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Showing posts from 2021

घूसखोरी की कला

 प्रिय घूसखोरों, चूंकि मैं इस देश का जिम्मेदार नागरिक हूं।इसलिए मेरा ये फर्ज बनता है कि मैं ऐसे लोगों की मदद करूँ जिन्हें हाल ही में नौकरी मिली है और उनको ये नहीं पता है कि रिश्वत कैसे ली जाती है। तो आइये आज आपको बताता हूं कि रिश्वत लेने की सही कला क्या है- पहली और सबसे जरूरी बात..रिश्वत हमेशा उसी काम को करने के लिए लेनी चाहिए जो काम कानूनन सही है। जिस काम को करने के लिए सरकार ने आपकी नियुक्ति की है, उसी कार्य को सही तरीके से करने के लिए रिश्वत लेनी चाहिए। कुछ मूर्ख घूसखोर उस चीज को करने की रिश्वत ले लेते हैं..जो कानूनन उनको नहीं करना चाहिए। ऐसे ही लोग आगे चलकर फंस जाते और अपनी नौकरी गँवा बैठते हैं। अब यहां प्रश्न ये उठता है कि आखिर सही काम को करने के लिए भी घूस कैसे मिल सकती है ?  इसका सबसे आसान तरीका है कि जब भी आपके ऑफिस में कोई अपना लीगल काम लेकर आए तो उस काम को जितना हो सकता है लटकाइए। जैसे उससे बोलिए, "इस फाइल में फलाने ढिमाके काग़ज़ कम हैं..पहले उनको सही करके लाइये।" इस तरह अपना काम लेकर आया व्यक्ति परेशान होगा और काग़ज़ सही करने के चक्कर में लग जाएगा। इसके बाद जब वो द...

मनुष्य की पशुता

सच तो ये है कि  चीता नहीं घुसा तुम्हारे शहर में  बल्कि तुम घुस गए हो  उनके प्राकृतिक आवासों में ! तुम झूठे मक्कार अधरजी भूखे लोग  खा गए हो उनका जंगल  और फैलते जा रहे हो कुकुरमुत्ते के जैसे  शहरीकरण के नाम पे! तुम्हारे बेतरतीब विकास की हवस  लूट रही है पारितंत्र की इज्जत को  तुम्हारे अपेक्षाओं की घनघोर पिपासा  बढ़ती जा रही है निर्लज्जता से! हाँ..एक सच ये भी है  तुम स्वार्थी लोग  अंदर से एक हिंसक पशु ही हो  बस दिखते हो इंसानो से !            ©️ दीपक शर्मा 'सार्थक'

आम्बेडकर नजर से

आम्बेडकर के विषय में कुछ भी लिखने से पहले इतना स्पष्ट कर दूँ कि यहां मैं जो कुछ भी लिखूँगा वो मेरे व्यक्तिगत विचार हैं। "मेरी दृष्टि से आम्बेडकर" का मतलब ही यही है कि मैं अम्बेडकर को कैसे देखता हूं। या यूँ कह लें कि मैं आम्बेडकर कितना समझता हूँ। ये तो मानना ही पड़ेगा कि उनका व्यक्तित्व बहुत ही व्यापक है। उनके समर्थक और अनुयायी से लेकर उनके आलोचक तक का नजरिया उनके प्रति भिन्न-भिन्न हो सकता है। इसलिए मैं अपने विचारों को किसी पर थोपना नहीं चाहता। यहाँ बस मैं यही बताना चाह रहा हूं कि अंबेडकर मुझे कैसे दिखते हैं। आजकल की आधुनिक राजनीति में अम्बेडकर बहुत ट्रेंड कर रहे हैं..हर स्कूल कॉलेज से लेकर नुक्कड चौराहे तक, हर जगह अम्बेडकर दिख जाएंगे। जो व्यक्ति जरा सा भी राजनीति में रुचि रखता है या जिसको थोड़ा भी राजनीति का ताजा ताजा चस्का लगा हो, वो अंबेडकर की फोटो पर माल्यार्पण करता दिख जाएगा। बुद्धू से बुद्धू नेता को भी पता है कि अंबेडकर मतलब  भारत का सीधे सीधे 16% वोट बैंक। लेकिन सच ये है कि आजादी के बाद से लेकर सन 1990 के दौर तक अम्बेडकर भारतीय राजनीति में थोड़ी बहुत जगहों को हटा दें तो...

सब पढ़े सब बढ़े

लाख बाधाएं हमारे मार्ग को दुर्गम बनाएं  हम निरन्तर ही प्रगति के साथ पथ पर बढ़ रहे हैं ! प्राथमिक शिक्षा सभी को प्राप्त हो मंशा यही थी  और संसाधन बहुत सीमित थे पर हिम्मत बड़ी थी  छे से चौदह साल के बच्चों को को भी शिक्षित था करना  और आलोचक की नजरें भी सभी हम पर टिकी थी  किन्तु हम शिक्षक सदा ही लक्ष्य के प्रति दृढ़ रहे हैं  हम निरंतर ही प्रगति के साथ पथ पर बढ़ रहे हैं ! ये समय तकनीक का है, हम नहीं इसमें भी पीछे  प्रेरणा दीक्षा या निष्ठा को परस्पर हम हैं सीखे  स्वप्न आखों में लिए और लक्ष्य से आगे है जाना  बनके हम सब बागवां इस नस्ल को निज तप से सींचे नित नई संभावनाओं से भी ऊपर चढ़ रहे हैं  हम निरंतर ही प्रगति के साथ पथ पर बढ़ रहे हैं ! नव कपोलो की तरह बच्चों का बचपन खिल रहा है  जो कुपोषण को मिटा दे, एम.डी.एम वो मिल रहा है  हर किलोमीटर पे विद्यालय खुले बच्चों की खातिर  ज्ञान के सूरज के आगे अब अंधेरा ढल रहा है  'सार्थक' हो सीखना कुछ इस तरह सब पढ़ रहे हैं  हम निरंतर ही प्रगति के साथ पथ पर बढ़ रहे हैं ! लाख बाधाएं हमारे म...

