मास्टर साहब (भाग 2)

किसी जमाने में एक गाना बहुत फेमस हुआ था 
"झूठ बोले कौवा काटे..काले कौए से डरियो
मैं मैके चली जाऊंगी तुम देखते रहियो"
अब इससे इतना तो पता ही चलता है की यदि कोई बात कितनी भी अतर्किक और मूर्खता भरी क्यों न हो, बस अगर सुनने में अच्छी लगती है तो लोग खूब सुनते और गुनगुनाते हैं। वरना सोचने की बात है भला झूठ बोलने पर कहीं कौवा काटना है! कुत्ता काटे होता तब भी समझ में आता!
खैर इस गाने से मेरा दूर–दूर तक सरोकार नहीं है।मेरी बात तो शुरू होती है इस गाने के अगली कड़ी (अंतरा) से। जिन्होंने ये गाना पूरा सुना होगा उनको पता होगा की जब लड़की बोलती है –
"झूठ बोले कौवा काटे..काले कौए से डरियो
मैं मैके चली जाऊंगी तुम देखते रहियो"
उसके बाद अगली लाइन में लड़का बोलता है –
“तू मैके चली जाएगी..मैं डंडा लेकर आऊंगा!"
बस ! यही वो क्षण है जब यदि थोक के भाव में सारे  रूपक, उपमेय, उपमान, उत्प्रेक्षा जैसे अलंकारों के प्रयोग से माध्यम से आप इसे समझेंगे तो आपको पता चलेगा की ये हाल सभी अध्यापक/अध्यापिकाओं का है।
अब फिर इस गाने को ध्यान में रखते हुए शिक्षा विभाग की वर्तमान परिस्थिति को समझने की कोशिश करते हैं–
“मैं मैके चली जाऊंगी तुम देखते रहियो"
यहां मास्टर कहना चाहता है। मैं स्कूल से चला जाऊंगा और तुम देखते रह जाओगे।
फिर अगली लाइन में विभाग बोलता है–
“तू मैके चली जायेगी..मैं डंडा लेकर आऊंगा"
ये डंडा और कोई नहीं..बल्कि चेकिंग वाला डंडा है। यानी वो कहना चाहते है। जब तुम स्कूल से चले जाओगे तो मैं चेकिंग करने आऊंगा।
इसी तरह इस गाने के पूरे अंतरे को समझते हैं–
तू मैके चली जायेगी..मैं डंडा लेकर आऊंगा
लड़की बोलती है–
"मैं कुएं में गिर जाऊंगी"
लड़का बोलता है–
"मैं रस्सी से खिचवाऊंगा"
फिर लड़की बोलती है–
"मैं पेड़ पे चढ़ जाऊंगी"
फिर लड़का जवाब देता है–
"मैं आरी से कटावाऊंगा“
अब इस पूरे गाने को मास्टर के नजरिए से देखते हैं–

