विभीषन धर्म

ऐसे ही कहावत नहीं बनी है की "घर का भेदी लंका ढाए।" विभीषन ने बाकायदा इस कहावत को अपने कृत्य से चिरितार्थ किया है। हमेशा से ही सुनते चले आ रहे हैं की कोई भी अपने बच्चे का नाम 'विभीषन' नहीं रखता, जबकी उन्हे राम का परम भक्त कहा जाता है। कभी-कभी कोई चाहे जितना भी धर्म के पथ पे क्यूँ न हो, पर उसे इतिहास में कभी सम्मान नहीं मिलता। विभीषन का चारित्र भी कुछ ऐसा ही है।
माना रावण अधर्म के पथ पर था। उसमे लाख बुराई थी। माना विभीषन अधर्म में रावण का साथ नहीं देना चाहते थे।ये सब होने के बाद भी इस प्रश्न को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता की आखिर विभीषन राम से क्यों जा मिले ?
न्याय तो यही कहता है की उनको लंका से निकलने के बाद इस पूरे युद्ध से खुद को दूर कर लेना था। न की बेहूदगी पे उतर के राम को रावण के मारने के राज बताने चाहिये थे।
रावण ने अपने जीवन में न जाने कितने पाप किए होंगे पर तब तो विभीषन स्वर्ण नगरी लंका में ही सूख भोग रहे थे। ये वही लंका थी जिसे रावण ने अपने भाई कुबेर से छीनी थी। लेकिन तब तो विभीषन को कोई समस्या नहीं थी। 
इस कृत्य से तो ऐसा ही लगता है की जैसे ही उनको पता चला की कोई ऐसा भी है जो रावण को मार के उसका राज्य उनको दे सकता है। वैसे ही वो राम के साथ हो लिए। राम ने भी बिना एक क्षण गवाये युद्ध से पहले की उनको लंका का राजा घोषित कर दिया। लेकिन यहाँ ध्यान देने वाली बात ये है की विभीषन कभी स्वतंत्र राजा नहीं बने।बल्कि उन्होने अयोध्या के एक उपनिवेश की तरह लंका पर राज्य किया।
'आचार्य चतुरसेन' ने अपनी विश्व प्रसिद्ध पुस्तक "वयम् रक्षाम:" मे इसका ज़िक्र किया है। उनके अनुसार विभीषन को कभी भी लंका वासियो से सम्मान नहीं प्राप्त किया। आचार्य के अनुसार राम युग समाप्त को जाने के बाद लंका में विभीषन के खिलाफ विद्रोह हुआ और लंका वासियो ने विभीषन को राजगद्दी से उतार फेंका और उसे लंका से भागना पड़ा।
इससे पता चलता है की धर्म और अधर्म के बीच एक बहुत पतली और पारदर्शी परत होती है। कभी कभी बहुत धर्म-धर्म चिल्लाने वाले भी अपने स्वार्थ वश अधर्म कर बैठते हैं।विभीषन से यही सीख मिलती है।

            ● दीपक शर्मा 'सार्थक'

Comments

Popular posts from this blog

एक दृष्टि में नेहरू

वाह रे प्यारे डिप्लोमेटिक

क्या जानोगे !