वो उसको ध्यान से देखेंगे। आखिर ये कुछ कर क्यूँ नहीं रहा है! वो व्यक्ति भी लोगों की चुभती नजरों से बचने के लिए अनायास ही मोबाइल निकाल के चलाने लगेगा।
 मैने ऐसा हजारों बार ट्रेन में..बस में..हॉस्पिटल में .. होते देखा है जब लोग अकारण ही मोबाइल निकाल के देखने लगते हैं।पर अब ये धीरे धीरे एक मनोरोग में बदलता जा रहा है। सुबह आखें खुलते ही मोबाइल देखना, रात में जब तक आखें बन्द न होने लगें..तब तक मोबाइल देखना। अकेले में हों या भीड़ में हो..बस मोबाइल में कुछ करते रहना ! हर वक़्त बस इन्गेज़ रहना।
यहाँ पर गौर करने वाली बात ये है कि फ़ेसबुक, ट्वीटर,वॉट्सएप्प, इंस्टाग्राम जैसे सोशल मीडिया अकाउंट लोगो को इन्गेज़ रखने के लिए कोई कसर भी बाकी नहीं रखना चाहते। अगर ध्यान से इन कम्पनियों का मूल्यांकन करके देखें आपको सच पता चल जायेगा। आखिर वॉट्सएप्प पे 'लॉगआउट' का विकल्प क्यों नहीं है? जैसे ही किसी ज़रूरी काम से इन्टरनेट डाटा ऑन करो..वैसे ही वॉट्सएप्प पे ऑनलाइन शो होने लगेगा। जिसने भी मैसेज किया होगा, वो सारे आ जाएंगे। और मैसेज भेजने वाले के मोबाइल पे डबल टिक हो जायेगा। आखिर क्यों वॉट्सएप्प यूजर को ये अधिकार नहीं देता कि वो अपनी मर्ज़ी से अपना अकाउंट ऑन और ऑफ़ करे! ज़ाहिर सी बात है नेट ऑन करने पे जब अपने आप सारे मैसेज आ जाते हैं तो स्वाभाविक है कि लोग रिप्लाई करने लगते हैं। और फिर इन्गेज़ हो जाते हैं।
हालत ये है की अब 'सोशल मीडिया' को हम यूज़ नहीं कर रहे हैं..बल्कि 'सोशल मीडिया' हमको यूज़ कर रहा है। फर्जी के नोटिफिकेशन..बिना मतलब की सूचनाओं से मस्तिष्क में कूड़ा भरा जा रहा है। स्क्रीन पे लिख के आयेगा कि "फलाने सेलिब्रिटी ने कही बड़ी बात!" अब जब उसको पढ़ने के लिए क्लिक करो तो पूरा पेज खुलेगा और ही वाहियात बेमतलब सी बात उसमे लिखी होगी।सोशल मीडिया का ऊद्देश्य बस यही है कि कैसे भी करके लोगों को इन्गेज़ रखा जाए।
 ये इंटरनेट..ये मोबाइल..ये सोशल मीडिया..इन सबने मिलकर हमारे चारों ओर एक आभासी दुनियां बना दी है। एक ऐसा मायाजाल फैल गया है,जो अब इन्सान के नियन्त्रण से बाहर हो गया है।लोग अपनों से दूर होते जा रहे हैं। अगर चार दोस्त कहीं मिलते हैं तो आपस में बातें कम अपने मोबाइल पे ज़्यादा व्यस्त रहते हैं।घर के सदस्यों ने आपस में बातचीत कम कर दी है। पति पत्नी अपने अपने मोबाइल में व्यस्त रहते लगे हैं।
दिन पर दिन हम इस आभासी मायाजाल में जकड़ते जा रहे हैं। हमारी जनरेशन के लोग, जिनके सामने मोबाइल का अविष्कार का हुआ है..जिन्होने मोबाइल और सोशल मीडिया के मायाजाल से पहले की वास्तविक दुनियां देखी है,जब उनका ये हाल है तो ज़रा कल्पना करके देखिए की हमारे बच्चे, जो हाथ में मोबाइल लेके पैदा हुए हैं। उनके लिए ये मायाजाल कितना वास्तविक होगा! अगर आप सोचते हैं कि जितने संवेदनशील आप हैं, उतने ही आप के बच्चे भी हैं तो आप बहुत बड़ी गलतफ़ैमी में जी रहे हैं। वो सारी संवेदना जो हम इन्सानो को मशीन से अलग करती है, वो संवेदना पीढ़ी दर पीढ़ी हमारे बच्चों में कम होती जा रही है।हम मशीन बनाने के चक्कर में खुद मशीन बनते जा रहे हैं। हम इन मशीनों में इतना इन्गेज़ हो गए हैं कि अब हमें अपनी अंतरात्मा की आवाज़ भी सुनाई नहीं देती।
वैसे तो मै कभी सलाह देने वाले लेख नहीं लिखता। लेकिन यहाँ बोले बिना नहीं रहा जा रहा है।अब वो समय आ गया है जब हमें सोशल मीडिया के प्रयोग को लेकर अपने स्तर पे और सरकारी स्तर पर कदम उठाने होंगे। अपने स्तर पे अगर हम कर पायें तो सप्ताह में कम से कम एक दिन अपने मोबाइल से दूर रहें।गांधी सप्ताह में एक दिन मौन व्रत रखते थे। अब समय है की हम सप्ताह में एक दिन का 'मोबाइल व्रत' रखें।खुद को और अपने बच्चों को जहाँ तक संभव हो, सोशल मीडिया से दूर रखें। सरकारी स्तर पे कानून बनना चाहिये की जो व्यक्ति प्रतिदिन दो घन्टे से ज़्यादा सोशल मीडिया पे बिताए उसका अकाउंट उस दिन के लिए अपने आप बन्द हो जाए! ऐसे ही और सख्त नियम बनाए जाएं।
मैने कुछ साल पहले भी अपने एक व्यंग्य (ऑनलाइन) में इस मद्दे को उठाया था। उसी व्यंग्य के एक हिस्से को फिर दोहरा रहा हूँ -
 शंकराचार्य की "ब्रह्म सत्यम् जगत मिथ्या" वाली बात अब सत्य प्रतीत हो रही है। देखा जाए तो केवल ब्रह्म(ईश्वर) और ब्रह्म द्वारा बनाई गई चीज़ सत्य है। बाकी जगत द्वारा बनाई गई हर वस्तु मिथ्या है।जगत ने जाति धर्म बनाया वो मिथ्या है..इन्टरनेट बनाया वो मिथ्या है..सोशल मीडिया बनाया वो मिथ्या है..केवल मायाजाल है। और हमको इसी आभासी मायाजाल से बचना है।

                        ● दीपक शर्मा 'सार्थक'

       

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