आभासी स्कूल

"इतनी कम संख्या है आप के स्कूल में बच्चो की!", साहब   बड़ी बड़ी आंखें काढ के बोले तो मास्टर साहब सहम गये। फिर हैरतंगेज़ होकर दोबारा साहब की आंखों को देख कर मन ही मन सोचने लगे की आखिर कौन से गुरुत्वीय बल के कारण इतनी बड़ी आंखे फैलाने के बाद भी साहब के बुल्ले टपक कर बाहर नहीं गिरे।
"अब क्या मुंह ताक रहे हैं? सरकार आप को हराम का पैसा देती है! जब विद्यालय में बच्चे ही नहीं है तो क्या दिवारों को पढ़ायेंगे !" साहब पुन: सिंह पर सवार महिषासुर मर्दिनी वाली मुद्रा में मास्टर साहब पर चढ़ बैठे।
मास्टर साहब के अंदर जितनी शालीनता बची थी उसे एक साथ इकट्ठा करके बोले, "सर ! हम प्रयास कर रहे हैं रोज आस पास के गांवो में बच्चो को बुलाने जाते हैं लेकिन.."
"क्या लेकिन-वेकिन लगा रखा है..हमको पता है कितना प्रयास कर रहे हैं आप लोग..सरकार ने साफ साफ कह दिया है कि कोई भी 6 से 14 वर्ष का बच्चा बिना पढ़े न रह जाए,उसके लिए चाहे जो कुछ करना पड़े।" साहब गुस्से में अपने दाँतों को ही सुपारी समझ कर, चबाते हुए बोले।
मास्टर साहब बोलना तो बहुत कुछ चाहते थे लेकिन फिर भी गरदन नीची करके केवल 'जी सर' बोल के रह गए।
"इस 'जी सर' से काम नहीं चलेगा। इस बार तो आप पर कोई कार्यवाही नहीं कर रहा हुँ लेकिन अगले हप्ते फिर विद्यालय चेक करूँगा। अगर अगली बार भी बच्चों की संख्या कम मिली तो आप विभागीय कार्यवाही के लिए तैयार रहिएगा" इस तरह एक हप्ते का अल्टीमेटम देकर साहब विद्यालय से चले गए।
साहब के जाने के बाद मास्टर साहब ने अपने फेफड़ों पर जोर डाल कर इतनी गहरी साँस खींची मानो वो प्राथमिक विद्यालय के आसपास की समस्त ऑक्सीजन को खीच लेना चाहते हों। फिर उनकी नजर क्लास के दरवाजों के कोने पकड़ कर बाहर झांकते हुए बच्चों के झुंड पर पड़ी जो मास्टर साहब हो अपने साहब से डांट खाते देखते हुए मुस्करा रहे थे। 
"क्या है ..बाहर क्यों झाँक रहे हो?" मास्टर जी गुस्से से फट पड़े। "एक तो साहब ने जीना मुश्किल कर रखा है ऊपर से तुम लोगों ने नाक में दम कर रखा है !.. रुक जाओ अभी तुम लोगों से 17 और 19 का पहाड़ा सुनता हूं।
मास्टर साहब की डांट और उनकी 17 और 19 का पहाड़ा सुनने की धमकी सुनकर बच्चे सहम गए और भगदड़ मच गई। सहमे भी क्यूँ न..उनके अंदर 17 और 19 के पहाड़ों का डर उतना ही था जितना डर कैपिटलिस्ट अमेरिका को कम्युनिस्ट विचारों से लगता है।
उधर मास्टर साहब अपने सहयोगी अध्यापकों के साथ आसपास के गांवों के बच्चों को स्कूल तक घसीट कर लाने को लेकर रणनीति बनाने लगे। मास्टर साहब को अत्यंत विचलित देखकर एक युवा सहायक अध्यापक जिसको हाल ही मे नौकरी मिली थी वो जोश में बोला, " आप परेशान क्यों होते हैं सर..हम लोग विद्यालय के मानक के अनुसार जितने बच्चों की आवश्यकता है उतने बच्चों को जरूर ले आयेंगे।"
सहायक अध्यापक के द्वारा ढाढस बाधाएँ जाने और आश्वासन देने के बाद मास्टर साहब भावविभोर होकर कुछ वैसी अपेक्षा भरी नज़रों से उसे देखते लगे जैसी नज़रों से कभी जीजाबाई ने शिवाजी को देखा होगा..जैसी नज़रों से कभी रीछ बांनरो ने हनुमान जी को सीता का पता लगा लाने के लिए लंका जाते देखा होगा। 
अगले दिन मास्टर साहब ने अपने सहायक अध्यापकों की सेना लेकर अगल बगल के गांवों पर धावा बोल दिया। गांव में घुसते ही सामने से एक महिला आते हुए दिखाई दी। मास्टर साहब और उनकी टीम ने एक बेहतरीन सेल्समैन की तरह उसे चारों तरफ से घेर लिया और सवाल दागने शुरू कर दिए।
"आपके कितने बच्चे हैं?"
महिला जवाब में केवल अपने मटमैले दांत निकाल कर हंसने लगी जैसे मास्टर साहब ने कोई मजेदार बात पूछ ली हो। फिर कुछ सोच कर बोली,"चार लौंडे हैं औ तीन बिटेवा हैं। 
"तो अपने बच्चों को स्कूल क्यों नहीं भेजती हो" मास्टर साहब ने अगला सवाल किया। 
"अरे महट्टर साहब लड़िका घरमा नाई हैं..सीला बीनै गए हैं।" महिला ने जवाब दिया। 
