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Showing posts from 2023

प्रेम गीत

घटाओं में खुशबू बिखरने लगी है हंसी तेरे अधरो पे खिलने लगी है सरोवर में खिलते कमल पुष्प जैसे नयन ये कथानक नया लिख रहे हैं  गुलाबी ये गालों की रंगत है जैसे प्रकृति ने स्वयं ही इन्हें रंग दिए हैं घने गेसुओं को संवारा है जबसे मेरी उलझने भी सुलझने लगी हैं घटाओ में खुशबू बिखरने लगी है हंसी तेरे अधरों पे खिलने लगी है (१) जेहन में नयन ये बसे हैं तुम्हारे गहन इस अंधेरे में दीपक के जैसे नजर भर के जिसपे नजर तुमने डाली हृदय को वो अपने संभाले भी कैसे सदा निष्कपट नेत्र, निश्छल निगाहें निहित प्रेम से ही निखरने लगी हैं घटाओ में खुशबू बिखरने लगी है हंसी तेरे अधरों पे खिलने लगी है (२)               © दीपक शर्मा ’सार्थक’

खामोश लहज़ा

ये खामोश लहेज़ा टटोला ही जाए जरूरी नहीं है कि बोला ही जाए ! ज़हर ही ज़हर दिख रहा जिंदगी में तो क्यों न तबीयत से घोला ही जाए ! दफन है जो किरदार सदियों से दिल में परत दर परत उसको खोला ही जाए ! ज़माने से बैठे हैं चौखट पे तेरी चलो अब कहीं और डोला ही जाए ! ये माना है ग़ुरबत तो क्या इसका मतलब मोहब्बत को दौलत से तोला ही जाए !                    ©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’

हृदय की जटिल प्रकिया

हृदय से हृदय को छुएं भी तो कैसे सुना है बहुत ही जटिल प्रक्रिया है किसी के हृदय पे अहम का है पर्दा कहीं पर वहम ही परछाइयां हैं कहीं तो हृदय की जगह पे है पत्थर कभी दुनियादारी की पाबंदियां हैं  ये संवेदनाएं सुनाएं भी किसको ये मतलबपरस्ती कि ही बस्तियां हैं हृदय से हृदय को छुएं भी तो कैसे सुना है बहुत ही जटिल प्रक्रिया है ! कहीं उलझनों का बिछा जाल है तो किसी के हृदय में भरी है उदासी द्रवित है कोई दर्द में इक क़दर की दिखे है उसे बस निराशा ख़ुमारी किसी को किसी पे भरोसा नहीं है महज स्वार्थपरता से ही सब क्रिया है हृदय से हृदय को छुएं भी तो कैसे सुना है बहुत ही जटिल प्रक्रिया है ! कोई प्रेम को जो उजागर भी कर दे तो दूषित प्रथाएं निगल जाएं उसको पसोपेश में ही फंसे हैं यहां सब कोई हाल-ए-दिल भी सुनाए तो किसको ये उलझन, ये पीड़ा, ये आंसू सभी के हृदय में सहज ही कोई भर दिया है हृदय से हृदय को छुएं भी तो कैसे सुना है बहुत ही जटिल प्रक्रिया है !                 © दीपक शर्मा ’सार्थक’

व्यथित मन

जब बोल नहीं निकले मुंह से जब शब्द खतम हो जाते हैं जब छिन्न–भिन्न होकर सपने आंखों में ही खो जाते हैं जब चित्त अस्थिर होने से एकाकी हम हो जाते हैं जब मन इतना व्याकुल हो कि कोई सुख नहीं सुहाते हैं जब शूल हृदय में चुभते हैं पीड़ा में खुद को पाते हैं जब अपने और पराए सब उपहास ही करने आते हैं तब घोर अंधेरी राहों में वो सूर्य की भांति चमकता है फिर थाम के उंगली मेरी वो निज पथ पर लेकर बढ़ता है करुणा से भरे हृदय से जब आलिंगन मेरा करता है सब दर्द व्यथा खो जाती है व्यक्तित्व निखरने लगता है               © दीपक शर्मा ’सार्थक’

राम हैं त्याग..त्याग हैं राम

राम बसे हैं त्याग में,जग  ढूंढे उनको अधिकारों में जिसने त्याग दिया सिंहासन तत क्षण जैसे तिनका सा  राष्ट्रधर्म पालन में जिसने त्याग किया निज वनिता का त्याग किया सर्वस्व सुखों का चले सदा अंगारों में राम बसे हैं त्याग में, जग ढूंढे उनको अधिकारों में  कर्तव्यों की राह पे चलकर राम ने यश को पाया था अधिकारों की जगह राम ने त्याग का पथ अपनाया था मरा–मरा जप रहे भूलवश लोग घने अंधियारों में राम बसे हैं त्याग में, जग ढूंढे उनको अधिकारों में  राम के नाम पे अधिकारों का जो षड्यंत्र चलाते हैं भूमि के टुकड़े की खातिर आपस में सबको लड़वाते हैं राम हैं तीनों लोक के स्वामी नेति–नेति संसारो में राम बसे हैं त्याग में, जग ढूंढे उनको अधिकारों में            © दीपक शर्मा ’सार्थक’

