मेरे पसंदीदा रचनाएं
अब जब पसंद की बात चल ही निकली है तो हजारों साहित्य प्रेमियों की तरह मुझे भी महाप्राण निराला की रचनाएं बहुत पसंद हैं। निराला का लेखन अद्भुत है। उनका साहित्य, स्थापित्य मान्यताओं से जकड़े अंतर्मन को झझकोर कर रख देता है। वैसे तो उनकी सभी रचनाएं अपने आप में एक विश्वविद्यालय समेटे हैं। उनमें से कोई एक चुनना बहुत कठिन है। लेकिन फिर भी मैं उनकी प्रसिद्ध रचना ’कुकुरमुत्ता’ को चुनता हूं। और उस रचना का वो हिस्सा जिसमे वो कुकुरमुत्ता, गुलाब को संबोधित कर रहा है, मेरे दिल के बहुत करीब है। वो हिस्सा कुछ इस तरह है–
“अबे , सुन बे, गुलाब,
भूल मत जो पायी खुशबु, रंग-ओ-आब,
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट,
डाल पर इतरा रहा है केपीटलिस्ट!“
अब सोचने वाली बात ये है की आखिर ये मुझे इतना पसंद क्यों है! इसका कारण मुझे ये लगता है की साधारणतया गुलाब को लेकर आम जनमानस से लेकर साहित्यकारों तक सभी उसे सौदर्य और खूबसूरती का पर्याय समझते आए हैं। गुलाब जब श्रृंगार रस के कवि के सानिध्य में पहुंचता है तो वो उसके प्रियसी के होठों और गालों की उपमा बन जाता है। यही गुलाब भक्ति रस के किसी कवि का सानिध्य पाता है तो वो उसके आराध्य के मुख मंडल की आभा बन जाता है। हजारों प्रसिद्ध कवि से लेकर सड़कछाप आशिक तक, इसी गुलाब की उपमाएं और रूपक दे दे कर, अभी तक नहीं थके हैं।
लेकिन इसे गुलाब की बदकिस्मती ही समझिए जो ये महाप्राण निराला के हत्थे चढ़ गया।
इस रचना को फिर से पढ़िए !
अबे सुन बे, गुलाब...
इसको सुनकर ऐसा लगता है जैसे अपनी उपमाओं और रूपक जैसे चंगू मंगू को लेकर बड़े रौब के साथ गुलाब चौराहे से जा रहा है कि अचानक बीच चौराहे पर निराला उसका कॉलर पकड़ कर और घसीट के बोलते हैं कि,
“अबे , सुन बे, गुलाब,
भूल मत जो पायी खुशबु, रंग-ओ-आब,
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट,
डाल पर इतरा रहा है केपीटलिस्ट!“
यानी तेरी जो ये खुशबू और रूवाब है वो तूने खाद रूपी जो शोषित पीड़ित गरीब सर्वहारा समाज है, उसको चूस कर पाया है। और इसीलिए तू एक पूंजीवादी(केपीटलिस्ट) की तरह डाली पर मुस्कुरा रहा है।
यहां निराला ने सारी स्थापित मान्यताएं और उनसे जुड़ी उपमाएं और रूपक को तहस नहस कर दिया। कहां गुलाब खूबसूरती और सौदार्य का मानक था और कहां अब वो एक शोषण करने वाला केपीटलिस्ट बन गया। और उसकी उपमा भी ऐसी दी की लोग मानने पर मजबूर हो जाएं। यही उनको निराला बनाता है। मजा तो तब आता है जब वो इस कविता में आगे कहते हैं की
"रोज पड़ता रहा तुझपर पानी
तू ठहरा खानदानी हरामी "
खैर पाठको से अनुरोध है की वो पूरी "कुकुरमुत्ता“ रचना को पढ़े।
अब आते हैं अपनी पसंद की दूसरी रचना पर। इस रचना का शीर्षक है ’कानाफूसी’। जिसे प्रसिद्ध आलोचक राम विलास शर्मा ने लिखा है। पूरी कानाफूसी कविता ही बहुत रोचक और मजेदार है लेकिन उसका आखरी भाग मुझे बहुत पसंद है।इस रचना को मैने कभी पहले पढ़ा नहीं था। एक सफर के दौरान मुझे ये सुनने को मिली। और विश्वास मानिए, हजारों बार इसे दोहराने के बाद भी जब कभी इसे दोहराता हूं, मेरे चहरे पर हंसी आ जाती है। इस रचना से जुड़ी एक और बात है। इस रचना का वो हिस्सा जिसे मैंने सफर के दौरान सुना था,वो जब मैंने मूल रचना को खोज के पढ़ा तो उन दोनो में अंतर था। लेकिन अपने दिल को लाख समझाने के बाद भी मूल रचना के स्थान पर जिस तरह मैंने इसे सुना था, उसी तरह मुझे ये अच्छी लगती है। अतः उसी तरह मैं आप लोगो को सुना रहा हूं।
“रजनी की अनव्याही बेटी उषा कुमारी,
इक्के वाले सूरज के संग
हवा हो गई, हिरन हो गई
सुना आपने !"
