कहानी एक क्लास की

प्राइमरी के बच्चों की ये आदत होती है, अपनी कॉपी पर काम लेने के लिए उनमें होड़ सी लग जाती है। कॉपी पर शिक्षक द्वारा काम मिल जाने पर उनको उतनी ही प्रसन्नता होती है जितनी किसी जन्मजात ठेकेदार को उसके मनपसंद टेंडर की कॉपी मिलने पर होती है। वो बात अलग है की कॉपी पर मिले उस काम को गिनती के बच्चे करते हैं, बाकी उसे झोले में डालकर सट्टा गुट्टा खेलने में व्यस्त हो जाते हैं।
ऐसी ही कॉपियों की सुनामी से उबर कर( उनपर काम देकर) क्लास की चेयर पर पीछे की ओर गर्दन झुकाकर मैं सुस्ताने लगा। ऋतु बदल रही थी।जाड़ा गर्मी से ठिठुर कर भाग रहा था। और धूप पूरे शबाब पर थी। इसलिए प्यास लगने पर मैंने अपनी क्लास 2 के एक बच्चे आलोक से कहा, "आलोक ! जाओ ऑफिस में मेरी पानी की बॉटल रखी है, उसे उठा लाओ!"
आलोक दुबला पतला पर पढ़ने में तेज बच्चा था, वो मेरी हर मानता भी था। अतः मेरी ये बात सुनकर जोश में उठकर खड़ा हो गया, और ऑफिस की तरफ जाने लगा। लेकिन अचानक पता नहीं क्या हुआ वो अपनी जगह ठिठक कर खड़ा हो गया। फिर वो मेरी तरफ देखने लगा। 
मैंने पूछा, "क्या हुआ.. जाओ बॉटल लेकर आओ!"
अचानक उसका चेहरा भाव शून्य हो गया..या शायद उसके चहरे पर इतने भाव आए की मैं अपनी शून्यता के कारण उनको पढ़ नहीं पाया। 
फिर वो धीरे से बोला , "सर ! हम हरिजन हैं !"
पहले तो पता नहीं क्यों..मैं उसकी बात समझ नहीं पाया। फिर जैसे ही उसकी बात मेरे पल्ले पड़ी, मुझे ऐसा लगा जैसे किसी ने मेरी सोई चेतना पर हथौड़ा मारा हो। मैं जो गरदन पीछे किए टेक लगाए बैठा था..अचानक तन कर सीधा बैठ गया।
मैने दिखा अभी भी उस बच्चे के अबोध चहरे पर प्रश्न वाचक और दुविधा भरी लकीरें उसके माथे को हल्दीघाटी में बदले दे रही थीं। एक छड़ को ऐसा लगा जैसे वो कोई छः सात साल का अबोध या मासूम बच्चा नहीं..पूरे सामाजिक ताने बाने को समझने वाला कोई बूढ़ा हो।
उसके बाद की कोई बात माइने नहीं रखती। मैने न जाने प्यार से उससे कितनी बातें की।उससे पानी मंगाकर पिया..इन सबका कोई मतलब नहीं। वहां के वातावरण या शायद मेरे हृदय में एक ठहराव सा हो गया। और दूर दूर तक बस विकृति ..पीड़ा..उलझन यही नजर आ रही थी।

                              ©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’

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