भूख और रोटी

रूप रोटी का बदल के जबसे पिज्जा हो गया है भूख भी तब्दील होकर के हवस सी बन गई है ! अब गुजारे में नहीं दो जून की रोटी है काफी नित्य बाजारीकरण से लालसाएं बढ़ गई हैं ! नोच करके कफ़न भी ये खा रहे हैं पशु के जैसे गिद्ध इंसानों में शायद होड़ जैसी लग गई है ! निज धरा को चीर करके कर रहे दोहन अनर्गल रक्त पीने की पिपासा कम न लेकिन पड़ रही है ! मर रहे थे भूख से वो आज खाकर मर रहे हैं खा के मैदा, नमक, चीनी  शुगर प्रतिपल बढ़ रही है ! भिज्ञ होकर भी बना अनभिज्ञ बैठा है ज़माना पर कभी नज़रें चुराने से मुसीबत कम हुई है ?           ©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’             मो. नं. – 6394521525

रमेश वाजपेई विरल

रच रहे इतिहास हैं जो नित्य शिक्षा के जगत में आदि शंकर की तरह निःस्वार्थ सेवा में लगे हैं ज्योति शिक्षा की जलाकर हर लिया तम, हर हृदय से राष्ट्र सेवा में सकल सर्वस्व अर्पित कर रहे हैं बिन किसी अवलंब के ही छू लिया है गगन को भी खुद के ही पुरुषार्थ से वट वृक्ष के जैसे खड़े हैं जटिलता की भीड़ में जो हैं ’विरल’, पर उर सरल प्रतिपल प्रबल आवेग से निर्भीक होकर के बढ़े हैं हो परिस्थिति कोई भी पर नित हंसी अधरों पे जिनके दृष्टि सम्यक, सौम्यता की मूर्ति वो सबको लगे हैं  राम जिनके ईश हैं, वो ’रमेश’ होकर राममय हर ऋतु में वो ऋतुराज बनकर राष्ट रौशन कर रहे हैं                               ©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’                        
बदल रही है सोच सभी की युग विज्ञान का आया है महिलाओं ने अपने दम पर सब करके दिखलाया है घर की चार दिवारी से  अब हिम्मत करके निकली है सभी विधाओं में अब स्त्री का परचम लहराया है बाल विवाह, अशिक्षा जैसी जटिल परिस्थिति से लड़कर अपने हक और मर्यादा की फिर आवाज उठाया है निज श्रम के बलबूते पर वो आसमान को छू लेगी महिलाओं का ही ये युग है आज समझ में आया है              ©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’

अरविंद सिंह

सेतु हैं स्कूल के  हर हेतु वो उपलब्ध होकर प्राण वायु की तरह  नि:स्वार्थ सेवा में लगे हैं ! कष्ट कितने भी हो लेकिन नित हँसी अधरों पे लेकर ग़म खुशी जो भी मिले वो साथ में लेकर चले हैं ! कार्य कोई भी करें ये किंतु नैसर्गिक हैं शिक्षक शैक्षणिक तकनीक में सब वो भली भाँति ढले हैं ! प्रेम के पोखर के ऊपर हैं खिले ’अरविंद’ जैसे वैसी ही अनुभूति से ’अरविंद जी’ हमको मिले हैं !               ©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’

लखन सिंह

नित समर्पित भाव से शिक्षा की ज्योति को जलाया शिष्य का तम हर रहे कर्तव्य सब अपने निभाकर ! भागीरथी जैसे प्रयासों  से सकल स्कूल सुधरा फल की चिंता भूलकर निष्काम भावो में समाकर ! लक्ष्य जो दुश्वार लगते थे  सभी को अब तलक सब निज परिश्रम से किया पूरा सभी उनको दिखाकर ! रामपुर की भूमि पर वो छा गए लक्ष्मण के जैसे धन्य अभनापुर हुआ ये ’लखन जी’ का साथ पाकर !                ©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’

विनोद कुमार

हृदय सरल सानिध्य सरल और सरल स्वभाव है जिनका कभी भी व्याकुल न दिखते हर कार्य में दिखे सरलता ! वाद–विवाद से दूर हैं कोसो दिखती नहीं चपलता विषम परिस्थिति में भी जिनमे प्रेम का दीपक जलता ! चंदौली हो या अभनापुर प्रेम ही प्रेम है फलता मितव्ययी, उत्कृष्ट आचरण से व्यक्तिव निखरता सत्य चित्त आनंद में रमकर हास्य ’विनोद’ झलकता विनयशील उन ’विनोद जी’ को पथ पर मिले सफलता                ©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’

शरद यादव

शब्द तक ही रोष का प्राकट्य सीमित है जहां पर किंतु उर में प्रेम सिंचित और हृदय निष्पाप है  धर्म आडंबर के ऊपर  दृष्टि आलोचक के जैसी पूर्वाग्रह से है दूरी खुदपे नित विश्वास है कार्य के वाहक हैं हर कामों को करते चित्त से वो सूचना प्रौद्योगिकी में हर तरह से पास हैं। जो शशि की भांति चमके ’शरद’ ऋतु की पूर्णिमा में वो ’शरद’ उन्नति करें ये सार्थक की आस है                ©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’