अपने शीर्षक (कानाफूसी) की ही तरह इस कविता में कानाफूसी ही की गई है लेकिन इसका चित्रण कितना मजेदार है, समझते हैं।इस कविता में कवि ने ’प्रभात’ का वर्णन किया है। और प्रभात का वर्णन हजारों कवियों और लेखकों ने अपनी रचनाओं में किया है। प्रकृतिवादी कवि की तो यही रोजी रोटी है। वो पानी पी–पी के प्रभात के निराले सौंदर्य का वर्णन करते नहीं थकते। यहां तक दूसरों का क्या कहें मैने भी अपने जीवन में दो या तीन बार ही उगता हुआ सूरज देखा होगा, तब भी एक कविता लिख डाली थी।
पर राम विलास शर्मा की ये रचना कुछ अलग ही है। इसमें जैसे प्रभात वर्णन की मौज ली गई है। या यूं कह ली जिए की उसकी खिल्ली उड़ाई गई है। मेरे नॉलेज में ऐसा दूसरा किसी ने नहीं लिखा।
कानाफूसी का मतलब ही बवाल परपंच करना होता है। अब इस रचना को फिर से पढ़िए
"रजनी की अनव्याही बेटी उषा कुमारी“
उषा मतलब भोर होता है यानी यहां कवि ने भोर को रात की बेटी की तरह जो की अनब्याही है, की तरह प्रस्तुत किया है।
और वही दूसरी ओर कवि ने सूरज को जो की अपने सात घोड़े वाले रथ पर चलता है, को एक लफंगे इक्के वाले की तरह प्रस्तुत किया है। और अब दृश्य ये है की रजनी ( रात) की जो कुंवारी लड़की उषा (भोर) थी वो एक लफंगे इक्के वाले सूरज के संग भाग गई! और भागी भी कैसे...“हवा हो गई..हिरन हो गई !“
इस कविता को पढ़कर ऐसा लगता है की गांव की दो घोर परपंची औरतें आपस में बातें कर रही हैं–
ए बहिनी कुछ सुना !
पड़ोस की जो रजनी देवी रहती हैं उनकी जो कुंवारी बेटी थी जिसका नाम उषा था....वो एक रिक्शा वाले के साथ हिरन हो गई ! भाग गई ! हवा हो गई !
तो ये था राम विलास शर्मा का प्रभात वर्णन, जो अपने आप में अनूठा है। मूल रचना में उषा कुमारी सूटकेस लेकर भागती हैं इसमें बहुत से जवाहरात होते हैं। वो फिर कभी सुनाएंगे।
अगर आपके मन को भी कोई रचना कभी छू कर निकली है, जो आपकी चेतना में आज भी है तो लिंक में दिए कमेंट बॉक्स में जरूर बताएं।
फिलहाल आज के लिए इतना ही।
क्रमशः ...
©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’
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