वो जब भी देखते हैं 
तो अपेक्षा भरी नजरों  से देखते हैं 
या उपेक्षा भरी नज़रों से देखते हैं 
उनके मन का होता रहे
वो उसे ही प्रेम समझते हैं 
समझे भी क्यूँ न !
वो प्रेम को अपनी बपौती जो समझते हैं 
उन्हें कौन समझाए की
उनके बंजर हृदय में 
प्रेम का स्रोत कब का सूख गया है
उनकी वीरान स्वार्थी आखों से
प्रेम कबका रूठ गया है
इसलिये जब वो देखते हैं 
तो अपेक्षा भरी नज़रों से देखते हैं 
या उपेक्षा भरी नज़रों से देखते हैं 

           ● दीपक शर्मा 'सार्थक'

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