सफलता का सूरज

शहर की सबसे पॉश कालोनी का गटर जाम हो जाना एक बड़ी घटना थी। और हो भी क्यों न.. गरीब की बस्ती में, हैजा अगर सौ पचास लोगो को निगल भी जाए, तो किसी का ध्यान नहीं जाता। लेकिन वो ऑफिसर कालोनी थी। जहां का गटर बरसात में जाम हो गया था। इससे पानी सड़क पर आ गया था। और ये एक बड़ी घटना थी। खैर.. उस गटर के अंदर घुस कर, उसमे जमे कचरे को साफ करने के लिए, जल्दी ही किसी मजदूर की जरूरत आन पड़ी थी। और ऐसे में बगल की गंदी बस्ती में रहने वाले नंदू को आनन–फानन में बुलाया गया। नंदू वहां मौके पर पहुंचकर और उस गटर को देख कर वहां खड़े नगर पालिका के कर्मचारी से बोला, "साहब ये तो पूरी तरह चोक हो गया है..इसके अंदर घुस कर सफाई करनी पड़ेगी ?" वो कर्मचारी झुंझलाहट में बोला, " हां, तो इसमें दिक्कत क्या है ?.. इसके अंदर जाओ और साफ करो। वैसे भी ऊपर से बहुत प्रेशर है।" नंदू थोड़ा झिझक कर बोला, " लेकिन साहब इस काम को करने का रुपिया कितना मिलेगा ?" नगर पालिका का कर्मचारी थोड़ा ऐंठ कर बोला, " तुमको बहुत मक्कारी सूझ रही है।500 रुपिया मिलेगा..जितना सबको मिलता है। अगर न करना हो तो बताओ किसी दूस...

निपुण भारत

स्वप्न एक ही हम सबका विद्यालय निपुण बनाना है उद्यमशील बने भारत इस स्वर्निम लक्ष्य को पाना है ! कलरव, किसलय, गिनतारा बिगबुक से सीख रहे बच्चे नया सत्र, नैसर्गिक शिक्षा नई विधा अपनाना है ! बालवटिका विद्यालय में बचपन खेल रहा जिसमे बच्चों का व्यक्तित्व खिल रहा विश्व पटल पर छाना है ! ड्रेस, पुस्तक, जूते–मोजे सब फ्री मिल रहे इसीलिए ताकि गरीब के बच्चों को विद्यालय तक पहुंचना है विषय जटिल लगते थे जो अब खेल–खेल में सीख रहे तकनीक नई, विज्ञान नया ’गतिविधि’ का ही ये जमाना है ! निपुण ब्लॉक, स्कूल निपुण और जिला निपुण जिस दिन होगा देश निपुण होगा और ये ही सबसे बड़ा खजाना है !                  ©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’

विविधता में एकता

भले विविधता हो कितनी, हम एक जैसे दिखते हैं कहीं हिमालय की श्रेणी ने सुंदर धरा को घेरा है कहीं मरुस्थल और मैदानों, का ही भूमि पे डेरा है मालाबार से कोरोमंडल, तक समुद्र का फेरा है अरावली से दक्कन तक की, दिखता नया सवेरा है किंतु हमारा हृदय एक सा, एक ही स्वर में कहते हैं भले विविधता हो कितनी हम एक ही जैसे दिखते हैं ! खान पान और परिधानों की, बेहद छटा निराली है उत्तर से दक्षिण तक भोजन की अपनी ही थाली है सोच विचार अलग हो लेकिन देश की नाव संभाली है अपने–अपने हिस्से की, सबने आहुति डाली है पूरे हिंदुस्तान को अपने साथ में लेकर चलते हैं भले विविधता हो कितनी हम एक ही जैसे दिखते हैं ! हिंदी, गुरुमुख, भोजपुरी, उड़िया बंगाली भाषा है द्रविड़ संस्कृति ने खुद को, हीरे की भांति तराशा है अलग–अलग मजहब हैं उनकी, सिर्फ एक परिभाषा है सत्य समर्पण हो उर में, हर धर्म की हमसे आशा है सब धर्मों का सार समेटे, हम कुटुंब से रहते हैं भले विविधता हो कितनी हम एक ही जैसे दिखते हैं ! जिस प्रकार सब नदियों को, इक दिन समुद्र में जाना है विविध भूमि को सिंचित करके, अंत एक हो जाना है उसी तरह सारे मतभेदों, को मिल दूर भगाना है स्वर...

मेरा वजूद

सलीके से सहेजे हैं, सहे हैं अब तलक जो ग़म फकत खुशियों भरा दामन, मेरे दिल को नहीं भाता ! खयाली सब्जबागों में भटक के गुम न हो जाऊं हकीकत से कभी अपनी नहीं नजरें चुराता ! उजालों में ही चलने का नहीं आदी हुआ हूं अंधेरों के सफर में भी नहीं मैं लड़खड़ाता ! मोहोब्बत में कोई कह दे तो मैं सजदे भी कर लूं महज़ मतलबपरस्ती में किसी के दर नहीं जाता ! दुवाओं का असर होता है गर फरियाद सच्ची हो मगरमच्छों के आसूं देख कर कोई नहीं आता ! कोई हमराह हो या फिर सदा तन्हां रहूं मैं कभी बस दिल्लगी में ही नहीं दिल को लगाता !                      ©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’

