बीमा जबरदस्ती की विषय वस्तु है
हर बजट में इसी के साथ सरकारी परिसंपत्तियों को बेचने की हवस भी जिसे शुद्ध भाषा में 'विनिवेश' कहा जाता है, वो दिन पर दिन बढ़ती ही जा रही है। इसी में एलआईसी का भी नाम जुड़ गया।इसका ये मतलब नहीं है कि मैं एलआईसी को सरकार द्वारा बेचने के निर्णय को लेकर दुःखी हूँ। बल्कि मुझे तो बीमा शब्द से ही समस्या है। हाँ..इतना जरूर है इसके प्राइवेट हाथों में जाने से इसका और वीभत्स रूप सामने निकल के आएगा..इससे डरता हूँ।
मेरी नजर में इंश्योरेंस सेक्टर, मुनाफाखोर साहुकारों द्वारा गढ़ा गया एक ऐसा आभासी व्यापार है। जो गांव की उस कहावत पर आधारित है जिसमें कहा जाता है, "हर्र लगे न फिटकरी..रंग चोखा आए"
कहने का मतलब है जनता का पैसा..जनता को ही भय दिखाकर..उससे ऐंठ लिया जाए। और मजे की बात ये कि कंपनियां इसमे कोई भी पूंजीगत निवेश (कैपिटल इनवेस्टमेंट) भी नहीं करती। दावा ये किया जाता है कि इसका सीधा फायदा जनता को मिलता है..और हक़ीक़त ये है कि बीमा कंपनियां दिन पर दिन अमीर होती जा रही हैं। और लोगों को इसका कोई फायदा नहीं मिलता। छोटे-छोटे क्लेम के लिए लोगों को इतना दौड़ाया जाता है कि लोग क्लेम माँगना छोड़ देते हैं। मार्केट में इतने तरह की बीमा की स्कीम ये कंपनियां लाती हैं जो अचरज में डाल देती हैं। शायद अब वो दिन भी दूर नहीं जब ये कंपनियां मरने के बाद के रिस्क को कवर करने की भी स्कीमें लें आयें। जैसे दो हजार रुपए पर मंथ दस साल तक भरें, तो मरने के बाद आप को यमदूत गर्म तेल की जगह ठंढे तेल में तलेंगे। या शायद कुछ ऐसी स्कीम आए जैसे "मरने के बाद भी सर उठाकर नर्क में रहने का मौका " अगर इस पॉलिसी को आप लें तो मरने के बाद यमराज नर्क में आप से काम नहीं करायेंगे।
खैर बात इसी तक सीमित होती तो कोई दिक्कत नहीं थी।लेकिन अब स्थिति ये है कि लोगों को जबरदस्ती बीमा पॉलिसी लेने पर मजबूर किया जा रहा है। जिसका सबसे बुरा उदाहरण किसानों को जबरदस्ती दी जाने वाली 'फसल बीमा योजना' है। कोई भी किसान यदि बैंक से 'किसान क्रेडिट कार्ड' बनवाता है तो बैंक वाले किसानों के ऊपर जबरदस्ती 'फसल बीमा योजना' मढ देते हैं। जिसके प्रीमियम की राशि हर महीने उनके लोन में जोड़ दी जाती है।
और सबसे बुरा तो ये है कि पांच प्रतिशत किसानों को भी इसके क्लेम का लाभ नहीं मिलना है। बस बीमा कंपनियां दिन पर दिन मालामाल होती जा रही हैं। यानि कभी एलआईसी की जो टैग लाइन थी कि 'बीमा आग्रह की विषय वस्तु है' अब वो बदल के 'बीमा जबरदस्ती की विषय वस्तु है।' कर देना चाहिए।
वो दिन दूर नहीं जब इन्हीं नीतियों के बदौलत हमारे देश की स्थिति भी अमेरिका जैसी हो जाएगी..जहां बीमा कंपनियो का दबदबा है। वहां अगर आपके पास इंश्योरेंस नहीं है तो छोटी से छोटी बीमारियों के इलाज में लोग बर्बाद हो जाते हैं।
स्वास्थ्य..शिक्षा ये सब सरकार पर भार ही तो है। और अब वो अपने सिर से भार हटाने के मूड में है। आने वाले समय में आप की जिंदगी महज कुछ पॉलिसी निर्धारित करेंगी। बीमा है तो जिंदा हैं..बीमा नहीं तो समझो मर गए।
● 'सार्थक'
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