दिल की बात

इस दुनियां में हर व्यक्ति अपने दिल की बात बोलना चाहता हैं। लेकिन समय बदलने के साथ-साथ लोगो ने अपने दिल की बात कहने का तरीका भी बदल दिया है। आजकल लोग किस प्रकार से अपने दिल की बात बोलते हैं, आज आपको बताता हूं- (1)मज़ाक़-मज़ाक में दिल की बात- आधुनिक दुनियां की सबसे ज्यादा आबादी आजकल मज़ाक में दिल की बात बोलती है। ऐसा करना लोगों की मजबूरी भी बन गई है। असल में आधुनिक दुनियां हर व्यक्ति( खास कर ऐसे लोग जो अंदर ही अंदर दगे जा रहे हैं कि वो बहुत बुद्धिमान हैं, और उनमे कोई कमी हो ही नहीं सकती है) अपनी आलोचना नहीं सुन सकते। ऐसे में आधुनिक सामाज में सच बोलने का एक नया चलन चला है, यानी मजाक मजाक में दिल की बात बोल दो, जिसे सुनकर सामने वाला बुरा ना मान पाए। ये कुछ वैसा ही है जैसा 'कतील शिफ़ाई' ने अपने एक शेर में कहा है- "इस तरह कतील उनसे बर्ताव रहे अपना  वो भी न बुरा माने,दिल का भी कहा करना" मजाक में कहा गया सच सामने वाले को दुविधा में डाल देता है। और इस तरह सच बोलने वाले व्यक्ति के सम्बंध अमुक व्यक्ति से खराब नहीं होते। (2) घुमा फिरा कर बोली गई दिल की बात - इस तरह दिल की बात बोल...

सपने में किसान

ये जो किसान है न  ये खेत में बीज नहीं  सपने बोता है ! दिन भर खेत में करता है काम  रात मे जानवरों से फ़सल को बचाने के लिए  खेत में ही सोता है ! जब कातिक में होगी फ़सल की कटाई  तब धूमधाम से करूंगा  बेटी की सगाई ! इसबार साहूकार से  बीबी के गहने भी छुड़वाऊंगा  उसे खुश करने के लिए  एक जोड़ी पायल भी लाऊंगा ! गांव के ज़मींदार का बेटा  छोटी साइकिल क्या चलाता है  उसका बेटा दिन रात उन्हीं के दरवाजे बना रहता है ! इस बार अगर फ़सल अच्छी हुई  तो ला दूँगा बेटे को  एक वैसी ही साईकिल नई ! मन ही मन ये सोच के  खुश होता है ! ये जो किसान है न  ये खेत में बीज नहीं  सपने बोता है ! लेकिन आ जाती है बाढ़  फ़सल हो जाती है तार तार  सपने टूट के बिखर जाते हैं  सीना दर्द से फट जाता है  पर चहरे पर सख्ती लिए  वो फिर भी नहीं रोता है ! ये जो किसान है न  ये खेत में बीज नहीं  सपने बोता है !          ©️ दीपक शर्मा 'सार्थक'

निःशब्द

निःशब्द! है इसके अलावा और कोई शब्द  जो इस दर्द के पैमाने को  नाप सकता है ! स्तब्ध! है इसके अलावा  हृदय में कोई और भाव  जो इस पीड़ा को  आंक सकता है ! ध्वस्त! है कोई अर्थशास्त्री  इस धरती पर  जो इस नुकसान को  जान सकता है ! वीभत्स ! अस्तव्यस्त! खेतों में पानी नहीं  बह रहा है किसानों का रक्त  है कोई ऊपर वाला  जो इस दर्द को  कम कर सकता है !        ©️ दीपक शर्मा 'सार्थक'

कहानी

सदियों पहले समाज के  चुनिंदा लोगों ने  लिख डाली हैं कुछ कहानियां  हमारी अपनी कोई कहानी नहीं  हम तो बस एक किरदार भर हैं जो उन कहानियों को कहते हैं  वही गिनी-चुनी कहानियां  वही गिने-चुने किरदार  वही घिसी-पिटी स्क्रिप्ट  थर्ड क्लास के दर्शकों के बीच  उसी रील को घिसते रहते हैं  पैदा होते ही दिखा दी जाती है  हमको एक दिशा, फिर बैठा दिया जाता है  बिन चंपू की नाव में  और लहरों के सहारे  निर्धारित दिशा में बहते रहते हैं अपनी कहानी और किरदार  कहीं अंदर दफन करके  समाज से मान्यता प्राप्त  कहानियों को क्रत्रिम रूप से जीकर  लगे हैं समाज को खुश करने में  पर अंदर ही अंदर दर्द सहते रहते हैं फिर भी दूसरों की कहानियां कहते रहते हैं                   ©️ दीपक शर्मा 'सार्थक'

मजबूती का नाम महात्मा गाँधी

गाँधी! तुम मजबूरी के पर्यायवाची  कैसे हो सकते हो? मजबूर तो वो हैं जो  अंदर ही अंदर तुमसे जलते हैं  पर तुम्हें नजरअंदाज नहीं कर सकते  मजबूर तो वो हैं जो  सदियों से लगे हैं तुम्हारे नाम को मिटाने में  लेकिन तुम्हारी आभा के सामने टिक नहीं सकते  गाँधी! तुमको मजबूर समझने वाले  असल में मगरूर हैं, अपनी नासमझ अक्ल पे  तुमको मजबूर समझने वाले,  असल में मजदूर है अपनी वहशी सोच के  गाँधी! तुम तो दृढ़ हो अपने दिल से  तुम तो बल हो निर्बल के  किसी एक के नहीं तुम हो सबके  कामचोरी भ्रष्टाचार साम्प्रदायिकता को तिनके की तरह उड़ा दे  तुम्हारे नाम में वो आँधी है सच तो ये है कि मजबूती का नाम महात्मा गाँधी है !                      ©️ दीपक शर्मा 'सार्थक'              