फिरंगी वेशभूषा

कोई कितना भी सज धज ले फिरंगी भेष भूषा में, अधूरा है अगर माथे पे इक  बिंदी नहीं आती ! मिडिल क्लासों की चाहत से  वो अब बच कर निकलती है उसे इंग्लिश का रोना है उन्हें हिंदी नहीं आती ! उसे बेअबरू कैसे  सरे महफिल में कर दूं मैं खयालों में भी जिसकी छवि कभी गंदी नहीं आती ! टके के भाव है गेंहू किसानों के यहां जब तक दलालों तक पहुंचने पर कभी मंदी नहीं आती ! अमीरों के हवा महलों के आगे बिछ रहीं सड़कें गरीबों के दुवारे एक पगडंडी नहीं आती जो कन खाके था जोड़ा धन वो कालाधन लगे उनको करप्शन से बने नोटों पे अब बंदी नहीं आती !            ©️  दीपक शर्मा ’सार्थक’

मास्टर साहब (भाग 4)

एक शायर का शेर जो मुझे बहुत पसंद है वो कुछ इस तरह है – " इजहारे मोहब्बत पे अजब हाल है उनका   आंखे तो रजामंद है.. पर लबों पर ना है !" कुछ ऐसा ही हाल हमारे विभाग का भी है। वो शिक्षकों  की हर मांग पर रजामंद तो दिखते हैं, पर अंत में उनके श्री मुख( लबों) से ना ही फूटता है। और इस पर भी किसी नाखरीली बीबी की तरह न निकुर करते–करते उन्होंने अंतर्जनपदीय स्थानांतरण तो किया...पर क्या खाक किया ! शिक्षक खास कर पुरुष शिक्षक मुंह खोले रह गया और मलाई कोई और चाट गया। ये ट्रांसफर अंतर्जनपदीय स्थानान्तरण की जगह अंतर्राष्ट्रीय स्थानांतरण हो गया..इतना टिटम्बा तो अमेरिकन वीज़ा पाने में नहीं लगता जितना इस ट्रांसफर में था। और इसका परिणाम ये हुआ की अपने गृह जनपद जाने की आस लगाए शिक्षकों का हाल किसी दूसरे ग्रह पर घर बसाने जैसा हो गया। खैर अब वो अंतःजनपदीय और म्यूचुअल ट्रांसफर में लगे हैं। लेकिन सच ये है की म्यूचुअल मिलना जीवन साथी मिलने से भी ज्यादा कठिन है। क्योंकि शादी के लिए तो यदि 24 गुण मिल जाए तो हो जाती है पर म्यूचुअल के लिए पूरे 36 गुण मिलना आवश्यक है। इसलिए इसका हाल भी अंतर्जनपदीय ट्रांसफर जैसा...

अब देश में सब कुछ है बंद

मुद्रा तो बस बदनाम है अब देश में सब कुछ है बंद ! जितने विरोध के थे प्रसंग कुचले सहस्त्र शब्दों के कंठ जिव्हा हुईं अगणित अपंग जनमत हुआ राजा से रंक जिसने भी एक आवाज की वो बैन है या फिर है तंग मुद्रा तो बस बदनाम है अब देश में सब कुछ है बंद ! मस्तिष्क में बैठा भुजंग वसुधा हुई जैसे बेरंग सुचिता में अब लग गई जंग सब मस्त हैं खाकर के भंग गरदन पे जब आरी चली कट के गिरी जैसे पतंग मुद्रा तो बस बदनाम है अब देश में सब कुछ है बंद !               ©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’

कठपुतली

चमकने की हवस से ग़र मिले फुर्सत, ज़रा देखो तराशे जा रहे हो या कि कटपुतली हो हाथो की ! जिसे दिलकश समझते हो, वो बातों का सिकंदर है जो बस बाते बनाए, क्या है कीमत उसके बातों की ! यूं आंखें बंद करके कर रहे सजदे, संभल जाओ ज़रा सोचो हकीकत क्या है इन सारे फसादों की ! जरूरी तो नहीं वो बोलता है जो, सभी सच हो तुम्हें लगने नहीं है दी भनक अपने इरादों की ! जो वादे कर रहे तुमसे, सुनहरा कल बनाएंगे कपट मतलबपरस्ती से बनी फ़ेहरिस्त वादों की ! सफेदी की लिए चमकार जो दिन में भटकते हैं घिनौनी है बहुत उनमें छुपी उन्माद, रातों की !                         ©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’

मास्टर साहब (भाग 3)

"रण बीच चौकड़ी भर–भर कर कर चेतक बन गया निराला था !"  "चेतक बन गया निराला था" इसका ये मतलब मत निकाल लीजिएगा की वो महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी ’निराला’ बन गया था। वो तो एक अद्भुद घोड़ा था। यहां इसका जिक्र करने का उद्देश्य बस इतना भर है की अब मास्टर भी रण बीच चौकड़ी भर–भर कर निराला हो गया है।(वो अलग बात है जिस हिसाब से उससे काम लिया जा रहा है, उसकी हालत घोड़े जैसी नहीं बल्कि खच्चर जैसी हो गई है।) लाल फीता साही ने पहले "निरीक्षण" कराया..फिर "परिवेक्षण" कराया..इस पर भी जब उसका मन नहीं भरा..तो अब वो मास्टरों से हाउस होल्ड "सर्वेक्षण" करवा रही है। और मास्टर भी जेठ की दुपहरी में सिर पर बस्ता रखे, "वीर तुम बढ़े चलो.. धीर तुम बढ़े चलो" वाले भाव के साथ घर–घर सर्वेक्षण करते घूम रहा है। यानी चेतक कविता की भाषा में कहें तो – "कौशल दिखलाया निरीक्षण में फंस गया भयानक परवेक्षण में निर्भीक गया सर्वेक्षण में  घर–घर भागा अन्वेषण में " हां.. हां ! मानते हैं यहां इस कविता में मैंने थोड़ा अतिशयोक्ति का प्रयोग कर दिया है। अभी तक शिक्षको का ...