तुम स्कूल नहीं आओगे तो मैं चेकिंग करने आऊंगा"
मैं सेटिंग से बच जाऊंगा
मैं आडियो/वीडियो कॉल करूंगा
मैं फोन नहीं उठाऊंगा
मैं बायोमेट्रिक लगवाऊंगा
मैं नकली अंगूठा बनवाऊंगा
कुल मिलाकर परिस्थितियां ’टॉम एंड जेरी’ जैसी हो गई हैं। एक भाग रहा है एक दौड़ा रहा है। कितनी अजीब बात है न...कभी–कभी बहुत दयनीय स्थिति भी कितनी हास्यास्पद हो जाती है।
इसी के साथ अब समय हो गया है थोड़ा फिलोसॉफी झड़ने का( वैसे भी यदि बात बात में फिलोसॉफी न झाड़े तो वो मास्टर कैसा !) इसीलिए सबसे पहले डंडे की फिलोसॉफी समझते हैं। उपरोक्त गाने के माध्यम से ये समझ में आ ही गया होगा की एक दौड़ा रहा है तो दूसरा भाग रहा है। एक मार रहा है तो दूसरा मार खा रहा है।और ऐसा हो क्यों कहा है? सही पूछो तो इसका कारण "डंडा" है।डंडे का स्वभाव ही यही है की उसे बस मारना आता है..दौड़ना आता है। और सोने पर सुहागा तो तब होता है जब ये "डंडा" किसी मूर्ख व्यक्ति के हाथ में पहुंच जाए। क्योंकि मूर्ख व्यक्ति को ये नहीं पता होता की दंड देने का सही तरीका क्या है। वो जो संसार की सारी समस्याओं का समाधान सिर्फ डंडे में ही ढूढते हैं।वो बहुत खतरनाक होते हैं।
अब फिलोसॉफी झाड़ने के दूसरे भाग में डंडा खाने वाले या कह लें उसके डर से भागने वाले की बात कर लेते हैं।
कुछ लोग बस भागते रहने में ही अपनी भलाई समझते हैं। मार पड़े..बस भाग लो, डंडा दिखे..बस भाग लो। ये चरित्र भी बहुत खतरनाक है। वर्ना सच तो ये है की एक बार मार खाने वाला अगर पलट के खड़ा हो जाए और आखों में आखें डाल के बोले की," अब मार के दिखाओ!" तो मारने वाला भी सकते में आ जायेगा।और मारने से पहले कई बार सोचेगा।
सच कहूं तो ये डंडा मारने वाले और डंडा खाने वाले दोनो की लोग यथार्थ परिस्थिति से कोसो दूर हैं। और परिस्थिति का सामना करने से डरते हैं।
ऊपर बैठे लोग( भगवान की बात नहीं करा..ये अपने को समझ रहे हो तो अलग बात है) जो बस चेकिंग–चेकिंग के नाम पर स्वर्णिम लक्ष्य को पाना चाहते हैं। जो बल को विवेक से ऊपर समझने की भूल कर रहे हैं।
यदि विवेक के साथ समाधान ढूढा जाए तो पता चलेगा कि असली समस्या क्या है।अति पिछड़े ग्रामीण क्षेत्रों के एक अध्यापक को विद्यालय संचालन में कितनी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है, यदि इसका आधा भार भी शहर के एयर कंडीशन ऑफिस की अपनी व्हील चेयर पर बैठ कर मूल्यानक करने वाले के ऊपर पड़े तो उसे अपनी गलती का अहसास होगा।
अभी कुछ ही दिन की बात है एक मास्टर साहब अपना यही दुख बयां करते हुए मुझसे बोले, "अरे भैया हम मास्टरों का हाल "गरीब की जोरू..सारे गांव की भौजाई"  की कहावत जैसा हो गया है।
हमने पूछा, "ऐसा क्यों कह रहे हैं मास्टर साहब ?"
तो वो गहरी सांस( जिसे उन्होंने अपने मजबूत फेफड़ों में कैद कर रखा था) छोड़ते हुए बोले, "और क्या कहें भाई निरीक्षण, परवेक्षण, अन्वेषण, विश्लेषण की क्षण( डंडा) लेकर जो भी आता है..हमारा मजा लेकर चला जाता है। चपरासी से लेकर डीएम तक को हमारी निगरानी का अधिकार है। बेरोजगार डीएलएड वाले ट्रेनी, मास्टर के मास्टर बनकर आते हैं और हमारा मजा लेकर चले जाते हैं।सड़क छाप पत्रकारों से लेकर गंजेड़ी भंगेड़ी ग्रामीण भी दिन रात हमारी निगरानी में लगे हैं।"
मास्टर साहब अपना दुख बताते बताते भावुक होकर जब चुप हो गए तब मैने जितना हो सकता था उतना पुचकारते हुए कहा , " अरे तब तो मास्टरों के हालात बहुत बुरे हैं।"
