यदि गाय तुम्हारी माता है

गाय को लेकर भारतीय जनमानस में एक विशेष प्रकार की संवेदना है, ये जग जाहिर है। बचपन से ही हमें समझाया गया है की गाय का स्थान माता के समान है। परीक्षा के समय हम बच्चे आपस में मज़ाक करते हुए कहते थे की यदि पेपर कठिन आया तो कॉपी में लिख देंगे -
गाय हमारी माता है..
हमको कुछ नहीं आता है
वो बात अलग है की बाद में ये मज़ाक भी प्रचलन में आया की इग्जामनर भी कॉपी पर लिख देगा-
सांड तुम्हारा बाप है
नम्बर देना पाप है
कुल मिलाकर कहने का मतलब ये है की भारतीय संस्कृति में पैदा होने से लेकर मरने के बाद बैतरणी पार करा कर बैकुंठ पहुचाने तक गाय की महत्वपूर्ण भुमिका मानी गई है।
किन्तु वर्तमान परिद्रश्य में गाय का महत्व मात्र सांस्कृतिक क्रिया कलापो तक सीमित नहीं रह गया है। अब गाय एक राजनीतिक जीव भी है। गाय पर राजनीति करके नेता लोकसभा पहुच रहें हैं। 
परंतु गाय का सांस्कृतिक इतिहास एवं राजनीतिक महत्त्व के बीच उसका आर्थिक इतिहास पीछे छुट सा गया है।
यदि आर्थिक नजरिये से देखा जाए तो भारत में जबसे आर्य लोग आए, गाय उनके जीवन की सभी क्रिया-कलापों में शामिल हो गई। किन्तु गाय का आर्थिक महत्व आर्यों को धीरे-धीरे समझ में आया। 
अगर ऋग्वेद को आधार मान कर देखा जाए तो शुरुआत में गाय अहन्ता नहीं थी यानी गाय को मारने पर रोक नहीं थी।बल्कि वो भोजन का हिस्सा थी। 
जैसा की इस श्लोक से स्पष्ट होता है-

"उक्षणों ही में पंचदंश साकं पंचंती: विश्तिम् |
उताहंमदिंम् पीव इदुभा कुक्षी प्रणन्ती में विश्व्स्मान्दिन्द्र ||" (उत्तर ऋग्वेद 10-86-14 )


आद्रीणाते मंदिन इन्द्र तृयान्स्सुन्बंती |
सोमान पिवसित्व मेषा 

"पचन्ति ते वषमां अत्सी तेषां |
पृक्षेण यन्मधवन हूय मान : (ऋग्वेद 10-28 -3 )

