उधेड़बुन

इस सदी तक उधड़ते रहे और तुम
एक लम्हें में कैसे बुनोगे हमें 

पहले सुलझा तो लो, जो है उलझा हुआ
गिरहे पड़ जायेंगी जो छुओगे हमें

टूटे ख्वाबों की बिखरी जो कतरन पड़ी 
उनमें बस खोजते ही रहोगे हमें ।।

दर्द की सिलवतों में हूँ लिपटा हुआ
खीच कर अब कहाँ ले चलोगे हमें 
 
बीच से डोर जीवन की खींचो नहीं 
ढूढ़ो पहला सिरा तब सुनोगे हमें !

घाव से मेरे पैबन्द खीचो नहीं 
मर गये गर कहीं क्या करोगे हमें 

         ● दीपक शर्मा 'सार्थक'

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