मेरी दृष्टि से बुद्ध

हमेशा की तरह पहले ही स्पष्ट कर दूं कि बुद्ध व्यापक हैं और मेरी दृष्टि संकुचित है। लेकिन फिर भी मैं जितना उनको देख (समझ) पा रहा हूं, उनके बारे में बस उतना ही व्यक्त करूंगा। देखा जाए तो कितना आसान है बुद्ध को समझना..कितना सरल है उनके मार्ग का अनुकरण करना। लेकिन फिर भी हमारी अज्ञानता ने हमें कितना पंगु बना दिया है जो उनकी तरफ हम दो कदम नहीं बढ़ा पाते। कभी–कभी सोचता हूं सिद्धार्थ का बुद्ध हो जाना भी कितना स्वाभाविक था। आप कल्पना करिए, एक राजा के यहां के सुंदर सा बेटा पैदा होता है। पंडितो द्वारा भविष्यवाणी कर दी जाती है की ये बच्चा आगे चलकर राज्य के स्थान पर वैराग्य को चुनेगा।और फिर राजा अपने बच्चे को वैराग्य के मार्ग पर जाने से रोकने के लिए.. क्या–क्या जतन नहीं करता। ऐसा कहा जाता है कि सिद्धार्थ के रहने के लिए तीनों ऋतुओं ( जाड़ा गर्मी बरसात) को ध्यान में रखते हुए तीन महल बनवाए गए थे। जिनमे उनकी विलासता का पूरा ध्यान रखा गया था। बहुत ही सुंदर और जवान सेवक ही उनकी सेवा में लगाए गए थे। वो जब कभी भी नगर भ्रमण के लिए निकलते थे तो नगर वासियों को सख्त निर्देश थे की कोई बूढ़ा बीमार यहां तक कुरूप ...

मास्टर साहब (भाग 2)

किसी जमाने में एक गाना बहुत फेमस हुआ था  "झूठ बोले कौवा काटे..काले कौए से डरियो मैं मैके चली जाऊंगी तुम देखते रहियो" अब इससे इतना तो पता ही चलता है की यदि कोई बात कितनी भी अतर्किक और मूर्खता भरी क्यों न हो, बस अगर सुनने में अच्छी लगती है तो लोग खूब सुनते और गुनगुनाते हैं। वरना सोचने की बात है भला झूठ बोलने पर कहीं कौवा काटना है! कुत्ता काटे होता तब भी समझ में आता! खैर इस गाने से मेरा दूर–दूर तक सरोकार नहीं है।मेरी बात तो शुरू होती है इस गाने के अगली कड़ी (अंतरा) से। जिन्होंने ये गाना पूरा सुना होगा उनको पता होगा की जब लड़की बोलती है – "झूठ बोले कौवा काटे..काले कौए से डरियो मैं मैके चली जाऊंगी तुम देखते रहियो" उसके बाद अगली लाइन में लड़का बोलता है – “तू मैके चली जाएगी..मैं डंडा लेकर आऊंगा!" बस ! यही वो क्षण है जब यदि थोक के भाव में सारे  रूपक, उपमेय, उपमान, उत्प्रेक्षा जैसे अलंकारों के प्रयोग से माध्यम से आप इसे समझेंगे तो आपको पता चलेगा की ये हाल सभी अध्यापक/अध्यापिकाओं का है। अब फिर इस गाने को ध्यान में रखते हुए शिक्षा विभाग की वर्तमान परिस्थिति को समझने की को...

मास्टर साहब

आज सुबह–सुबह ही एक मित्र ने जोक भेजा जो कुछ इस तरह था की "आई लव यू से भी ज्यादा कौन सी चीज है जो सुनने में अच्छी लगती है। और उसका उत्तर है पैसा निकालते समय एटीएम से निकलने वाली ’खर्रर’ वाली आवाज। खैर ये तो एक जोक था पर असल में अब तो एटीएम से ये साउंड सुनने को ज्यादा नसीब ही नहीं होता। एक क्लिक के साउंड के साथ अकाउंट में सेलरी क्रेडिट होने का मैसेज आता है। और फिर भीम पे,गूगल पे, फोन पे जैसे राक्षस अकाउंट की आत्मा को धीरे धीरे करके खा जाते हैं।  लेकिन आजकल तो ऐसे परजीवी भी पैदा हो गए हैं जो सेलरी के अकाउंट में गिरने से पहले हो खा जाते हैं।अभी महीने की शुरुवात में सेलरी अकाउंट में आई। इसी के साथ ही मैंने नोटिस किया की हर बार को अपेक्षा इस बार एक हजार रूपये खाते में कम आए हैं। मुझे टेंशन हुई, इसके कारण फटाफट अपने कई साथी अध्यापकों को कॉल करके उनसे पूछा की क्या उनके साथ भी ऐसा हुआ है? जब सबने बताया कि हां उनकी भी सेलरी में एक हजार रूपिए की सेंध लग गई है तब जाकर कहीं मेरे कलेजे में ठंडक पहुंची। वो कहते हैं न अगर केवल अपने ही घर में चोरी जो जाए तो ज्यादा दुख होता है और अगर पूरे गांव में ...