अवध प्रांत के बाहर के अध्यापक जो अवधी भाषा से ज्यादा परिचित नहीं थे वो महिला का जवाब सुनकर अचरज में पड़ गए। 
"ये 'सीला' किसका नाम हैं जिसे बीनने के लिए बच्चे गए हैं?" अध्यापक महोदय से जब अपनी जिज्ञासा नहीं संभली तो वो पूछ बैठे। जिसका जवाब महिला के स्थान पर उसी गांव के शिक्षामित्र ने दिया, "अरे सर जब कोई किसान अपनी फ़सल को कम्पैन से कटवाता है तो जो अनाज खेत में गिर जाता है उसे ही ये लोग 'सीला' बोलते हैं।"
मास्टर साहब ने पुनः उस महिला से कहा,"देखो तुम अपने बच्चों को रोज स्कूल भेजो..ये सब काम मत करवाओ"
जवाब में महिला ने फिर से दांत निकाल दिए और बोली,"स्कूल का भेजी..अब तो वजीफा भी नाय मिलत है।हियां घर पर कम से कम डेढ़ दुई सौ रुपया कमाय तौ लेत हैं।"
"हाँ बहिनी सही कहेव", एक दुसरी महिला जो पूरे वार्तालाप को सुन रही थी वो बोल पडी। "पढि लिख कै कौन कलेक्टर बनि जइहैं"
मास्टर साहब उस दूसरी महिला से मुखातिब होकर बोले, "आप भी अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेजती।"
हम स्कूल भेजि के का करी..हमार बड़कवा लड़िका बाहर कमात है..और छोटकवा वाला कहूं 'जर' बीनै जात है तो कहूं सीला बीन कै लावत है।यहे बहाने घरमा दुई पईसा आवत हैं।"
महिला द्वारा दिए गए व्याख्यान को सुनने के लिए गांव के कई लोग मौका-ए-वारदात पर खड़े हो गए। 
एक सज्जन जो पहनावे  से थोड़ा समृद्ध दिख रहे थे वो हँस कर बोले, "आप भी मास्टर साहब इन जाहिलो पर अपना समय बर्बाद कर रहे हैं..ये लोग भला पढ़ाई का महत्व क्या समझेंगे। 
मास्टर साहब को उन सज्जन के रूप मे एक आशा की किरण दिखी,"बात तो सही कर रहे हैं आप..इनसे बात करना बेवकूफी है पर आप तो समझदार लगते हैं।आप ही अपने बच्चों को स्कूल भेजिए।"
वो सज्जन जो अबतक मजा ले रहे थे मास्टर साहब की बात सुनकर उनकी हंसी गायब हो गई और मुह बना कर बोले," मैं भला अपने बच्चों को सरकारी स्कूल क्यों भेजूंगा..मेरे बच्चे तो बगल वाले कस्बे में जो प्राइवेट माॅन्टेसिरी स्कूल है उसमे पढ़ते हैं।" वो सज्जन अपनी क्षमता के अनुसार जितना सीना फुला सकते थे..उतना सीना फुला कर बोले।
"पर सरकारी स्कूल में भी तो ट्रेन्ड अध्यापक पढ़ाते हैं..आप हमारे स्कूल में अपने बच्चों को भेज कर तो देखिए।बस हमारे स्कूल में प्राइवेट स्कूलो की तरह दिखावा ही नहीं होता।" मास्टर साहब जोश में बोले। 
"हम्ह! हमको क्या आपने बच्चों का भविष्य खराब करना है जो हम उन्हें सरकारी स्कूल में पढ़ाएंगे।"अपने कंधे झटक कर वो सज्जन आगे बढ़ गए। 
इस तरह हताश मास्टर साहब और उनके सहयोगी गांव से बाहर निकल ही रहे थे कि अचानक मास्टर साहब को एक रास्ता सूझा।  उन्होंने मुस्कुराते हुए अपने सहायकों से कहा, "जाओ गांव में सूचना दे दो की सोमवार को स्कूल में ड्रेस और जूतों का वितरण किया जाएगा। जो सोमवार को नहीं आएगा उसे नहीं मिलेगा।"
नए सहायक अध्यापक ने मास्टर साहब की ओर प्रश्नवाचक मुद्रा में देखा और पूछा,"इसका क्या मतलब है सर?"
मास्टर साहब मुस्कुराते हुए बोले,"तुमने क्या भारतीय नेताओ से कुछ नहीं सीखा है।नेता लोग जानते हैं कि इस देश की जनता कितना लालची है।इसलिए इनको लालच देकर चुनाव जीत लेती है। मैंने भी बस वही किया है। सोमवार को साहब स्कूल चेक करेंगे, इसलिए मैंने उसी दिन ड्रेस और जूते बांटने की घोषणा की है।अब तुम देखना ये लालची लोग इसके लालच में सोमवार को बच्चों को स्कूल जरूर भेजेंगे।"
फिर सोमवार का दिन भी आ गया। देखते ही देखते पूरा स्कूल बच्चों से भर गया। लेकिन वहां बस इंतजार हो रहा था..बच्चे फ्री वाली ड्रेस और जूतो के इंतजार में थे..अध्यापक बिचारे साहब के इंतजार में थे..साहब पैसों के इंतजार में थे..और स्कूल शिक्षा का इंतजार में था। 

                     ● दीपक शर्मा 'सार्थक'


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