यानी देखा जाए तो वैदिक काल में गाय को  लेकर आर्यों में कोई विशेष संवेदना नहीं थी। न ही उसे पूज्यनीय माना जाता था।लेकिन समय के साथ आर्यों को गाय का महत्व समझ में आने लगा। जैसे-जैसे खानाबदोश जीवन छोड़कर वो खेतीबाड़ी की ओर आकर्षित हुए..उनके सामने जंगलो को साफ़ करके भूमि को खेती योग्य बनाने की आवश्यकता महसूस हुई। अब उस समय कोई ट्रेक्टर या अन्य मशीनरी तो थी नहीं जिससे खेतों को जोता जा सके।इसलिए बैलों के द्वारा जुताई का चलन शुरू हो गया। इसके साथ ही आर्य गायों के अर्थिक महत्व को भी समझने लगे। उन्होंने देखा कि गाय से उनको कितने लाभ हैं। उससे वो खेती कर सकते है जो उस समय की सबसे विकराल समस्या थी। गाय से उनको दूध और उससे जुड़े पदार्थों की भी प्राप्ति हो रही थी।उसके गोबर से खेती के लिए खाद भी मिल रही थी। 
अच्छा आर्यों की एक खास बात ये थी कि जो भी जीव या वस्तु प्रकृति और उनके लिए फायदेमंद हो वो उसे पूज्यनीय बना लेते थे। जैसे पीपल के पेड़ की पूजा करना। इसी तरह गाय भी उनके लिए पूज्यनीय हो गई।
गाय को धन की संज्ञा दी गई। 'गौधन' सबसे महत्वपूर्ण धन हो गया।गायों को लेकर आगे चलकर उत्तर वैदिककाल में आर्य राजाओं में आपस में युद्ध भी हुए। 'गार्गी याज्ञवल्क्य' संवाद से भी गाय के महत्व को समझा जा सकता है जहां एक लाख गायों को लेकर दोनों में लंबा शास्त्रार्थ हुआ था। 
उस समय से लेकर आजादी के बाद के लगभग तीस सालों तक ग्रामीण भारत की अर्थव्यवस्था में गाय का महत्वपूर्ण स्थान रहा।
फिर सन 1991-92 के समय जब नरसिंहराव और मनमोहन सिंह की जोड़ी के हाथों में भारतीय अर्थव्यवस्था की डोर थी।तब कर्जे में डूबे भारत की गर्दन पर विश्वबैंक ने लात रखकर सात बिलियन डॉलर कर्ज देने के नाम पर जबरदस्ती भारत की अधकचरी अर्थव्यवस्था को ग्लोबलाइजेशन के नाम पर दुनियां के लिए खोलवा दिया।जिसका दुष्प्रभाव भारतीय कृषि तकनीक पर भी पड़ा।जहां किसी समय दस गांवों में से किसी एक गांव में ट्रैक्टर हुआ करता था।अब उसकी जगह एक गावों में दस-दस ट्रेक्टर आ गए। इसका सीधा प्रभाव बैलों से हो रही जुताई पर पड़ा। बैलों के पीछे 'बाँ-बाँ' करने वाली नस्ल धीरे-धीरे गायब होने लगी। और इस तरह जैसे-जैसे ट्रेक्टर से कृषि कार्य बढ़ने लगे..वैसे ही बैलों का अर्थिक महत्व घटता चला गया। 
जैसा कि सर्वविदित है कि कोई भी घटना के पीछे केवल एक कारण नहीं होता। वैसे ही गौ नस्ल के घटते आर्थिक महत्व के पीछे केवल मशीनीकरण ही नहीं बल्कि और भी कई कारक काम कर रहे थे।इसका एक और महत्वपर्ण कारक वो भी था जिसके कारण हम भारतीय पूरी दुनियां में मशहूर हैं और वो कारक है..बच्चे पैदा करके जनसँख्या बढ़ाना। एक वो समय था जब आबादी नियंत्रण में थी..लोग अपने पशुओं को खुले चारागाह में चराने ले जाते थे।एक-एक आदमी के हिस्से में सौ-सौ बीघे जमीन हुआ करती थी। इसलिए पशुओं के चारे को लेकर कोई समस्या नहीं थी। फिर जनसँख्या विस्फोट हुआ। जिसके पास सौ बीघे जमीन थी उसके पांच बच्चे भी थे..जोते बंट कर बीस बीस बीघे हो गई।फिर उनके भी बच्चों में बटवारा हुआ इसके कारण अगली पीढ़ी के हिस्से मे दो-दो बीघे जमीन आई। अब अगर वर्तमान समय में सरकारी आकड़ों को देखें तो पता चलेगा कि भारत में 80% किसान..सीमान्त किसान की श्रेणी में आते हैं। जिनके पास बहुत सीमित मात्रा मे खेती है।
ऐसे में पशु पालना कोई मजाक नहीं रह गया। किसान के पास जो थोड़ी जमीन है उस पर वो अपने खाने के लिए अनाज पैसा करे या पशुओं के लिए चारे की व्यवस्था करे। 
अब अर्थशास्त्र के सबसे कटु सिद्धांत की बात करते है..जिसे कहते हैं "उपयोगिता का सिद्धांत"। यानी किसी भी वस्तु की यदि उपयोगिता खत्म हो जाए तो वो विलुप्त हो जाती है।यही सिद्धांत गौवंश पर लागू हुआ।एक तरफ जहां मशीनीकरण के कारण बैलों की कोई कीमत नहीं रह गई। वहीँ बढ़ती आबादी और घटती जोतो से उत्पन्न चारे की अनुपलब्धता से किसान परेशान हो उठा। चुकीं बैलों का अब कोई काम नहीं रह गया और इनसे जुड़ी आस्था के कारण उनके कटने पर रोक है इसलिए किसानों ने मजबूरन उन्हें छुट्टा छोड़ दिया। और उनकी जगह भैस और अन्य दुधारू जानवर पालने लगा। क्योंकि भैस से दूध भी ज्यादा मिलता है और वो बाजार में कटती भी है,  जिसकी बाजार में अच्छी कीमत मिलती है।
यहां सोचने वाली बात ये है कि जहां एक समय आर्यों ने गौवंश की उपयोगिता को देख कर उसे अहंता(जिसे मारा न जाए) और पूज्यनीय घोषित किया था। वहीँ आधुनिक समय में जैसे ही गौवंश अनुपयोगी हुआ..लोगों ने उसे छोड़ना शुरू कर दिया। 
क्योंकि गाय के साथ आस्था भी जुड़ी है इसलिए अब भारतीय किसानों के लिए गाय..गले में फंसी हड्डी बन गई है,जिसे न निगलने बन रहा है न उगलते। हज़ारों की संख्या में छुट्टा गौवंश अब किसानों की फसलों को नाश किए दे रहे हैं।किसान मजबूरीवश अपना पेट काट कर खेतों की बाड़बंदी (लोहे के तार) कर रहा है। रात-रात भर जाग कर जानवरों से अपने खेतों की रखवाली कर रहा है। वहीं दूसरी तरफ भूख से व्याकुल गायें, लोहे के कंटीले तारों में फांद कर अपना पेट भरने में लगी हैं।जिसमें कई बार वो फंस कर वीभत्स तरीके से कट पीट भी जाती हैं। जिससे कीड़े पड़कर वो बेदर्द मौतें मर रहीं हैं।
वो कहते हैं न कि किसान का दर्द समझने के लिए किसान होना जरूरी है।शहरों में अपने आलिशान बेडरूम में आराम फरमाते और गौरक्षा के नाम पर अपनी राजनीति चमकाते लोग..किसान का दर्द क्या समझेंगे।उन्हें क्या पता कि कड़कड़ाती ठंड में जब वो अपनी रज़ाई में टांगे फैलाकर सो रहे होते हैं तब किसान रात रात भर कंबल लपेटे अपनी फसल को जानवरों से बचाने में लगा होता है। 
बचपन की वो कहावत कि "गाय हमारी माता है..हमको कुछ नहीं आता है" उसके बारे मे अब जब सोचता हूं तो लगता है कि गाय हमारी माता है ये तो पक्के से नहीं कह सकता हूं लेकिन "हमको कुछ नहीं आता है " ये बात एकदम सही है। 
इस समस्या का समाधान क्या है..हम सभी जानते है पर बोल नहीं सकते।मुझे बस इतना पता है कि गाय से जुड़ी आस्था और खेती से जुड़े अर्थशास्त्र के बीच किसान पिस रहा है। अब बस देखना ये है कि इस जंग को आस्था जीतती है..या अर्थशास्त्र!

                           ● दीपक शर्मा 'सार्थक'


Comments

Popular posts from this blog

एक दृष्टि में नेहरू

वाह रे प्यारे डिप्लोमेटिक

क्या जानोगे !