अस्त अफगानिस्तान

मैंने अब तक गिनी चुनी ही इंग्लिश लिटरेचर की बुक पढ़ी हैं जिनमें से एक 'द काइट रनर'भी है। खालिद हुसैनी द्वारा लिखी 'the kite runner' मात्र एक उपन्यास भर नहीं है, ये आपको अफगानिस्तान की अवाम के जड़ से जुड़े द्वन्द्व और वहाँ की कबीलाई जनजाति और गुटों के बीच सदियों से चले आ रहे संघर्ष से भी रूबरू कराती है। खालिद हुसैनी साहब ने the kite runner कुछ इस तरह लिखा है कि ये आपके हृदय के गहरे तल में छुपी संवेदनाओं को झकझोर कर रख देती है। ऐसा हो नहीं सकता कि आप इसको पढ़ कर भावुक न हों। इस किताब की लोकप्रियता का इससे भी अंदाजा लगता है कि बाद मे हॉलीवुड वालों ने इसी नाम से (the kite runner) एक फिल्म भी बनाई। हालाकि फिल्म की स्टोरी पूरी वही है लेकिन उसमें बुक वाली बात नहीं है। खैर अब जब तालिबान ने पूरे अफगानिस्तान पर कब्जा कर लिया है। और भारतीय मीडिया हफ्ते भर से यही खबर चीख चीख के बता रहा है।ऐसे मे मेरे दिल मे बार-बार आज से आठ साल पहले पढ़ी the kite runner ही घूम रही है। ये बात तो आश्चर्यचकित करने वाली ही है कि एक तरफ तो एयरपोर्ट और बोर्डर पर अफगानिस्तान की अवाम देश छोड़ने के लिए छटपट...

अति सर्वत्र वर्जयेत्

साक्ष्य तो नहीं है पर सुना है जब दुर्घटनावश कालिदास की जुबान देवी के मंदिर में कट कर गिर गई तो देवी ने प्रसन्न होकर वरदान मांगने को कहा। कालिदास ने विद्योत्मा को माँगा लेकिन जुबान कटी होने के कारण वो विद्या ही बोल पाए। इस तरह देवी उन्हें विद्वान होने का वरदान देकर चली गई। पर कहानी यही खत्म नहीं हुई। कहा जाता है कि कालिदास को इतनी विद्या मिल गई कि वो जो कुछ भी लिखते उससे संतुष्ट नहीं होते। उन्हें अपने लिखे में ही कमियां नजर आने लगती। उनकी मानसिक हालत इतनी खराब हो गई कि वो अपने ज्ञान से ही पागल होने लगे। ये कहानी मुझे मेरी दादी सुनाया करती थी। उन्हीं के अनुसार जब कालिदास बहुत परेशान हो गए तो उनको किसी पंडित ने लगातार "कुंदरू" की सब्जी खाने की सलाह दी।पंडित ने कालिदास को बताया कि कुंदरू की सब्जी खाने से बुद्धि कुंद यानी कम हो जाती है। इस तरह कालिदास ने अपनी बुद्धि को कुंदरू खाकर कंट्रोल किया। खैर ये कहानी सही है या गलत मुझे नहीं पता पर इस कहानी का मेरे बाल मन के ऊपर इतना फर्क़ जरूर पड़ा कि मैंने बचपन में कुंदरू खाना बंद कर दिया था। मैं नहीं चाहता था कि जो थोड़ी बहुत बुद्धि है वो...

आधुनिक चीरहरण

कुरु सभा में चीरहरण के समय  अवसरवादी चुप थे क्योंकि  दुर्योधन उनकी पार्टी का नेता था ! बड़के तीसमार खां भी चुप रहे क्योंकि  दुर्योधन उनकी आय से अधिक  संपत्ति की जांच करवा देता ! केंद्र की सत्ता में बैठे  दुर्योधन के बाप ने भी आखें बंद कर रखी थी क्योंकि  दुर्योधन ही विधानसभा चुनाव जीता सकता था ! बुद्धिजीवी भी चुप ही रहे क्योंकि  दुर्योधन जैसे दुष्ट के मुह लगके  वो अपनी इज्जत नहीं कम करना चाहते थे ! विपक्ष भी थोड़ा बहुत सोशल मीडिया  पर उछल कूद करके शांत हो गया क्योंकि  विपक्ष कायर था और दुर्योधन से डरता था ! बची वहाँ की जनता  तो वो भी चुप रही क्योंकि  कोऊ नृप होय उन्हे का हानी !                         ©️ दीपक शर्मा 'सार्थक'                    ©️

तंत्र के तांत्रिक

लोकतंत्र से 'लोग' गायब  जनतंत्र से 'जन' गायब  प्रजातंत्र से 'प्रजा' गायब  अब बचा है केवल 'तंत्र' ! और बचे हैं उस 'तंत्र' को  वेश्या की तरह अपनी उंगलियों पर  नचाने वाले 'तांत्रिक' ! इस तंत्र की नाली में  कीड़े के जैसे बजबजाते ये तांत्रिक  फैल गए हैं इसकी नस-नस में  और जोंक के जैसे चूस रहे हैं  इस तंत्र का खून ! और इस भीड़तंत्र की भीड़ ने  लिया हैं आखें मूँद !            ©️ दीपक शर्मा 'सार्थक'
वो देखते हैं फिल्म  सलमान खान की ! सुनते हैं संगीत  यो-यो हनी का ! देखते हैं न्यूज  आजतक और इंडिया टीवी पर !  पढ़ते हैं न्यूज पेपर  पिछले पेज पर छपी गॉसिप ख़बरें ! आजकल वो सुनने लगे हैं कविताएं  "कोई दीवाना कहता है कोई पागल समझता है!" समझने लगे हैं खुद को कवि  और करने लगे हैं तुकबन्दी ! साथ ही पढ़ने लगे है साहित्य  चेतन भगत का! समझने लगे हैं देश का इतिहास  एकता कपूर के सीरियल को देख के! फिर वो झाड़ते हैं ज्ञान  देख की स्थिति पर ! देते हैं भाषण  समाज और संस्कृति पर !           ©️ दीपक शर्मा 'सार्थक'

