छोटी सी बात !

बात उन दिनों की है जब हम ताज़ा-ताज़ा जवान हुए थे।और वो जवानी ही किस काम की जो गांव से शहर जाने के लिये ना चर्राने लगे, इसलिये तमाम आधुनिक युवाओं की तरह हम भी घर वालों को "आई.ए.स" की तैयारी के नाम का चूरन चटा कर अपने नज़दीकी शरह लखनऊ में किराये पर रुम लेकर रहने लगे। 
वही पर मेरी मुलाकात पूर्वांचल के एक विशेष जिले के रहने वाले एक चलते फिरते साईनाइड टाइप के व्यक्ति से हुई। वो साहब एक नेता जी से बहुत प्रभावित थे। दिन रात उनका गुणगान मेरे से करते रहते। उन्होने बताया की उनके यहाँ के नेता जी इतने जबरदस्त हैं की एक बार उन्होने अपनी रैली में भाषण देते हुए अल्पसंख्यक सम्प्रदाय को संबोधित करते हुए कह दिया था की " कृपया आप लोग मुझे वोट ना दें..अगर मुझे पता चला की किसी अल्पसंख्यक भाई ने मुझे वोट दिया है तो मै बैलेट बाक्स को पहले गंगाजल से धुलवाउंगा..उसके बाद वोटों की गिनती होगी।"
इसी तरह दिन रात बहुत मेहनत करके वो मेरे आशिक़ मिज़ाज शायर दिमाग में अपने अन्दर का ज़हर घोल कर ये समझाने में कामयाब रहे की मै एक "हिन्दू" हूँ।
लेकिन वो साहब यही तक नहीं रुके।उनके परमहंसो वाले प्रवचन तब तक मेरे साथ चलते रहे जब तक उन्होँने मुसलमानों को देखने का एक विशेष प्रकार का नज़रिया मुझे नहीं दे दिया।
ज़िन्दगी ऐसे ही चल रही थी। इसी दौरान महीने में कम से कम एक बार लखनऊ से गांव जाना ज़रुर हो जाता था।इसी प्रक्रिया का पालन करते हुए एक दिन हम गांव जाने के लिये बन ठन कर रुम से निकल पड़े, जब तक बसअड्डे पहुचें तब तक गांव जाने वाली बस भूसे की तरह भर गई थी। उसी भीढ़ में हम भी बस के अन्दर अपनी पूरी ताकत से घुसने लगे पर अचानक मेरा पैर किसी के पैर के ऊपर पड़ गया और चीखने की आवज आई।जब मैने पीछे मुड़ के देखा तो कुर्ता पैजामा पहने..बड़ी सी दाड़ी पर मूछें गायब, सर पर जालीदार टोपी पहने एक मुल्ला जी बैठे थे।
मुल्ला जी दर्द के मारे कराह रहे थे। मेरी नज़र जब उनके पैर पर गई तो मै भी डर गया।हुआ ये था की मेरा नुकीला लेदर का जुता उनके पैर के ऊपर पड़ गया था जिससे उनके पैर की सबसे छोटी वाली उंगली फट गई थी और उसमे से खून निकल रहा था।
मेरी हालत एकदमŕ पतली हो गई, मुझे लगा अब तो ज़रुर बवाल होगा। इसलिये मैने मौके की नज़ाकत को देखते हुए अंग्रेज़ो द्वारा इजाद किया हुआ ब्रह्मास्त्र यानी "सॉरी" बोलकर माहौल को हल्का करने की कोशिश की।
मेरे सॉरी बोलने पर मुल्ला जी ने मेरी ओर देखा और पीड़ा से भरे अपने चहरे पर हल्की सी मुस्कुराहट लाकर बोले "अरे इसमे सॉरी की क्या बात है भाई ..आप का पैर अन्जाने मे मेरे पैर पर पड़ गया..इसमे आप की कोई गलती नही। कोई भला जान बूझ कर क्यूँ चोट पहुचायेगा।"
इतना बोलकर वो फिर से अपनी चोट पर रुमाल लपेटने लगे।
मै एकदम चुप होकर दूर से ही उनका मुह देख रहा था। भले ही उनका परिधान..उनकी भेष भूशा मुझसे एकदम अलग थी ..भले ही उनके संप्रदाय को देखने का एक विशेष नज़रिया मुझे बचपन से सिखाया गया था.. भले ही शहर मे रहने वाले मेरे साईनाइड ज़हर टाइप के मित्र ने मुसलमानों को लेकर कितना ही ज़हर मेरे दिमाग में घोल दिया हो पर मुल्ला जी के सहज और करुणा से भरे चंद शब्दों ने मुझे अन्दर तक द्रवित कर दिया।मेरा मन जैसे धुल गया।मेरी सोच को जैसे एक नया विस्तार मिल गया।एक छोटी सी घटना ने मुझे समाज को देखने का एक नया आयाम दे दिया था।

                        ● दीपक शर्मा 'सार्थक'

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