मजबूर मज़दूर
बात इतनी सी है की सब अपने घरों मे क़ैद हैं और बेबसी से लॉकडाउन एक-एक दिन काट रहें हैं।ऐसे में अपने घर की वॉल पर लगी स्लिम टीवी पर गुजरात और महारास्ट्र में लाखों मज़दूरों को रोड पर इकट्ठा देख के सासें फूलने लगी है। बहुत ही संवेदनशील होने की कोशिश करने के बाद भी दिल के किसी कोने से आवाज़ आती है की "ये मज़दूर खुद तो मारेंगे ही ,हमें भी कोरोना से मार के मानेंगे!"
लेकिन इस सब के बीच थोडा समय में पीछे चलके, बारीकी से इसपर विचार करते हैं।गौर करने वाली बात ये है कि इन मज़दूरों में अधिकतर मज़दूर उत्तर भारत के है। यही तो हम उत्तर भारतियों की खासियत है, चांद पर भी अगर कभी निर्माण कार्य हुआ तो मज़दूर हमारे उत्तर भारत से ही जाएंगे।
ऐसे में जब कोरोना महामारी भारत में पैर पसार रही थी तो इन मज़दूरो को लेकर नीति निर्माताओं ने क्या योजना बनाई थी ?
वैश्विक परिदृश्य से इतर भारत में भी कोरोना की दस्तक फरवरी माह से ही हो गई थी। नीति निर्माताओं के पास इटली और ईरान में महामारी के कारण लॉकडाउन का अनुभव भी था।तो क्या नीति निर्माता इस बात को लेके पूरी तरह आवस्थ थे कि भारत में ऐसी(लॉक डाउन) स्थिति नहीं आयेगी?
उत्तर भारतीय मज़दूरो की एक खास बात ये है की वैसे तो वो पूरा साल बाहर ही काम करते हैं पर होली के पर्व पे वो ज़रुर अपने घर आते हैं। और होली तक तो ये एकदम स्पष्ट हो गया था की भारत कोई अनूठा देश नहीं है जहाँ कोरोना वायरस नहीं पहुचेगा। तो क्या होली का ही फायदा उठा कर जब ज़्यादातर मज़दूर अपने गांव लौट आए थे, नीति निर्माताओं को महानगर में फैले उद्योगों को इससे जुड़े दिशा निर्देश नहीं देने चाहिए थे ? ताकी होली के बाद पुन: लाखों मज़दूर महानगरों में इकट्ठा न हो पाते।
अब तब स्थित विकराल हो गई है। और लाखो मज़दूरों को सम्भालने के लिए नीति निर्माताओं को काफी बड़ी मात्रा में धन बल और श्रम बल की आवश्यकता पड़ रही है। तो ये खयाल बरबस ही ज़ेहन मे आ जाता है की अगर थोडा पहले चेत गये होते तो शायद स्थित इतनी भयानक न होती।
खैर बाकी सब मोह माया है।यही सोच के मेरी बात को कलेजे मत ना लें। घर पर रहें स्वस्थ रहें।
● दीपक शर्मा 'सार्थक'
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