मास्टर साहब (भाग 3)
"चेतक बन गया निराला था" इसका ये मतलब मत निकाल लीजिएगा की वो महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी ’निराला’ बन गया था। वो तो एक अद्भुद घोड़ा था।
यहां इसका जिक्र करने का उद्देश्य बस इतना भर है की अब मास्टर भी रण बीच चौकड़ी भर–भर कर निराला हो गया है।(वो अलग बात है जिस हिसाब से उससे काम लिया जा रहा है, उसकी हालत घोड़े जैसी नहीं बल्कि खच्चर जैसी हो गई है।)
लाल फीता साही ने पहले "निरीक्षण" कराया..फिर "परिवेक्षण" कराया..इस पर भी जब उसका मन नहीं भरा..तो अब वो मास्टरों से हाउस होल्ड "सर्वेक्षण" करवा रही है। और मास्टर भी जेठ की दुपहरी में सिर पर बस्ता रखे, "वीर तुम बढ़े चलो.. धीर तुम बढ़े चलो" वाले भाव के साथ घर–घर सर्वेक्षण करते घूम रहा है।
यानी चेतक कविता की भाषा में कहें तो –
"कौशल दिखलाया निरीक्षण में
फंस गया भयानक परवेक्षण में
निर्भीक गया सर्वेक्षण में
घर–घर भागा अन्वेषण में "
हां.. हां ! मानते हैं यहां इस कविता में मैंने थोड़ा अतिशयोक्ति का प्रयोग कर दिया है। अभी तक शिक्षको का निरीक्षण, परवेक्षण या उनके द्वारा सर्वेक्षण कराया जा रहा है। अभी ’अन्वेषण’ का काम उनसे नहीं लिया जा रहा है। लेकिन यदि हम “लिफाफा देख के खत का मजमून भांप लेते हैं" वाली स्टाइल में फिलॉसफी झाड़े तो वर्तमान हालातों को देखते हुए वो दिन दूर नहीं जब शायद ये भी आदेश आ जाए कि, " ग्रीष्म कालीन अवकाश के दौरान शिक्षक अपने स्कूल के आस पास की भूमि का अन्वेषण करके तेल के भंडार की खोज करेंगे। ऊक्त आदेश का पालन यदि नियमतः नहीं किया गया तो वेतन अवरुद्ध कर दिया जाएगा।"
विश्वास मानिए यदि ऐसा कोई आदेश आ जाए तो मुझे तो कोई अचरज नहीं लगेगा। मुझे अचरज तो तब होगा जब कुछ प्रगतिशील मास्टर ये करना भी शुरू कर देंगे।
खैर जो अभी घटा नहीं ...उसका क्या शोक करना। फिलहाल तो ग्रीष्म कालीन अवकाश होने वाले हैं। कुछ लौह पुरुषों को छोड़ दें तो हम जैसे साधारण शिक्षक रोज सुबह आखें खुलते ही, अभी छुट्टियों में कितने दिन बचे हैं इसकी गणना करते हैं। हम जैसे लोग कुछ दिन के लिए इन हजारों की संख्या में आयातित आदेशों से कुछ पल सुकून से निकाल के जीना चाहते हैं।लेकिन हमारा विभाग इस विरह को बर्दास्त नहीं कर पा रहा। वो हमारे बिछड़ने के गम में दर्द भरे गीत गा रहा है–
"परदेश जाके परदेसिया..भूल न जाना पिया"
ये मेरे अलावा सब नहीं सुन पा रहे होंगे। मेरी फ्रिक्वेंसी तेज हैं।
मेरे साथ तो ये भी होता है, जब मैं उपस्थिति रजिस्टर पर साइन करके निकलने वाला होता हूं, तो रजिस्टर उछल के मेरे हाथों में लिपट जाता है, और बोलता है–
"अभी न जाओ छोड़ कर के दिल अभी भरा नहीं!"
या कभी कभी जिस कुर्सी पर बैठता हूं वो उठने नहीं देती और बोलती है–
"यूं ही पहलू में बैठे रहो
आज जाने की जिद न करो"
खैर मेरे साथ क्या हो रहा है, वो मेरी व्यक्तिगत समस्या है। लेकिन विश्वास मानिए मास्टरों को मिलने वाला ग्रीष्म कालीन अवकाश अब सामूहिक समस्या बन चुकी हैं। न जाने कितने अन्य विभाग मास्टरों को मिलने वाले इन अवकाशों को देख कर दहाड़े मार मार कर रोने लगते हैं। हाय–हाय चिल्लाने लगते हैं।
ये "हाय" अंग्रेजी वाला हाय नहीं है। बल्कि ये नजर लगाने वाला हाय है। वैसे तो मुझे इस नजर लगने वाली बात पर भरोसा नहीं...लेकिन जिस हिसाब से इन अवकाशों के दिनों में सेंध लगाई जा रही है, अब विश्वास होने लगा है।
मास्टरों एक हाय बनवा लो...और गले में पहनना शुरू कर दो! तुम बहुत सी नज़रों में खटक रहे हो।
क्रमशः !
©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’
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