कहानी एक क्लास की

प्राइमरी के बच्चों की ये आदत होती है, अपनी कॉपी पर काम लेने के लिए उनमें होड़ सी लग जाती है। कॉपी पर शिक्षक द्वारा काम मिल जाने पर उनको उतनी ही प्रसन्नता होती है जितनी किसी जन्मजात ठेकेदार को उसके मनपसंद टेंडर की कॉपी मिलने पर होती है। वो बात अलग है की कॉपी पर मिले उस काम को गिनती के बच्चे करते हैं, बाकी उसे झोले में डालकर सट्टा गुट्टा खेलने में व्यस्त हो जाते हैं। ऐसी ही कॉपियों की सुनामी से उबर कर( उनपर काम देकर) क्लास की चेयर पर पीछे की ओर गर्दन झुकाकर मैं सुस्ताने लगा। ऋतु बदल रही थी।जाड़ा गर्मी से ठिठुर कर भाग रहा था। और धूप पूरे शबाब पर थी। इसलिए प्यास लगने पर मैंने अपनी क्लास 2 के एक बच्चे आलोक से कहा, "आलोक ! जाओ ऑफिस में मेरी पानी की बॉटल रखी है, उसे उठा लाओ!" आलोक दुबला पतला पर पढ़ने में तेज बच्चा था, वो मेरी हर मानता भी था। अतः मेरी ये बात सुनकर जोश में उठकर खड़ा हो गया, और ऑफिस की तरफ जाने लगा। लेकिन अचानक पता नहीं क्या हुआ वो अपनी जगह ठिठक कर खड़ा हो गया। फिर वो मेरी तरफ देखने लगा।  मैंने पूछा, "क्या हुआ.. जाओ बॉटल लेकर आओ!" अचानक उसका चेहरा भाव शून्य ह...

सब्स्टीट्यूट

कभी किसी रोज अचानक कोई मिल जाता है बिना किसी प्रयास के बिना किसी प्लानिंग के अंजाने में ही सही उसका वास्तविक स्वरूप, हृदय के अंतःतल में बस जाता है बिना कोई शोर के बिना किसी हलचल के लेकिन नहीं समझते उसकी अहमियत अहम में खो देते हैं  दिखाकर बचानका सा  और बेहूदा सा अपना एटीट्यूड  उसके बाद उम्र के उस मोड़ से लेकर उम्र के आखरी छोर तक पागलों की तरह, हर किसी में ढूढते फिरते हैं, बस उसी का सब्स्टीट्यूट !               ©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’
तुम लकड़ी मे माचिस दिखाकर  चाहती हो, आग न लगे तुम अंधेरे में दीपक जलाकर चाहती हो, प्रकाश न रहे ! तुम कनखियों से देखकर चाहती हो, मुझे इसका आभास न रहे तुम प्रतिपल पास रहकर चाहती हो, मुझे इसका अहसास न रहे ! तुम ये चाहती हो की मैं तुमको चाहूं लेकिन ये चाहत तुमको न दिखाऊं  तुम सब कुछ चाहते हुए, चाहती हो मैं कोई भी बात आगे न बढ़ाऊं ! कभी–कभी लगता है मुझे सब पता है कि तुम क्या चाहती हो  वहीं दूसरे पल संशय से भर जाता हूं कि भगवान जाने तुम क्या चाहती हो !                    ©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’

मेरे पसंदीदा रचनाएं

अपने पसंद की रचनाओं पर एक विशेष श्रृंखला मैं लिखना तो बहुत दिनों से चाह रहा था, लेकिन कुछ कारणों या कह ली जिए अंदर के आलस्य के कारण नहीं लिख पा रहा था। वैसे भी मेरे अंदर का साहित्यकार, नेटफ्लिक्स और एमेजॉन प्राइम रूपी राहु से ग्रस्त हो गया था। लेकिन ये तो अच्छा है की ग्रहण बहुत दिनो का नहीं होता। इसलिए पुनः अपने कुछ पसंदीदा साहित्यकारों की कुछ विशेष रचनाएं जो मुझे बहुत पसंद हैं वो आपके सम्मुख लेकर लेकर उपस्थित हूं।  अब जब पसंद की बात चल ही निकली है तो हजारों साहित्य प्रेमियों की तरह मुझे भी महाप्राण निराला की रचनाएं बहुत पसंद हैं। निराला का लेखन अद्भुत है। उनका साहित्य, स्थापित्य मान्यताओं से जकड़े अंतर्मन को झझकोर कर रख देता है। वैसे तो उनकी सभी रचनाएं अपने आप में एक विश्वविद्यालय समेटे हैं। उनमें से कोई एक चुनना बहुत कठिन है। लेकिन फिर भी मैं उनकी प्रसिद्ध रचना ’कुकुरमुत्ता’ को चुनता हूं। और उस रचना का वो हिस्सा जिसमे वो कुकुरमुत्ता, गुलाब को संबोधित कर रहा है, मेरे दिल के बहुत करीब है। वो हिस्सा कुछ इस तरह है– “अबे , सुन बे, गुलाब, भूल मत जो पायी खुशबु, रंग-ओ-आब, खून चूसा खाद का...

