मेरी दृष्टि से बुद्ध
देखा जाए तो कितना आसान है बुद्ध को समझना..कितना सरल है उनके मार्ग का अनुकरण करना। लेकिन फिर भी हमारी अज्ञानता ने हमें कितना पंगु बना दिया है जो उनकी तरफ हम दो कदम नहीं बढ़ा पाते।
कभी–कभी सोचता हूं सिद्धार्थ का बुद्ध हो जाना भी कितना स्वाभाविक था।
आप कल्पना करिए, एक राजा के यहां के सुंदर सा बेटा पैदा होता है। पंडितो द्वारा भविष्यवाणी कर दी जाती है की ये बच्चा आगे चलकर राज्य के स्थान पर वैराग्य को चुनेगा।और फिर राजा अपने बच्चे को वैराग्य के मार्ग पर जाने से रोकने के लिए.. क्या–क्या जतन नहीं करता।
ऐसा कहा जाता है कि सिद्धार्थ के रहने के लिए तीनों ऋतुओं ( जाड़ा गर्मी बरसात) को ध्यान में रखते हुए तीन महल बनवाए गए थे। जिनमे उनकी विलासता का पूरा ध्यान रखा गया था। बहुत ही सुंदर और जवान सेवक ही उनकी सेवा में लगाए गए थे। वो जब कभी भी नगर भ्रमण के लिए निकलते थे तो नगर वासियों को सख्त निर्देश थे की कोई बूढ़ा बीमार यहां तक कुरूप व्यक्ति भी सामने नहीं आएगा। कहीं ऐसा न हो की उनको देख के सिद्धार्थ के मन में दुख या वैराग्य न पैदा हो जाए!
कहा तो यहां तक जाता है की सुबह जब वो बगीचे में टहलने आते थे..तो उससे पहले पेड़ों के सारे पीले पत्तों को तोड़ कर बगीचा साफ कर दिया जाता था।मतलब की हद ही कर दिया था सिद्धार्थ के पिता ने।
अब फिर आगे की कल्पना करिए। एक ऐसे राजकुमार जिसने अपने अब तक के जीवन में कोई भी दुख या पीड़ा या कुछ भी बुरा न देखा हो..उसका एक रोज अचानक से संसार के सभी दुखों से सामना हो जाए !
ऐसी स्थिति में उसका हाल क्या होगा। सिद्धार्थ अपने सारथी के साथ बिना बताए अकेले घूमने निकल गए..उन्होंने दुख पीड़ा भोगते बीमारों को देखा.. मर्णाश्न बूढ़ों को देखा यहां तक शमशान में शव भी देखा।
अब सोचने वाली बात ये है की एक रात पहले तक जिसने संसार का कोई दुख न जाना हो और अगले दिन उसे संसार का असली चेहरा देखने को मिल जाए तो वो क्या करेगा!
ये तो कहो की वो असाधारण व्यक्ति थे जो इस सच्चाई को झेल गए, कोई साधारण व्यक्ति होता तो या तो वो पागल हो जाता या मर जाता।
इससे एक और बात पता चलती है जिस चीज से हम ज्यादा भागना चाहते हैं तो हमारे भागने के कारण ही वो चीज हमारे पीछे पड़ जाती है। अगर सिद्धार्थ के पिता उनका पालन पोषण किसी साधारण बालक की ही तरह करते , वो बचपन से ही सारी सांसारिक चीजों को देखते तो शायद वो वैराग्य की तरफ न जाते।( खैर ये तो मेरी कोरी कल्पना भर है।)
सच कहूं तो उनके जीवन का वो एक दिन ही उनके बाकी के जीवन का आधार बन गया। बुद्ध के समकालीन जितने भी विद्वान या चिंतक थे। वो तत्वशास्त्र की समस्याओं को सुलझाने में लगे थे। उनके चिंतन का क्षेत्र आत्मा, परमात्मा और जगत जैसे विषयों तक सीमित था। मनुष्य के लौकिक जीवन में आने वाली बाधाओं, उसके दुःख और पीड़ा से इन दर्शानिको का दूर दूर तक कोई सरोकार नहीं था।
वो बुद्ध ही थे जो इस दुःख और पीड़ा को ही संसार की सबसे बड़ी समस्या मान कर इसकी पहचान करके, इससे मुक्ति दिलाने का प्रयास किया।
मैं हमेशा से कहता हूं एक बुद्ध ही थे जिन्होने दर्शन के नाम पर कोरी गप्पेबाजी नहीं की। आत्मा, जीव, जगत ईश्वर जैसे विषयों पर अपनी तार्किक भूख मिटाने के बजाय उम्होंने लौकिक जगत की समस्याओं पर ही अपना ध्यान केंद्रित किया।