इंसान और ईर्ष्या

कहने को तो ईर्ष्या पर काफी कुछ शोध किया जा चुका है, लेकिन ईर्ष्या कितने प्रकार की है इसपर ज्यादा चर्चा नहीं हुई है।इसलिए ईर्ष्या कितने प्रकार की होती है ये मैं आपको बताता हूं। हालाकि ईर्ष्या कैसी होगी ये पूरी तरह इसपर निर्भर करता है कि ईर्ष्यालु व्यक्ति कैसा है। यानी जितने प्रकार का इंसान है उतने ही प्रकार की ईर्ष्या भी होती है। तो प्रस्तुत है कुछ प्रमुख इंसानो की प्रजाति और उनसे जुड़ी ईर्ष्या- (1) वाचाल ईर्ष्यालु- इस प्रकार के ईर्ष्यालु व्यक्ति का कोई स्तर नहीं होता। ऐसे वाचाल ईर्ष्यालु अपने अंदर की ईर्ष्या को पचा नहीं पाते और जिस किसी व्यक्ति से ये ईर्ष्या करते हैं,उनसे अपने अंदर की ईर्ष्या के भाव ये छुपा नहीं पाते।इसलिए ये जिससे ईर्ष्या करते है ,उसका नाम ले ले कर चारों तरफ उसकी निंदा करते हैं। जिससे सामने वाले व्यक्ति को पता चल जाता है कि ये व्यक्ति मुझसे ईर्ष्या करता है। (2) आदर्श ईर्ष्यालु - सच पूछो तो इस कटेगरी के व्यक्ति आदर्श ईर्ष्यालु होते हैं। ये अपने अंदर की ईर्ष्या को कभी जाहिर नहीं होने देते। ऐसे ईर्ष्यालु व्यक्ति गांधी जी के तीन बन्दरों में से उस बंदर की तरह होते हैं, जिस...

और पेड़ का क्या

एक बार की बात है दो भाई एक गांव में रहते थे। दोनों भाइयों में बहुत प्रेम था। इसीलिए आपस में मिलकर ही खेती करते थे। लेकिन कुछ समय बाद जब उन दोनों का विवाह हुआ तब उनकी पत्नियों के बीच छोटी छोटी बात को लेकर आपस में लड़ाई झगड़ा शुरू हो गया।जिसके कारण दोनों भाइयों में बटवारा हो गया और दोनों अलग अलग खेती करने लगे। खैर कहानी का मुख्य विषय ये नहीं है कि उनमे कैसे बँटवारा हुआ। क्योंकि ये तो हर घर की कहानी है। अब आते है कहानी के मुख्य हिस्से पर- दोनों भाइयों में बंटवारा होने के कई सालों बाद उन दोनों के बीच एक पेड़ को लेकर विवाद हो गया। विवाद भी ऐसा जिसका निपटारा आसपड़ोस के लोग नहीं कर पा रहे थे। उनके विवाद का कारण एक पेड़ था। बड़े भाई का दावा था कि उस पेड़ को बँटवारे से पहले उसने कहीं बाहर से लाकर लगाया था इसलिए उस पेड़ पर उसका अधिकार है। वही छोटे भाई का कहना था कि चूंकि वो पेड़ उसके हिस्से की जमीन पर लगा था। और उसने पेड़ की सालों तक देखभाल की है इसलिए उस पेड़ पर उसका हक है। इस तरह उन दोनों भाइयों के पेड़ का ये विवाद चर्चा का विषय बन गया। दूर-दूर से न्याय करने वाले लोग इस विवाद का निपटारा करने आ...
सच कहूँ तो  बिना नकारात्मक तत्व की समझ के  सकारात्मक होने का ढिंढोरा पीटना  कुछ वैसे ही है जैसे  कोई भांड बिना मतलब के  ढोल बजाए जा रहा है  जैसे कोई बेसुरा गवइया  बिन सुर-ताल के गाए जा रहा है  जैसे कोई पेटू इंसान  ठूँस ठूँस के खाए जा रहा है  जैसे कोई मूर्ख इंसान यूँही  खयाली पुलाव पकाए जा रहा है  सच कहूँ तो  बिना 'ना' को जाने  हर बात पर हाँ-हाँ करना  कुछ वैसे ही है जैसे  कोई नया धोबी  कथरी में साबुन लगाए जा रहा है  जैसे कुंए का मेढ़क  अपनी समझ पर इतराए जा रहा है  जैसे कोई जुआरी  ताश के पत्तों का महल बनाए जा रहा है  जैसे सच को नजरअंदाज कर कोई  अपनी गर्दन जमीन में धंसाए जा रहा है                  ©️ दीपक शर्मा 'सार्थक'

व्यवहारिक ज्ञान

जो आप को जानबूझकर  अर्थिक क्षति पहुंचाए जो आप की सरलता का नाजायज़ फायदा उठाए ! जो बात बात पर अपना  दो कौड़ी का अहसान जताए  जो आप की विनम्रता को  आप की कमजोरी बताए ! जो केवल अपने निजी स्वार्थवश  आप से चिपकने आए  जो मुह पर आप की बोले और  पीठ पीछे आप का प्रपंच गाए ! जो आप की संवेदनशीलता का  कुटिलता से मखौल उड़ाए  जो आप के बुरे वक़्त में  मौके का फायदा उठाए ! वो चाहे मित्र हो या रिश्तेदार हो  भाई हो या पट्टीदार हो  उसे पलभर में ही छोड़ देना चाहिए  और सारे रिश्ते तोड़ लेना चाहिए !                 ©️ दीपक शर्मा 'सार्थक'