फूहड़ भीड़

जो कभी मशहूर थे, दिलकश अदाओं के लिए आज फूहड़ भीड़ की महफिल में खोकर रह गए ! मुद्दतों जिस ख्वाब की तामीर में उलझे रहे ख्वाब तब पूरा हुआ जब खाक बनकर रह गए ! दर्द का सैलाब ये सब कुछ डुबो देता मगर रिस के आखों में उतर के अश्क बनकर बह गए ! गुफ्तगू किस काम की जिसमें नहीं शिकवा गिला हर बार की तरह वही, हम सुन लिए, वो कह गए ! झूठ के बाजार में व्यापार सच का चल रहा  सच अगर बोला तो पीछे हाथ धोकर पड़ गए ! दे रहे खुद को दिलासा जुर्म जो खुद पर हुए हालात से मजबूर हैं बस इसलिए हम सह गए ! हम समझते थे जिन्हे मजबूत सी बुनियाद अपनी वक्त की ठोकर लगी वो भरभराकर ढह गए ! इंतहा की हद से आगे हिज्र में बैठे थे जिनकी वो मिले बस मुस्कुराए और आगे बढ़ गए !                               ©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’

वेलेंटाइन डे

अक्सर देखा है किसी गरीब के वेलेंटाइन डे के प्रस्ताव का हाल, कमजोर विपक्ष के द्वारा सदन में रखे गए किसी प्रस्ताव की तरह होता है ! भले ही चीख–चीख के विपक्ष  अपने पक्ष में कितने भी तर्क दे पर बहुमत के नशे में डूबा सदन इस प्रस्ताव को कुचल देता है ! ये वेलेंटाइन डे,  एक प्रस्ताव ही तो है किसी गरीब देश के द्वारा यूनाइटेड नेशंस के सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता प्राप्त करने के लिए दिए गए प्रस्ताव के जैसा ! लेकिन कोई अमीर देश इसपर वीटो करता है और प्रस्ताव खारिज कर देता है ! कुल मिलाकर कमजोर हो या गरीब हों इनके प्रस्ताव या तो  खारिज कर दिए जाते हैं या कुचल दिए जाते हैं और इस तरह ये लीचड़ पूंजीवादी अपना वेलेंटाइन डे मनाते हैं !                ©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’
धन्यभाग्य हैं ये सेवता के तिमिर को नष्ट कर जो क्षेत्र के लिए प्रकाश पुंज के समान हैं चल रही विकास की बयार आज हर तरफ ये सत्य है, प्रत्यक्ष को न चाहिए प्रमाण है दो तरह की बात से हैं दूर, दूर झूठ से  हृदय से और कथन से नित्य एक ही समान हैं। निर्बलों के बल गरीब के सदा से हमनवाज दुष्ट दुर्जनों की बंद कर दिया दुकान है राम भक्त राम में रमे हैं रात दिन सदा हृदय में साक्षात जैसे राम विद्यमान हैं बना रहे ये साथ आम जन की ऐसी भावना सकल समाज भय रहित जो साथ उसके ’ज्ञान’ हैं                        ©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’

मेरा आंगन मेरे बच्चे

अब निरक्षरता हुई गुजरे हुए कल का जमाना घर के आंगन की तरह स्कूल का मौसम सुहाना ! नवनिहालो को मिले निज मात्र भाषा में ही शिक्षा  गीत कविता से सजी स्कूल की हर एक कक्षा खेलते और कूदते हैं बोझ न लगाती परीक्षा अब अशिक्षा और कुपोषण से हुई बच्चो की रक्षा हो निपुण हर एक बच्चा लक्ष्य ये हमने है ठाना घर के आंगन की तरह स्कूल का मौसम सुहाना ! कल्पनाओं को निखरने के लिए अवसर मिला है फूल की तरह सभी बच्चों का अब चेहरा खिला है सबको शिक्षा मिल रही अब न कोई शिकवा गिला है स्वच्छ लगती है जमीं और आसमा जैसे धुला है सज रहा बचपन यही सबसे बड़ा अपना खजाना घर के आंगन की तरह स्कूल का मौसम सुहाना ! अब निरक्षरता हुई गुजरे हुए कल का जमाना घर के आंगन की तरह स्कूल का मौसम सुहाना !                             ©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’                                 प्रा वि अभनापुर                  

