आम्बेडकर नजर से
आजकल की आधुनिक राजनीति में अम्बेडकर बहुत ट्रेंड कर रहे हैं..हर स्कूल कॉलेज से लेकर नुक्कड चौराहे तक, हर जगह अम्बेडकर दिख जाएंगे। जो व्यक्ति जरा सा भी राजनीति में रुचि रखता है या जिसको थोड़ा भी राजनीति का ताजा ताजा चस्का लगा हो, वो अंबेडकर की फोटो पर माल्यार्पण करता दिख जाएगा। बुद्धू से बुद्धू नेता को भी पता है कि अंबेडकर मतलब भारत का सीधे सीधे 16% वोट बैंक। लेकिन सच ये है कि आजादी के बाद से लेकर सन 1990 के दौर तक अम्बेडकर भारतीय राजनीति में थोड़ी बहुत जगहों को हटा दें तो प्रासंगिक नहीं थे। आज अंबेडकर की भारतीय जनमानस में जो पहचान है वो सन 1990 से पहले नहीं थी।
सोचने वाली बात ये है कि 1990 के बाद से ऐसा क्या हुआ कि आम्बेडकर हर व्यक्ति की जुबान पर आज चढ़ गए हैं। इसी बात को अगर राजनीतिक नजरिए से देखा जाए तो 1990 से पहले जो दलित वोट बैंक था, वो लगभग पूरा का पूरा कॉंग्रेस के खाते में जाता था। कांग्रेसियों ने दलितों के प्रति गांधीवादी राजनीति को स्थापित करने की कोशिश की। उनको गांधी जी द्वारा दिए गए 'हरिजन' नाम से संबोधित किया। आजादी के बाद कहीं-कहीं दलित बस्तियों में गांधी की मूर्ति भी लगाई गई। और इस तरह अंबेडकर और अम्बेडकरवाद को कहीं जमीन में गहरे से दफन कर दिया गया। लेकिन आम्बेडकर तो आम्बेडकर थे...वो इन राजनेताओं के मायाजाल से बनी उस सख्त ज़मीन का सीना चीर कर पुनः स्फुटित हो गए। यहाँ काशीराम और मायावती के योगदान को नकारा नहीं जा सकता। उदाहरण के रूप मे कहूँ तो मार्क्सवाद को धरातल पर स्थापित करने का जो श्रेय 'लेनिन' को दिया जाता है, वही श्रेय अम्बेडकरवाद को पुनर्जीवित करने के लिए कांशीराम को मिलना चाहिए। किया तो बहुत कुछ हिन्दी भाषी राज्यों में मायावती ने भी और अंबेडकर की थोड़ी झलक भी मुझे उनमे दिखती है लेकिन जैसे लेनिन के बाद स्टालिन ने मार्क्सवाद की दुर्गति कर दी, कुछ उसी तरह मायावती भी आगे चलकर मुझे कुछ हद तक नाकाम ही दिख रहीं हैं।
अब अंबेडकर के मूल व्यक्तित्व पर आते हैं। उनके संविधान के निर्माण के योगदान पर ज्यादा चर्चा की जरूरत नहीं है। कुछ आलोचकों का मानना है "संविधान निर्माण का जितना ज्यादा श्रेय अम्बेडकर को मिलता है, वो सही नहीं हैं। वो केवल प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे। जबकि संविधान निर्माण अन्य लोगों की भी अथक मेहनत का परिणाम है"। कुछ लोग ये भी भी कहते हैं "संविधान सभा ने 1935 के ऐक्ट को लगभग पूरी तरह अपना लिया था। इस ऐक्ट को छोटा संविधान भी कह सकते हैं। और इसके बाद दुनियां भर के संविधानो के टुकड़ों को लेकर भारतीय संविधान में जोड़ दिया गया है।फिर आम्बेडकर का इतना यशगान क्यों किया जाता है?"
इन आलोचकों से सब इतना ही कहाना चाहता हूं पहले संविधान निर्माण की पूरी प्रक्रिया का अध्यन करें तब आपको समझ में आयेगा कि "बिना अंबेडकर के भारतीय संविधान टुकड़ों टुकड़ों में जोड़ा गया एक मुर्दा 'फ्रेंकेस्टाइन' है। भारतीय संविधान की आत्मा अंबेडकर ही हैं।"
इन सब बातों के अलावा मुझे लगता है कि अंबेडकर और गांधी का तुलनात्मक अध्यन उनके व्यक्तित्व को समझने के लिए बहुत जरूरी है। जितना भी मैंने आम्बेडकर के बारे में पढ़ा है। वो मुझे हर जगह गांधी से असहमत ही दिखते हैं।मुझे आम्बेडकर में जो थड़ी बहुत लघुता (कमी ) दिखती है वो यहीं दिखती है। कहीं-कहीं पर तो उन्होंने गांधी विरोध की हद ही खतम कर दी है। बीबीसी को दिए गए अपने एक इंटरव्यू में जब पत्रकार ने उनसे गांधी के बारे में अपने विचार बताने को कहता है तो बहुत ही अजीब सा उत्तर देते हैं। यहाँ तक वो बोलते हैं कि, "मेरी समझ में नहीं आता कि पूरा पाश्चात्य सभ्यता गांधी को इतना महत्व क्यों देती है।"