तुम क्या जानो

तुम कायदे कानून में लिपटे  अपने सामाजिक दायरे तक सिमटे  दकियानूसी परम्पराओं से चिपटे  अपनी अंतरात्मा से छिपते  और प्रेम पर भाषण देते हो  तुम क्या जानो प्रेम क्या है तुम प्रेक्टिकल ज्ञान को पकड़े  स्टेट फॉरवर्ड सोच से जकड़े  बात बात पर कर के झगड़े  अपनी झूठी ऐंठ में अकड़े  और संवेदनशील होने की बात करते हो  तुम क्या जानो संवेदना क्या है  तुम न कभी अंदर से टूटे  ना कभी अपनों से छूटे  न ठोकर खाई न बिखरे  न कभी घाव खाए गहरे  और दर्द भरी बातें करते हो  तुम क्या जानो दर्द क्या हैं !                ©️ दीपक शर्मा 'सार्थक'          

फरेबी रोना

मारीच भी रोया था  फरेब फैलाने के लिए कैकई भी रोई थी  आग लगाने के लिए ! रोई तो मंथरा भी थी  फूट डालने के लिए  ऐसे ही सियार रोते है  शोर मचाने के लिए ! अब रोने का मनोविज्ञान  समझ लेना चाहिए ! जब नीच रोये  तब द्रवित नहीं होना चाहिए !             ©️ दीपक शर्मा 'सार्थक'

मेरी गर्दन हुसैन है

जो जुर्म की हैवानियत से है तेरा वज़ूद  तो रूह मेरी दीन के लिए बेचैन है  तू तो हराम से बनी दौलत पे है फिदा  मुझको तो मुस्तफ़ा के ही सज़दे में चैन है  जो खौफ़ से भरी तेरी तलवार है यज़ीद तो फक्र से तनी मेरी गर्दन हुसैन है कुछ भी नहीं तेरा समझ ले कायनात में  जो कुछ भी है रसूल की रहमत की देन है                    ©️ दीपक शर्मा 'सार्थक'

नया सवेरा

मौत का मंजर है फैला  हर तरफ छाया अंधेरा  काश दिन इक नया आए  प्यार का लेकर सवेरा  दर्द के दोजख में सिमटी जा रही है जिंदगानी  आंख इतना रो चुकी  बाकी नहीं एक बूंद पानी  वेदना बेदर्द ने  उम्मीद को है रौंद डाला  बेबसी बहती रगों से  रिस रही मरती जवानी  अब उजड़ता जा रहा है  ख्वाब का हर एक बसेरा  काश दिन इक नया आए  प्यार का लेकर सवेरा ! अब तलक जो साथ थे  तिनके के माफिक बह गए हैं  वक्त के तूफान से  एक बार में ही ढ़ह गए हैं  थी गलतफ़हमी जिन्हें  वो धाम लेंगे आसमाँ को  अपने घर की छत गिरी  और हाथ मलते रह गए हैं  हौसले की जमा पूंजी  ले गया कोई लुटेरा  काश दिन इक नया आए  प्यार का लेकर सवेरा !               ©️ दीपक शर्मा 'सार्थक'
साहब की आलोचना सुनकर आजकल भक्तों की मनःस्थिति कैसी है - (1) दार्शनिक भक्त - ऐसे भक्त आजकल दार्शनिक हो गए हैं। " सब मोह माया है ..तुम क्या लेकर आए थे तुम क्या लेकर जाओगे। महामारी इसीलिए फैली है क्योंकि पाप भी बहुत बढ़ गया था। इसमे भला सत्ता सरकार क्या कर सकती है।" (2) अर्थशास्त्री भक्त - ऐसे भक्त देश की अर्थव्यवस्था का मूल्यांकन प्रस्तुत करके सरकार का बचाव करते हैं।"टेक्स आ नहीं रहा है व्यापार चौपट है तो ऐसे मे साहब क्या कर सकते हैं।" (3) कर्त्तव्य परायण भक्त- " सरकार की तरफ मुह उठाकर क्या देखते हैं सब। हर किसी को अपना कर्तव्य निभाने की जरूरत है। ये टाइम सरकार की गलतियां निकालने का नहीं है।" (4) इतिहासकार भक्त - "सब नेहरू की गलती है। 70 साल देश के लिए कुछ किया ही नहीं।" (5) गुस्साया हुआ भक्त - "हमसे बुराई मत करना..वर्ना मार हो जाएगा। साहब जो करते हैं अच्छा ही करते हैं।" (6) सुलझा भक्त - देखिए और कोई विकल्प भी तो नहीं है।सब चोर हैं।" (7) आशान्वित भक्त - "अरे इन सब बीमारियो से मत डरो। वो कहावत नहीं सुनी ," सब संवत लगे बीसा.....

बेबसी

बेबस जनता और न्यायालय  बेबस चुनाव आयोग हुआ  बेबसी के मारे शिक्षक हैं  बेबस गरीब मज़दूर हुआ ! बेबसी में डूबा संविधान  तानाशाही से चूर हुआ  बेबस चौथा स्तम्भ दिखे  उसके हाथो मज़बूर हुआ ! बेबसी पे करता अट्टहास  राजा कितना मगरूर हुआ  बेबस लोगों की पीड़ा से  हर तरह से वो दूर हुआ !         ©️ सार्थक 
एक बहुत छोटी सी लोक कथा..जो शायद सबने सुनी होगी, पर फिर भी आप को सुना रहा हूं।- एक बंदर और एक बकरी में बहुत दोस्ती थी। दोनों जंगल में रहते थे और दोनों साथ ही रहते थे। बंदर बहुत ही बातूनी और हाजिर जवाब था। बकरी को बंदर की यही अदा बहुत पसन्द थी। दोनों ने ये भी वादा किया था कि कभी एक दूसरे का साथ नहीं छोड़ेंगे। पर एक बार की बात है, बंदर पेड़ पर बैठा फल खा रहा था और बकरी उसी पेड़ के नीचे घास चर रही थी। तभी वहां एक शेर आ गया और उसने बकरी पर हमला कर दिया। बकरी बहुत तेज चिल्लाई। ये देख कर बंदर जिस डाल पर बैठा था,उसे खूब तेजी से हिलाने लगा। उसके बाद बंदर उछल कर दूसरी डाल पर बैठ गया और फिर उसे भी  हिलाने लगा। इस तरह बंदर एक-एक करके उस पेड़ की हर डाल को हिलाने लगा। उधर तब तक शेर बकरी को मार कर चट कर गया। और वहां से चला गया। ये पूरा घटनाक्रम उसी पेड़ पर बैठा एक कौवा देख रहा था। जब उससे नहीं रहा गया तो उसने बन्दर से पूछ ही लिया," क्यूँ बंदर भाई..वो बकरी तो तुम्हारी मित्र थी।फिर जब शेर उसको मार के खा रहा था तो तुमने कुछ किया क्यूँ नहीं!" बंदर बोला ," क्या बात करते हो कौवा भाई, तुमने ...

