फूहड़ भीड़

जो कभी मशहूर थे, दिलकश अदाओं के लिए
आज फूहड़ भीड़ की महफिल में खोकर रह गए !

मुद्दतों जिस ख्वाब की तामीर में उलझे रहे
ख्वाब तब पूरा हुआ जब खाक बनकर रह गए !

दर्द का सैलाब ये सब कुछ डुबो देता मगर
रिस के आखों में उतर के अश्क बनकर बह गए !

गुफ्तगू किस काम की जिसमें नहीं शिकवा गिला
हर बार की तरह वही, हम सुन लिए, वो कह गए !

झूठ के बाजार में व्यापार सच का चल रहा 
सच अगर बोला तो पीछे हाथ धोकर पड़ गए !

दे रहे खुद को दिलासा जुर्म जो खुद पर हुए
हालात से मजबूर हैं बस इसलिए हम सह गए !

हम समझते थे जिन्हे मजबूत सी बुनियाद अपनी
वक्त की ठोकर लगी वो भरभराकर ढह गए !

इंतहा की हद से आगे हिज्र में बैठे थे जिनकी
वो मिले बस मुस्कुराए और आगे बढ़ गए !

                              ©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’

















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