ये बात तो अंबेडकर के घोर अनुयायी को भी मानना पड़ेगा कि आजादी की लड़ाई के समय देश में गांधी की हैसियत क्या थी। पूरा आंदोलन गांधीमय था। आम जनमानस में यहां तक दलित आबादी में भी गांधी का ये जलवा था कि उनके मुँह से निकली बात पत्थर की लकीर हो जाती थी। इस बात का एहसास अंग्रेज तो अंग्रेज,ब्लकि भारत के उस समय के सभी बड़े कद्दावर नेता और यहां तक अंबेडकर भी मानने पर मजबूर थे। आम जनमानस में गांधी कितनी पहुच और किसी भी नेता की नहीं थी। ऐसे व्यक्ति को पाश्चात्य लोग इतना महत्व क्यों देते हैं, ऐसा सवाल उठाना हास्यास्पद ही तो है।
दलित उत्थान और छुआछूत को लेकर गांधी और अंबेडकर दोनों ने धरातल पर अथक प्रयास किए। इसके बावजूद दोनों की कभी आपस में नहीं बनी। पूरा जीवन अंबेडकर गांधी से असहमत ही रहे। जातिवाद और छुआछूत को खत्म करने के लिए दोनों अपना-अपना तरीका बेहतर मानते थे। अगर दिल से कहूँ तो यहां मेरा झुकाव अंबेडकर की तरफ ज्यादा हो जाता है। दलित उत्थान के लिए गांधी ने असाधारण प्रयास किया। इसको लेकर उनकी अन्य सामाज में आलोचना भी हुई। इन सब के बाद भी जातिवाद को खत्म करने को लेकर उनका दर्शन अति आदर्शवादी दिखता है। वो वर्णव्यवस्था के गुण भी बताते हैं। वो श्रम विभाजन को महत्व देते दिखते हैं।उनकी नज़र में सभी काम बराबर के महत्व के हैं। पर अंबेडकर के साथ ऐसा नहीं हैं l वो जातिवाद के कटु आलोचक हैं। और ऐसा हो भी क्यों न...उन्होंने इस छुआछूत के दर्द को झेला था। इतने प्रयासों के बाद भी उस समय दलितों की 99% आबादी का शोषण हो रहा था। अंबेडकर के लिए ये ज़हर के घूंट पीने के जैसा था। अपनों को इस पीड़ा के साथ जीते देख कर उनका कलेजा फट जाता था।
वो तीनों गोल मेज सम्मेलन में शामिल हुए। उन्होंने मुसलमानो की ही तरह दलितों के लिए अलग निर्वाचन का समर्थन किया। इससे उनकी पूरे देश में आलोचना भी हुई।पर इससे उनकी सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ा। उन्होंने एक जगह कहा भी की अंग्रेजो का होना इस देश में ठीक है। अगर वो चले गए तो दलितों पर और अत्याचार शुरू हो जाएंगे।उनके लिए राष्ट्रवाद धर्म संप्रदाय सब गौड़ था। वो विशुद्ध रूप से दलित और शोषितों का उत्थान को ही सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण मानते थे। पर इस सबके बाद भी गांधी पूना पैक्ट के समय कैसे उनको समझा ले गए, जिससे उन्होंने दलितों के लिए अलग निर्वाचन और दो वोट की मांग छोड़ दी..ये मुझे अचरज में डाल देता है।और यही गांधी को असाधारण भी बना देता है।
उस समय जब जब देश के लगभग सारे नेता गांधीमय थे।सब खादी पहन कर और चरखा चलाकर गांधी की तरह दिखना चाहते थे, ऐसे में एक अंबेडकर ही थे जो कोट पैंट ताई लगाकर घूमते थे। उनका अपना दर्शन अपनी निष्ठा और अपना औरा था। इस बात को कुछ इस तरह समझते हैं कि उस समय भारतीय राजनीति में गांधी सूर्य की तरह थे। और बाकी नेता सौरमंडल के ग्रहो की तरह उस गांधी रूपी सूर्य की परिक्रमा कर रहे थे और उनके प्रकाश से प्रकाशित हो रहे थे। ऐसे में एक अंबेडकर ही थे जो उन ग्रहों में सामिल नहीं थे। वो उस गांधीवाद की भयंकर आँधी में भी एक दीपक की तरह जल रहे थे। उनकी अपनी आभा थी अपना प्रकाश था। वो बाकियों की तरह प्रकाश के लिए गांधी पर निर्भर नहीं थे।
ये मानना पड़ेगा कि गांधी भी अंबेडकर की प्रतिभा को समझते थे।अंबेडकर की पार्टी "शेड्यूल फेडरेशन ऑफ इंडिया" संविधान सभा के चुनाव में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाई। यहाँ तक वो स्वयं चुनाव हार गए। उसके बाद भी संविधान सभा, जिसमें कॉंग्रेस पार्टी का पूरा दबदबा था, उसने गांधी के कहने पर अंबेडकर को प्रारूप समिति का अध्यक्ष बनाया। ये उनकी विलक्षण प्रतिभा ही थी कि उन्होंने इस काम को बखूबी निभाया और देश को इतना खूबसूरत संविधान दिया।
जब भी आम्बेडकर को पढ़ता या सुनता हूं तो एहसास होता है कि वो अपने दर्शन में एकदम पूर्ण..अपनी बातों से एकदम स्पष्ट..अपने लहजे से सख्त ..मष्तिष्क में ज्ञान का अपार भंडार लिए और हृदय से करुणामय दिखते हैं। इसीलिए अहंकार और घृणा से भरे व्यक्ति की समझ में आम्बेडकर नहीं आयेंगे। उनको समझने के लिए हृदय में करुणा होने की आवश्यकता है।
©️ दीपक शर्मा 'सार्थक'
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