सत्ता की मोहनी

वो सत्ताधारी  मोहनी अवतार की तरह है  और लोग फंस गए हैं  उसके लटके झटके में ! उसके प्रपंच में  उसके मायावी भाषणों में ! वो इसका फायदा उठाकर  उद्योग पतियों को  पिला रहा है अमृत ! और जनता को पिलाकर मदिरा और विष   कर रहा है तृप्त ! नासमझ लोग नशे में  कर रहे हैं अपना ही तर्पण ! अगर किसी ने देख लिया सच  'राहु' की तरह, काट दी जाती है उसकी गर्दन !              ©️ दीपक शर्मा 'सार्थक'

इस्टीमेट

 "दहिजरउ परधान से कतनी बार कहा, नाली बनवाई देव मुला सुनिस नाय। अबकिल वाट मांगै अइहैं तौ द्वारेन से दुरियाय द्याबै।" ननकऊ की दुलहिन गुस्से मे बड़बड़ाती हुई घर के आंगन में खुदे गड्ढे से पानी निकाल कर बाहर फेंकने लगी। गांव की बढ़ती आबादी और गांव वालों की ग्रामसभा की जमीन पर कब्जा करने की हवस के चलते, बेतरतीब  कुकुरमुत्ता के जैसे घर बनते चले गए। ऐसे मे पानी के निकास को लेकर पड़ोसियों से लट्ठम लट्ठ  होना आम बात थी। अधिकतर लोगों ने घर के आगे ही गड्ढा खोद लिया था। जिसमें घर का पानी भर जाता था। फिर घर की औरतें उस पानी को भर कर बाहर फेंकने पर मज़बूर थी। अरे काहे कोसती हौ परधान का, 'तहदिल' अपनेन बिरादरी तौ आय!" ननकऊ गांजा की चिलम से मुह निकाल कर अपनी दुलहिन को डांट कर बोला। पिछले चुनाव के समय जब सीट आरक्षित हुई थी तभी से ग्राम सभा की पिछड़ी आबादी, जो कि संख्या में बहुसंख्यक थी।सबने मिलकर प्रण कर लिया था कि," ई बार परधान अपनी बिरादरी केर बनावा जई!" जब ये चर्चा चल रही थी तभी सम्बारी बीच में कूद कर बोला था, " बड़कएन का बहुत दिन परधान बनायौ, उनसे कुछ कहौ नाय मिल...

राम स्तुति

रम राम नाम प्रणाम राम नमामि राम हरे हरे! त्रिगुणातीत त्रिलोकमय हैं त्रिविक्रमं, दशरथ तनय। वो तत्वदर्शी तपोमय नित  तमरहित सीता प्रणय।। अज्ञेय अविरत नेति-नेति सारे प्रतीकों से परे ! रम राम नाम प्रणाम राम नमामि राम हरे हरे ! वेदांतपार विवेकमय वाचस्पति अभिराम हैं। विश्र्वेश प्रेम के व्योम वो  वैधीश हैं अविराम हैं ।। क्षण में ही करते हैं क्षमा वरप्रद सदा करुणा भरे ! रम राम नाम प्रणाम राम नमामि राम हरे हरे ! मायापती मंजुल मनोहर मृदुल मति मायारहित । मन से वो मर्यादित मुदित  निज भक्त का करते हैं हित ।। सर्वज्ञ हैं सर्वत्र हैं  साकार हैं जो चित धरे ! रम राम नाम प्रणाम राम नमामि राम हरे हरे ! सारंग सर संधान कर खल कुल सहित संहार कर। सर्वोपरि: सुर संत हित  सानिध्य का उद्धार कर।। समदृष्टि सब पर शौम्य हैं सदबुद्धि के संग हैं खड़े ! रम राम नाम, प्रणाम राम नमामि राम हरे हरे !         ● दीपक शर्मा 'सार्थक'

और डूब के जाना है

प्रेम में जो बह गए  नदी की तरह प्रेम में जो ढह गए  हिम खंडों की तरह वो जा मिलते हैं समुद्र से  और पा लेते हैं अपनी मंजिल ! पर जो प्रेम नहीं बहते  नदी की तरह  वो हो जाते हैं बहाव रहित  गड्ढे में भरे जल की तरह! फिर वो लगते हैं सड़ने  जमने लगती है काई  फैलाते हैं दुर्गंध  और फिर जाते हैं सूख! प्रेम में जो टूट गए  पके फल की तरह  समझो तर गए  वो कर के खुद को नष्ट  बीज से बन जाता है वृक्ष ! पर जो नहीं टूटे  आसानी से और चिपके रहते हैं  अपने डंठल से  वो रह जाते हैं अधकचरे  पड़ते हैं उनमें कीड़े  कहने को होते हैं जिंदा  पर मरघट है उनका वज़ूद!            ©️ दीपक शर्मा 'सार्थक'

