भूख और रोटी
जबसे पिज्जा हो गया है
भूख भी तब्दील होकर के
हवस सी बन गई है !
अब गुजारे में नहीं
दो जून की रोटी है काफी
नित्य बाजारीकरण से
लालसाएं बढ़ गई हैं !
नोच करके कफ़न भी
ये खा रहे हैं पशु के जैसे
गिद्ध इंसानों में शायद
होड़ जैसी लग गई है !
निज धरा को चीर करके
कर रहे दोहन अनर्गल
रक्त पीने की पिपासा
कम न लेकिन पड़ रही है !
मर रहे थे भूख से
वो आज खाकर मर रहे हैं
खा के मैदा, नमक, चीनी
शुगर प्रतिपल बढ़ रही है !
भिज्ञ होकर भी बना
अनभिज्ञ बैठा है ज़माना
पर कभी नज़रें चुराने से
मुसीबत कम हुई है ?
©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’
मो. नं. – 6394521525
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