प्रेम की पाठशाला

वो जो मन के ठोस हैं
संवेदनाओ के शुष्क हैं
भावना हीन पाषाण हैं
संवेगो से जड़ हैं
करुणाहीन, स्थिर हैं
वो प्रेम को क्या समझेंगे!

प्रेम तो सारे तटबंधो का
टूट कर ढहना है !
पाषाणो का सीना चीर के
उन्मुक्त नदी सा बहना है !
जलती लौ में
मोम सा पिघल कर,
दर्द को सहना है !
संवेगो का आभूषण है,
आवेगों का गहना है !

इससे इतर 
जो शुष्क, ठोस, पाषाण हैं
और अहंकार में चूर हैं  !
वो दया के पात्र हैं
प्रेम से कोसो दूर हैं !

           ● दीपक शर्मा 'सार्थक'










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