धर्म संकट

" पंडित जी क्या हाल चाल हैं?" "बढ़िया है मौलवी साहब..अपने हाल चाल बताएं" पंडित जी ने शॉर्ट में अपने हाल चाल बताकर लगे हाथ मौलवी जी से भी उनके हाल पूछ लिए।  "ख़ुदा की रहमत हैं पंडित जी" मौलवी साहब ने हर चीज़ में ख़ुदा को इनवाल्व कर लेने वाली अपनी चिर परिचित आदत के अनुसार उत्तर दिया।  तब तक उधर से फादर डिसिल्वा निकल पड़े और अपने मित्र पंडित जी और मौलवी जी को एक साथ बात करते देख मजाक में बोले, " क्या बात है भाई, आज भगवान और ख़ुदा के बंदों के बीच क्या खिचड़ी पक रही है!" पंडित जी हंस कर बोले, हां..हां आप भी आ जाइए..बस क्राइस्ट की ही कमी थी।" पंडित जी की बात पर तीनों लोग हँसने लगे। फिर बातों-बातों में बात बढ़ी की तीनों लोग अपने अपने धर्म को लेकर तर्क करने लगे।   उनके तर्क का मुद्दा आज की परिस्थितियों को लेकर नहीं बल्कि इस बात पर था कि भविष्य में कौन सा धर्म धरती पर सबसे अधिक फैलेगा।  मौलवी जी अपने धर्म कि तरफ से तर्क देते हुए बोले, "इस बात पर सभी समाजशास्त्री सहमत हैं कि दुनियां में सबसे तेजी से फैलने वाला धर्म इस्लाम है। भविष्य में संसाधनों ...

हम और अहंकार

सबसे अच्छा धर्म हमारा है  क्योंकि हमारे जैसा महान आदमी  इस धर्म को मानता है ! सबसे अच्छी जाति हमारी है  क्योंकि 'हम' इस जाति में  पैदा हुए हैं ! सबसे अच्छा देश हमारा है  क्योंकि 'हम' इस देश में  पैदा हुए हैं ! सबसे अच्छी हमारी भाषा है  क्योंकि इसे 'हम' बोलते हैं  सबसे अच्छे हमारे ईश्वर हैं ! क्योंकि हमारे जैसे महान आदमी  उनकी पूजा करता है ! कुल मिलाकर  वर्ल्ड - हम = ज़ीरो  वैसे तो हम दो कौड़ी के हैं  पर हम अकेले नहीं   हमारे साथ हमारा अहंकार है  जिसने हमें महान बना रखा है              ©️ दीपक शर्मा 'सार्थक'  

मूल्यांकन

वैसे तो हर इंसान का किसी दूसरे इंसान का मूल्यांकन करने का अपना एक अलग मैथेड होता है। और ये पूरी तरह व्यक्तिगत मसला है। पर मैं किसी को कैसे जेज करता हूँ, ये बिना किसी लाग लपेट के आप से साझा कर रहा हूं- 1- अगर कोई मेरे सामने चाय की जगह कॉफी की तारीफ करता तो समझ लो अपना पूरा सम्मान मेरी नजरो में खो बैठा।  2- अगर कोई व्यक्ति पुराने गाने खास कर मो. रफी किशोर और लता के गाने पसन्द करता है तो वो उसपर भरोसा कर सकता हूँ।  3- हनी सिंह को सुनने वालों को देख के गुस्सा आता है..जैसे मेरी कोई व्यक्तिगत खुन्नस हो।  4- कुमार सानू के गाने सुनने वालों के प्रति लखनऊ के टैंम्पू चालकों के जैसी फिलिंग आती है। भले ही वो टैक्सिडो पहने हो।  5- गुलाम अली,  जगजीत सिंह की ग़ज़लें सुनने वालों को बुद्धिमान समझता हूं।  6- जिसकी the dark night , फेवरेट मूवी है, और जो jonny depp को पसन्द करता है वो तो समझो अपना भाई है।  7- जिसको श्याम बेनेगल,  ऋषिकेश मुखर्जी, की फ़िल्में पसन्द है..वो मुझे पसन्द है..भले ही उसमे सौ ऐब हों।  8 - जिसको साहित्य छू कर भी निकल गया है। उसे भावनात्मक व...

याद रखा जाएगा

गिर पड़े तो क्या हुआ हम फिर खड़े हो जाएंगे  पर तेरे जुल्मों सितम को  याद रखा जाएगा ! तू ख़ुदा है और तेरे  वश में सभी इंसान हैं  तेरे इस वहशी भरम को  याद रखा जाएगा ! हर तरफ दहशत तेरी  और खौफ़ का अम्बार है  दर्द देने के चरम को  याद रखा जाएगा ! है बड़ा मगरूर जो तू  इंकलाबों को कुचल कर  पर मिले तुझसे जख़म को  याद रखा जाएगा !          ● दीपक शर्मा 'सार्थक'

बीमा जबरदस्ती की विषय वस्तु है

पता नहीं बजट को लेकर लोगों में इतना उत्साह क्यों होता है। वित्तमंत्री के हाइपोथेटिकल भाषण और उसके बाद कूड़ा न्यूज चैनलों पर नेताओं की लप्फेबाजी को अगर किनारे कर दिया जाए तो हर बार बजट बच्चों को सुनाई गई परियों की कहानी की तरह होता है। जिसमे कुछ हकीकत नहीं होती। बजट के बाद जो रिवाइज्ड आकड़े आते हैं,वो इन परियों की कहानी में पलीता लगा देते हैं। खर्च करने के लिए एक लाख रूपये बताते हैं..और अंत तक पांच हजार करोड़ भी नहीं कर पाते हैं।  हर बजट में इसी के साथ सरकारी परिसंपत्तियों को बेचने की हवस भी जिसे शुद्ध भाषा में 'विनिवेश' कहा जाता है, वो दिन पर दिन बढ़ती ही जा रही है। इसी में एलआईसी का भी नाम जुड़ गया।इसका ये मतलब नहीं है कि मैं एलआईसी को सरकार द्वारा बेचने के निर्णय को लेकर दुःखी हूँ। बल्कि मुझे तो बीमा शब्द से ही समस्या है। हाँ..इतना जरूर है इसके प्राइवेट हाथों में जाने से इसका और वीभत्स रूप सामने निकल के आएगा..इससे डरता हूँ।   मेरी नजर में इंश्योरेंस सेक्टर, मुनाफाखोर साहुकारों द्वारा गढ़ा गया एक ऐसा आभासी व्यापार है। जो गांव की उस कहावत पर आधारित है जिसमें कहा जाता है, ...

