असत्य का सत्य

एक तो हम इस दुनियां से हारे हैं! परेशान करके रखा हुआ है।बचपन से ही हम लोगो को रटाया जा रहा है की "सत्यमेव जयते" यानी सत्य की हमेशा जीत होती है। और अगर किसी से पूछ लो की सत्य है क्या? तो किसी को कुछ नहीं पता है।
भारतीय दर्शन के चार्वाक, सांख्य, जैन,अद्वेत, न्याय, बौद्ध जैसे दर्शन हो या फिर पाश्चात्य दार्शनिक जैसे प्लेटो, अरस्तू, देकार्त, स्पनोजा, हेगल हो, हर कोई बस सत्य को ही ढूढ रहा है। जितने मुह उतनी बातें! जितने दर्शन उतने सत्य! हालत कुछ इस तरह की है एक व्यक्ति को कच्चा आम खाने को दिया जाए और दूसरे को पका हुआ आम खाने को दिया जाए,फिर उन दोनो लोगों से आम के स्वाद के बारे में पूछा जाए। तो जिस व्यक्ति ने कच्चा आम खाया होगा हो खट्टा-खट्टा चिल्लायेगा,और जिसने पका हुआ आम खाया है वो मीठा-मीठा चिल्लाएगा।
कहने का मतलब ये है कि सत्य का स्वरूप क्या है ये किसी को नहीं पता।परिस्थितयों के अनुसार सत्य का स्वरूप भी बदलता जाता है। जबकी असत्य अपने आप में स्पष्ट है, जाहिर है।असत्य को लेकर कोई भ्रम नहीं है।
इसमे बुरा मनाने वाली कोई बात नहीं है पर इसको मानना ही पड़ेगा का असत्य स्वभाव से सत्य से ज़्यादा व्यापक होता है। यानी उसका प्रचार प्रसार आसानी से अपने आप हो जाता है। उदाहरण के लिए -
रिजर्व बैंक ने शुरुवात में 10 रु के कुछ ऐसे सिक्के निकाले थे जिसपर रुपिये का सिम्बल ( ₹) नहीं बना था। जबकी बाद में ये निशान बन के आने लगा। अब पता नहीं कैसे ये अफवाह उड़ी की जिस 10 रुपिये के सिक्के पे रुपिये का निशान( ₹) न हो वो सिक्का नकली है।फिर क्या था देखते ही देखते ये बात देश के छोटे छोटे गांव कस्बों मे पहुच गई। हर आदमी बिना निशान(₹) वाले सिक्के को लेने से इन्कार करने लगा।हालात यहां तक खराब हुए की रिजर्व बैंक ने बाकायदा एक प्रेस विज्ञप्ति रेलीज़ किया कि अगर कोई भी व्यक्ति ऐसे सिक्कों को लेने से इन्कार करता है तो उस पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा लिखा जायेगा। पर हालात नहीं सुधरे। और ऐसे बिना निशान वाले सिक्के आखिरकार बाजार से गायाब हो गये। इसी से पता चलता है की असत्य कितना व्यापक होता है।
फिर जब हमें बचपन से पढ़ाया जा रहा है कि सत्य हमेशा जीतता है तो ये बात पूरी तरह गले से नीचे नहीं उतरती।
भगवान राम का ही उदाहरण लेते हैं-
एक नज़रिये से देखा जाए तो रावण पर राम की विजय,बुराई पर अच्छाई की जीत है न की असत्य पर सत्य की जीत है।
राम का पूरा जीवन काल देखने से साफ पता चलता है की उन्होने बुराई पर तो जीत हासिल की पर असत्य पर नहीं। जैसे सीता की अग्निपरीक्षा हुई।यहां तक कहा गया की असली सीता तो अग्नि में ही थी केवल उनकी परछाई ही लंका गई थी।लेकिन फिर भी अयोध्या वासियो के दुष्प्रचार में आकर उनको सीता का त्याग करना पड़ा। यहां साफ-साफ असत्य जीतता हुआ दिखाई पड़ता है।
कृष्ण ने भी अधर्म के विनाश और धर्म की रक्षा के लिए अवतार लिया था। न कि असत्य पर सत्य की विजय ले लिए अवतार हुआ था। कृष्ण ने तो बल्कि असत्य की एक हथियार की तरह प्रयोग किया। जैसे युधिष्ठिर द्वारा द्रोणाचार्य को उनके पुत्र अश्वत्थामा के मृत्यु की असत्य सूचना देना। "अश्वत्थामा हतो, नरो वा कुंजरो वा" और इसी असत्य के सहारे द्रोणाचार्य का वध हुआ।
इन सब बातों को ध्यान में रख कर अगर सोचा जाए तो मुझे नहीं लगता है की ईश्वर को असत्य से कोई समस्या है। लेकिन ये बात इस पर निर्भर करती है की असत्य बोलने वाले का इरादा कैसा है।
इसे भी एक उदाहरण से समझते हैं -
ये बात उस समय की है जब भगवान परशुराम पृथ्वी से क्षत्रियों का नाश कर रहे थे। वो दो क्षत्रि बालकों का पीछा जंगल में कर रहे थे। दोनो बालक भागते-भागते जंगल में रह रहे दो ऋषियों की अलग अलग कुटिया में घुस गए।क्रोध से भरे परशुराम ने दोनो ऋषियों से कहा की आप दोनो की कुटिया में मेरे दो शत्रु घुस गये है। इसलिये उनको तुरन्त बाहर निकालिए। 
उन दोनो ऋषियो में से एक ऋषि जो हमेशा सत्य बोलते थे उन्होने बता दिया की "हाँ मेरी कुटिया में एक बालक घुस गया है।"और इस तरह परशुराम ने जाकर उसका वध कर दिया।लेकिन दूसरे ऋषि साफ मुकर गये और बोले की "मेरी कुटी में आप का कोई शत्रु नहीं गया है।" और उस क्षत्रि बालक को अपने वस्त्र पहना कर बाहर ले आए। जब परशुराम ने पूछा की ये बालक कौन है तो उन्होने कहा की ये ब्राह्मण बालक है। परशुराम ने क्रोध में कहा अगर ये ब्राह्मण है तो इस बालक के साथ एक थाली में भोजन करना पड़ेगा। ऋषि ने बालक के साथ भोजन भी कर लिया। ये देख के परशुराम को वापस लौट जाना पड़ा। इस तरह वो पहले ऋषि जिसने सत्य बोला उनको नर्क जाना पड़ा और दूसरे ऋषि जिन्होने असत्य बोला, साथ खाना खाके अपनी जाति गवाई,फिर भी उनको स्वर्ग मिला।
इससे पता चलता है कि सत्य हो या असत्य, किस इरादे से बोला गया है, ये माइने रखता है।
फिर थोडा कल्पना करके देखे की अगर दुनियां से असत्य गायब हो जाए,हर किसी को बस सत्य बोलना पड़े तो ये दुनियां कैसी होगी?
इन्सान एक दूसरे के बारे में क्या सोचते हैं,ये पता चल जायेगा। सारे सम्बंध के ताने बाने टूट जायेंगे। समाज बिखर जायेगा। यानी एक तरह से देखा जाए तो ये समाज हमारे असत्य पर टिका है। असत्य के बिना हमारा समाज चल ही नहीं सकता। और ये सब कहने की बात है कि सत्य हमेशा जीतता है और असत्य की हमेशा हार होती है।जीत हार बस बोलने वाले की नीयत की होती है।

                     ●दीपक शर्मा 'सार्थक'

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