चाहती हो, आग न लगे
तुम अंधेरे में दीपक जलाकर
चाहती हो, प्रकाश न रहे !
तुम कनखियों से देखकर
चाहती हो, मुझे इसका आभास न रहे
तुम प्रतिपल पास रहकर
चाहती हो, मुझे इसका अहसास न रहे !
तुम ये चाहती हो की मैं तुमको चाहूं
लेकिन ये चाहत तुमको न दिखाऊं
तुम सब कुछ चाहते हुए, चाहती हो
मैं कोई भी बात आगे न बढ़ाऊं !
कभी–कभी लगता है मुझे सब पता है
कि तुम क्या चाहती हो
वहीं दूसरे पल संशय से भर जाता हूं
कि भगवान जाने तुम क्या चाहती हो !
©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’
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