नेता और किसान

वो सियासत के सीवर में  बह रहे कीचड़ के जैसा  लाश के ऊपर कफन को  बेच दे, लीचड़ है ऐसा  और तुम हाथों में 'हल'  लेकर के लड़ने आ गए ! वो सियासी दांव पेचों में सधे 'शकुनी' के जैसा  एकता को तोड़ने में  है कुशल छेनी के जैसा  और तुम संयुक्त होकर  भिड़ने उससे आ गए ! भेष साधू का धरे  वो छद्म विद्या में है माहिर  स्वांग आडम्बर कुटिल  चालों से छलने में है माहिर  और तुम उसके शहर में  धरना देने आ गए ! किंतु अब जब आ गए तो  दंभ उसका तोड़ना  झुक न जाये जब तलक  पीछा न उसका छोड़ना  अब न हिम्मत हारना  अब आ गए तो आ गए !        ● दीपक शर्मा 'सार्थक'

यदि गाय तुम्हारी माता है

गाय को लेकर भारतीय जनमानस में एक विशेष प्रकार की संवेदना है, ये जग जाहिर है। बचपन से ही हमें समझाया गया है की गाय का स्थान माता के समान है। परीक्षा के समय हम बच्चे आपस में मज़ाक करते हुए कहते थे की यदि पेपर कठिन आया तो कॉपी में लिख देंगे - गाय हमारी माता है.. हमको कुछ नहीं आता है वो बात अलग है की बाद में ये मज़ाक भी प्रचलन में आया की इग्जामनर भी कॉपी पर लिख देगा- सांड तुम्हारा बाप है नम्बर देना पाप है कुल मिलाकर कहने का मतलब ये है की भारतीय संस्कृति में पैदा होने से लेकर मरने के बाद बैतरणी पार करा कर बैकुंठ पहुचाने तक गाय की महत्वपूर्ण भुमिका मानी गई है। किन्तु वर्तमान परिद्रश्य में गाय का महत्व मात्र सांस्कृतिक क्रिया कलापो तक सीमित नहीं रह गया है। अब गाय एक राजनीतिक जीव भी है। गाय पर राजनीति करके नेता लोकसभा पहुच रहें हैं।  परंतु गाय का सांस्कृतिक इतिहास एवं राजनीतिक महत्त्व के बीच उसका आर्थिक इतिहास पीछे छुट सा गया है। यदि आर्थिक नजरिये से देखा जाए तो भारत में जबसे आर्य लोग आए, गाय उनके जीवन की सभी क्रिया-कलापों में शामिल हो गई। किन्तु गाय का आर्थिक महत्व आर्यों को धीरे-धीरे समझ म...

आभासी स्कूल

"इतनी कम संख्या है आप के स्कूल में बच्चो की!", साहब   बड़ी बड़ी आंखें काढ के बोले तो मास्टर साहब सहम गये। फिर हैरतंगेज़ होकर दोबारा साहब की आंखों को देख कर मन ही मन सोचने लगे की आखिर कौन से गुरुत्वीय बल के कारण इतनी बड़ी आंखे फैलाने के बाद भी साहब के बुल्ले टपक कर बाहर नहीं गिरे। "अब क्या मुंह ताक रहे हैं? सरकार आप को हराम का पैसा देती है! जब विद्यालय में बच्चे ही नहीं है तो क्या दिवारों को पढ़ायेंगे !" साहब पुन: सिंह पर सवार महिषासुर मर्दिनी वाली मुद्रा में मास्टर साहब पर चढ़ बैठे। मास्टर साहब के अंदर जितनी शालीनता बची थी उसे एक साथ इकट्ठा करके बोले, "सर ! हम प्रयास कर रहे हैं रोज आस पास के गांवो में बच्चो को बुलाने जाते हैं लेकिन.." "क्या लेकिन-वेकिन लगा रखा है..हमको पता है कितना प्रयास कर रहे हैं आप लोग..सरकार ने साफ साफ कह दिया है कि कोई भी 6 से 14 वर्ष का बच्चा बिना पढ़े न रह जाए,उसके लिए चाहे जो कुछ करना पड़े।" साहब गुस्से में अपने दाँतों को ही सुपारी समझ कर, चबाते हुए बोले। मास्टर साहब बोलना तो बहुत कुछ चाहते थे लेकिन फिर भी गरदन नीची करके केवल ...
  इधर एक दो सालों से एक नया  ट्रेंड चल रहा है।कुछ लोग 25 दिसम्बर यानी क्रिसमस वाले दिन को 'तुलसी पूजन' दिवस के रूप मे मनाने की बात करने लगे हैं। लेकिन पता नहीं क्यों, ऐसे लोगों की हरकतें मेरे गले नहीं उतरती। उसका कारण ये है की अँग्रेजी कैलेंडर के अनुसार  25 दिसंबर को क्रिसमस डे मनाया जाता है। जबकि सभी भारतीय त्योहार अँग्रेजी कैलेंडर की बजाय भारतीय संवत  की तिथियों के अनुसार मनाए जाते हैं। फिर 25 दिसंबर को तुलसी पूजन दिवस कैसे हो सकता है? और इससे भी ज्यादा अचरज की बात ये है कि यही लोग    'एक जनवरी' को अँग्रेजी कैलेंडर का नववर्ष बताकर उसे मनाने से मना करते हैं। और उसकी जगह भारतीय तिथि के अनुसार नववर्ष मनाने की सलाह देने लगते हैं। भारतीय कैलेंडर की स्थिति देश में क्या है, ये किसी से नहीं छुपा है। भारतीय तिथियों की तो बात छोड़ो, जिन लोगों की जड़े गांव से नहीं जुड़ी हैं यदि उनसे हिन्दी के बारह महीने के नाम पूछ लो तो वो भी नहीं पता होगा। भले ही मेरी बात तीखी लगे पर सत्य यही है की भारतीयों को क्रिसमस और नया साल कब आता है, ये किसी से पूछना नहीं पड़ता। इनकी...