बजट

मुबारक हो ! चार्वाकवादी बजट में आपका स्वागत है। अब कुछ लोग ये जरूर पूछ सकते हैं की हर विषय और घटना में दर्शनशास्त्र घुसेड़ने की क्या आवश्यकता है? तो इसका उत्तर ये है की संसार का कोई ऐसा विषय नहीं है जिसके केंद्र में कोई दर्शन न हो। अब इस बजट को ’चार्वाकवादी’ बजट कहने के पीछे की मंशा क्या है, वो स्पष्ट करता हूं। इस बजट के मूल में उपभोग वादी विचारधारा है। और ये सबको पता है की उपभोगवाद का मूल ही चार्वाक दर्शन है। "यावज्जीवेत्सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्" जैसा कि इस चार्वाक वादी कहावत से स्पष्ट है की मनुष्य जब तक जीवित रहे तब तक सुखपूर्वक जिये ।जरूरत हो तो ऋण करके भी घी पिये।  वर्तमान बजट हमको यही सिखाता है की आप खूब कमाइए और खूब उड़ाइए। बचत का नाम भी अपनी जुबान पे मत लाइए। आप जितना उपभोग करेंगे उतना ही बाजार रूपी दानव को ताकत मिलेगी। अगर आप पैसा बचा के रखेंगे, सोना खरीद डालेंगे या बुढ़ापे के लिए पैसा जोड़ेंगे तो इसका बाजार पर नकारात्मक असर पड़ेगा। वित्त मंत्री जी ने अपने नए टैक्स स्लैप ( थप्पड़) में वो तमाचा मारा है की मार खाने वाले को अभी तक यही समझ नहीं आ रहा की ये दुलार...

हिंडनबर्ग एक प्रोपोगेंडा

अडानी ग्रुप को लेकर उपजे इस नए विवाद के बारे में कुछ भी कहने से पहले शेयर मार्केट को लेकर मेरी क्या सोच है ..ये मैं बता दूं। मेरी नजर में शेयर मार्केट अपने आप में एक स्कैम है।ये सट्टेबाजी दलाली और जुवां का बस एक सभ्य समाज में लीगलाइजेसन (वैधिकरण) भर है। यहां पर समाज और सरकार ने मिलकर आपको दलाली और जुवां खेलने की कानूनन छूट दे रखी है। इसका सबसे ताजा उदाहरण जबसे आईपीएल शुरू हुआ है तबसे आपने देखा होगा ! पहले सट्टेबाजी एक कानूनन अपराध था। फिर आईपीएल आने के बाद कुटिल बिजनेसमैन और साहूकारों ने सट्टेबाजी को एक लीगल जामा पहना दिया। अब आप ’ड्रीम एलेवेन’ और ऐसी ही तमाम ऑनलाइन माध्यमों से खुलेआम सट्टेबाजी कर सकते हैं। इसी तरह लॉस एंजेल्स में वैश्यावृत्ति को कानूनन मान्यता है। यानी कहने का मतलब ये है कि साहूकार व्यापारी हर उस चीज को जिसे वो बेच सकते हैं..उसे कानून को अपने मन मुताबिक तोड़–मरोड़ के वैध बना देते हैं और खुलेआम बेचते हैं। अब अडानी ग्रुप को लेकर उपजे ताजे विवाद पर आते हैं। 2014 से जबसे वर्तमान सरकार सत्ता में आई है तबसे ही अडानी का नाम गाहे बगाहे किसी न किसी बहाने चर्चा में आ ही जाता है...

बसंत बाण

गुनगुनी सी धूप है हवा का रुख़ बदल गया नए कपोल खिल रहे भ्रमर का दिल मचल गया ! ठिठुर रही थी ठंड और बसंत बाण चल गया प्रेम का हुआ उदय तुषार सब पिघल गया ! हंसवाहिनी के मुख से स्वर नया निकल गया चहक उठी कली–कली चमन लगे की धुल गया ! वसुंधरा महक उठी बसंती रंग घुल गया  प्रेम को समेटने हृदय का द्वार खुल गया !                ©️ दीपक शर्मा 'सार्थक' *बसंत पंचमी की हार्दिक शुभकामनाएं*

वेतन अवरुद्ध कर दिया जाएगा

DBT पूरा नहीं कराया  तो वेतन अवरुद्ध कर दिया जाएगा। राशन प्रधान भिजवाए, और MDM में अनियमितता पाया ! तो वेतन अवरुद्ध कर दिया जाएगा।  बच्चो का आधार नहीं बनवाया ! तो वेतन अवरुद्ध कर दिया जाएगा । सत्र के अंत तक  किताबें स्कूल नहीं पहुंची और अगर संदर्शिका से नहीं पढ़ाया ! तो वेतन अवरुद्ध कर दिया जाएगा। कमीशनखोर दलाल विद्यालय आया उसकी जी हुजूरी नहीं लगाया ! तो वेतन अवरुद्ध कर दिया जायेगा । नया साहब यानी ARP स्कूल आया आकस्मिक अवकाश पर होने के बाद भी उसने अनुपस्थिति चढ़ाया यदि उसका स्पष्टीकरण नहीं लगाया ! तो वेतन अवरुद्ध कर दिया जाएगा । शासन ने बेसुरी तान वाला गाना गाया कर्मचारियों को उसपर जबरदस्ती नचाया शिक्षको के तथाकथित हितैषी संगठन ने उसके सहयोग में तबला बजाया यदि किसी ने इस अत्याचार पर आवाज उठाया तो उसका वेतन अवरुद्ध कर दिया जाएगा । वेतन अवरुद्ध कर दिया जाएगा वेतन अवरुद्ध कर दिया जाएगा... ........                        ©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’