और इससे भी ज्यादा अचरज की बात ये है कि यही लोग 'एक जनवरी' को अँग्रेजी कैलेंडर का नववर्ष बताकर उसे मनाने से मना करते हैं। और उसकी जगह भारतीय तिथि के अनुसार नववर्ष मनाने की सलाह देने लगते हैं।
भारतीय कैलेंडर की स्थिति देश में क्या है, ये किसी से नहीं छुपा है। भारतीय तिथियों की तो बात छोड़ो, जिन लोगों की जड़े गांव से नहीं जुड़ी हैं यदि उनसे हिन्दी के बारह महीने के नाम पूछ लो तो वो भी नहीं पता होगा।
भले ही मेरी बात तीखी लगे पर सत्य यही है की भारतीयों को क्रिसमस और नया साल कब आता है, ये किसी से पूछना नहीं पड़ता। इनकी तारिख छोटे छोटे बच्चे भी जानतें हैं। लेकिन वहीँ होली और दिवाली कब है ये बात अगर पंडित न बताए तो कोई ना जान पाए।
अँग्रेजी कैलेंडर हमारी जिंदगी का हिस्सा हो गया है। इंग्लिश मीडियम की शिक्षा हमारी महात्वाकांक्षा के साथ-साथ अब हमारी मजबूरी हो गई है। विदेशी पहनावा ही अब हमारा पहनावा हो गया है। धीरे-धीरे ही सही लेकिन अब धोती कुर्ता पहनने वाली प्रजाति, देश से गायब होती जा रही है। हमारा खान-पान अब पिज्जा और बर्गर की शक्ल ले चुका है। यानी अगर खुल के कहा जाय तो हमारी आत्मा को छोड़ कर सब कुछ विदेशी हो गया है।
ऐसे में जबरदस्ती 25 दिसंबर को तुलसी पूजन दिवस के रूप मे मनाने की बात और कुछ नहीं बस ईर्ष्या को दर्शाता है। जब हम सुनते हैं की विदेश में भी होली दिवाली मनाई जाती है तो ये सुनकर छाती चौड़ी करने लगते हैं। जब हम देखते हैं कि कुछ अंग्रेज इस्कॉन मंदिर में गेरुए वस्त्र पहन कर हरे रामा.. हरे कृष्णा का जाप करते हैं तो फूल कर कुप्पा हो जाते हैं। लेकिन वहीँ दूसरे के त्यौहार को, मारे ईर्ष्या के तुलसी पूजन दिवस के रूप मे मनाने के लिए मरे जा रहे हैं।
ऐसी हरकतें न केवल भारत की 'वसुधैव कुटुम्बकम' वाली फिलाॅसफी में पलीता लगाती हैं साथ ही ये भी दर्शाती हैं कि दुसरी मान्यताओं को लेकर हम कितना जङ हैं।
● दीपक शर्मा 'सार्थक'
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