ऐसा भी नहीं था कि उनसे इससे ( आत्मा,ईश्वर,जीव जगत) जुड़े प्रश्न नहीं पूछे जाते थे। जब लोग उनसे ऐसे प्रश्न पूछते थे तो वो मौन हो जाया करते थे।
आज भी उनके इस मौन का विद्वान अनेक अर्थ निकालते हैं।
कुछ कहते हैं उनको इन विषयों का ज्ञान नहीं था, मुझे ये बात गलत लगती है क्यूंकि जिसको ज्ञान नहीं होता वो बहुत ज्यादा बोलता है। मौन अज्ञानता वाली चुप्पी नहीं होती। मौन तो एक साधना है अनेक अज्ञानता भरे शब्दों को न बोलना, अकारण कुतर्क न करना।
जिन्होंने पढ़ा होगा उनको पता होगा कि बुद्ध ने इस अज्ञानता को कितने अच्छे उदाहरण से समझाया है।
बुद्ध कहते है, "यदि कोई तीर से घायल व्यक्ति आपके पास आएगा तो आप क्या करेंगे ? उसका शीघ्र से शीघ्र इलाज करेंगे या उससे बिना मतलब वाले प्रश्न करेंगे की तीर किसने मारा...कितनी दूरी से मारा...तीर मारने वाला देखने में कैसा था।"
जो व्यक्ति लौकिक जगत की पीड़ा से ग्रस्त है, दुखों के सागर में डूबा हुआ है उसके आगे अलौकिक जीवन जगत की चर्चा, निहायत ही मूर्खता भरी हैं। बुद्ध इस नंगे यथार्थ को समझ गए थे। शायद इसीलिए उन्होंने अपने सारे उपदेश पाली प्राकृत भाषा में दिए। जो आम जनमानस की भाषा थी। ये भी बुद्ध की लोकप्रियता का कारण बना क्योंकि उन्होंने लोक भाषा में लौकिक समस्याओं का समाधान बताया बजाए अलौकिक भाषा (संस्कृत) में पारलौकिक ज्ञान झाड़ने के।
संसार में दुःख है
दुःख का कारण है
दुख का समाधान भी है
दुख के समाधान का मार्ग भी है
उनके ये चार आर्य सत्य ही उनकी शिक्षा है। वो बड़बोले नहीं हैं। न ही वो अनर्गल कुतर्की हैं। उन्होंने दिल से उस पीड़ा को महसूस किया था। इसलिए इसके समाधान का भरसक प्रयास किया। उनमें इतनी करुणा हैं की वो सबके दुःख को समेट लेना चाहते हैं। वो अलग बात है की बाद में उनके अनुयाइयों ने बौद्ध दर्शन के नाम पर थोक के भाव में उसमे अलौकिक ज्ञान ठूस दिया।
उनके अनुयाई भी ये बात नहीं जान पाए की बुद्ध तो सरल हैं। उनका मार्ग सरलता है। उन्होंने सरल भाषा में (पाली) आम जनमानस के समझ में आ जाने वाला सरल ज्ञान दिया। उन्होंने जीवन जीने का मध्यम मार्ग यानी सरल मार्ग बताया। वो जटिलता से कोसो दूर हैं।
उनकी खूबसूरती ही यही है की वो इतने सरल हैं कि सबकी समझ में आ जाते हैं।
लेकिन क्या किया जाए हम उस समाज में रहते हैं जहां जटिल, कठिन या क्लिष्ट होना ही विद्वता का प्रतीक है।मैं व्यक्तिगत तौर पर न जाने ऐसे कितने लेखकों और विचारकों को जनता हूं जो लेखन के नाम पर अपने क्लिक शबदोष का दिखावा करते हैं। उनके लेख व्याकरण और क्लिष्ट शब्दो के मामले में तो बहुत अच्छे है। लेकिन उनमें विचार रूपी आत्मा नहीं होती।
उनको नहीं पता की सरल होना ही सबसे बड़ी उपलब्धि है। जो सरल है वही सुंदर है और वही बुद्ध है।।
आज भी आप अगर किसी बात से बहुत परेशान है या आपका चित्त अस्थिर है तो एकांत में जाकर आंखें बंद करके बैठ जाइए। फिर सोचिए आपको क्या पीड़ा है।
फिर उसी मुद्रा में बैठ कर सोचिए की आखिर आपके उस दुख का कारण क्या है। क्यों आपका चित्त अस्थिर है। जब वो नजर आ जाए तो सोचिए उसका समाधान क्या है। आपको किसी मनोवैज्ञानिक सलाहकार या धार्मिक स्थान पर जाने की जरूरत नहीं। आपको सारे उत्तर आपके अंदर ही मिल जायेगे। बुद्ध हमको यही सिखाते हैं।
आज इतना ही.....बुद्ध पर फिर कभी !
©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’
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