और डूब के जाना है

प्रेम में जो बह गए 
नदी की तरह
प्रेम में जो ढह गए 
हिम खंडों की तरह
वो जा मिलते हैं समुद्र से 
और पा लेते हैं अपनी मंजिल !

पर जो प्रेम नहीं बहते 
नदी की तरह 
वो हो जाते हैं बहाव रहित 
गड्ढे में भरे जल की तरह!
फिर वो लगते हैं सड़ने 
जमने लगती है काई 
फैलाते हैं दुर्गंध 
और फिर जाते हैं सूख!

प्रेम में जो टूट गए 
पके फल की तरह 
समझो तर गए 
वो कर के खुद को नष्ट 
बीज से बन जाता है वृक्ष !

पर जो नहीं टूटे 
आसानी से
और चिपके रहते हैं 
अपने डंठल से 
वो रह जाते हैं अधकचरे 
पड़ते हैं उनमें कीड़े 
कहने को होते हैं जिंदा 
पर मरघट है उनका वज़ूद!

           ©️ दीपक शर्मा 'सार्थक'








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