शब्दव्यूह
और तुम्हारा कुछ न कहना !
रति विरक्त मैं व्योम व्यंग्य का
कटु वीभत्स लिखने का आदी
तटविहीन उद्विग्न हृदय में
निज प्रश्नो की लिए समाधी
किन्तु सकल अनुभव शब्दों में
व्यक्त तुम्हें अक्षरशः करना !
मेरा शब्द व्यूह का रचना
और तुम्हारा कुछ न कहना !
है श्र्ंगार का सार अपरिचित
मैं संयोग-वियोग न मानू
पुलकित प्रेम प्रकट हो कैसे
हूँ अनभिग्य न कुछ मै जानू
मद अज्ञान के हठ में डूबा
सदा तम्हें शब्दों से छलना !
मेरा शब्द व्यूह का रचना
और तुम्हारा कुछ न कहना !
मैं गणितीय सूत्र से प्रतिपल
प्रेम समझना चाह रहा था
तर्क-वितर्क के मापदंड से
करुणित प्रेम को आंक रहा था
तू अबोध निश्छल अरुणोदय
निर्विकार नि:स्वार्थ निकलना !
मेरा शब्दव्यूह का रचना
और तेरा कुछ भी न कहना !
मेरे शब्दकोश के जितने
शब्द तुम्हारे पास नहीं हैं
मेरे इस निष्ठुर स्वभाव से
भले तुम्हें अब आस नहीं है
पर मेरे अपराध भुलाकर
पुन: मुझे आलिंगन करना !
मेरा शब्दव्यूह का रचना
और तुम्हारा कुछ न कहना !
● दीपक शर्मा 'सार्थक'
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