तो तुरंत ताव में आकर बोले, " अरे भाई, हालात के बारे में तो कुछ पूछो ही मत! हालात तो ये हैं की जब दिन भर इतनी निगरानी के बाद रात को अपने बेडरूम में जाता हूं तो उस समय भी यही डर सता रहा होता है की कहीं यहां भी तो निगरानी नहीं हो रही। अरे भैया अब वो दिन दूर नहीं जब रॉ के जासूस भी मास्टर की निगरानी में लगा दिए जायेंगे।और सबसे मजेदार बात तो ये है की ये निगरानी भी "मियां की जूती मियां की चांद" वाली स्टाइल में हो रही है। मास्टर के मोबाइल से ही मास्टर की चेकिंग हो रही है।"
मास्टर साहब अपना हाले दिल हमसे रोकर चले गए। उनके जाने के बाद मुझे अहसास हुआ कि वो बिचारे सही कह रहे थे।
सच कहूं तो मुझे भी मास्टर का हाल डेली सोप सीरियल वाली बहू के जैसा लगने लगा है। जैसे इन सीरियल में मुख्य किरदार निभाने वाली बहू पर उसकी सास, ससुर पति और साथ उसी घर में परमानेंट रहने वाली बुआ द्वारा लगातार अत्याचार किया जाता है लेकिन उस बहू के अंदर श्री राम वाला त्याग होता है..बुद्ध की तरह उसका अंतर्मन स्थिर होता है..सीता की तरह उसका हृदय कोमल होता है। और वो बिचारी हर दूसरे की गलती हो अपनी गलती मान कर सुबक–सुबक कर दुख सहती रहती है,और किसी से कुछ नहीं कहती। ऐसे ही मास्टर है।
अभिभावक बच्चे को स्कूल न भेजे...मास्टर की गलती!
ड्रेस का पैसा परिजन डकार जाएं बच्चा ड्रेस पहन के न आए...मास्टर की गलती!
एमडीएम प्रधान खा जाए..खाना न बने मास्टर की गलती!
बाढ़ ग्रस्त इलाके में स्कूल में पानी भर जाए..स्कूल न खुले मास्टर की गलती !
थोक के भाव में बच्चे के साथ उसके पूरे खानदान की जानकारी ऑनलाइन भरवाओ..जरा सा चूक हो जाए..मास्टर की गलती !
हिटलर मानता था..प्रथम विश्व युद्ध में जर्मनी की हार के पीछे यहूदी लोगो की गलती थी। जर्मनी में अनाज कम पैदा हो..यहूदी की गलती !
जर्मनी महान देश नहीं बन पाया..यहूदियों की गलती !
जर्मनी विश्वगुरु नहीं बन पाया..यहूदियों की गलती!
फिर उसने यहूदियों से निजात पाने के जो तरीके अपनाए..वो विश्व विख्यात हैं।
ऐसे ही कुछ लोगों की दृष्टि में सारी समस्याओं की जड़ में मास्टर है। इसीलिए वो जड़ उखाड़ने में लगे हैं।
मेरे हृदय में ये सब खयाल आ ही रहे थे की तभी कर्तव्यों का पाठ पढ़ाती एक व्हाट्सएप पोस्ट देखी और उसे देखते ही मेरी अंतर आत्मा हलाल होते बकरे की तरह मिमियाने लगी, "उफ्फ...हाय मैं कितना स्वर्थी हूं। एक मास्टर होकर मैं मास्टर का दुख व्यक्त कर रहा हूं। उसके साथ हो रहे बुरे बर्ताव को व्यक्त कर रहा हूं। मुझे भी इन चाटुकारों की तरह होना चाहिए जो बुरे में भी अच्छा देखते हैं। और कर्तव्यों का पलीता लिए..सबको त्याग का पाठ पढ़ा रहे हैं।"
आह! कितना स्वार्थी हूं मैं। मेरी सोच कितनी नकारात्मक है। उन चाटुकारों की तरह मेरी सोच सकारात्मक क्यों नहीं, जिन्हे ग्लास आधा भरा दिखाई पड़ता है। मुझे तो ग्लास आधा खाली दिखाई पड़ रहा है। मैं कितना स्वार्थी हूं मुझे मेरे निजता के अधिकार की चिंता है, मुझे चिंता है अपने आठ साल से रुके प्रमोशन की। सुरसा की तरह बड़ा सा मुंह फैलाए खड़े अपने खर्चों की। और छोटी छोटी बचतो के लिए तरसती अपनी आत्मा की। 
उफ्फ! मैं कितना साधारण हूं.. आह ! कितनी लघुता है मुझमें !
फिलहाल रात के बारह बज रहे हैं, और एक पुराना गाना याद आ रहा है –
शोलो पे चलना था, कांटो पे सोना था
और अभी जी भरके किस्मत पे रोना था
जाने ऐसे कितने बाकी छोड़ के काम
हो मैं चला......... मैं चला
मैं शायर बदनाम, हो..मैं चला मैं चला !

 क्रमशः 

                               ©️ दीपक शर्मा "सार्थक"

                                 







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