सच कहूँ तो 
बिना नकारात्मक तत्व की समझ के 
सकारात्मक होने का ढिंढोरा पीटना 
कुछ वैसे ही है जैसे 
कोई भांड बिना मतलब के 
ढोल बजाए जा रहा है 
जैसे कोई बेसुरा गवइया 
बिन सुर-ताल के गाए जा रहा है 
जैसे कोई पेटू इंसान 
ठूँस ठूँस के खाए जा रहा है 
जैसे कोई मूर्ख इंसान यूँही 
खयाली पुलाव पकाए जा रहा है 

सच कहूँ तो 
बिना 'ना' को जाने 
हर बात पर हाँ-हाँ करना 
कुछ वैसे ही है जैसे 
कोई नया धोबी 
कथरी में साबुन लगाए जा रहा है 
जैसे कुंए का मेढ़क 
अपनी समझ पर इतराए जा रहा है 
जैसे कोई जुआरी 
ताश के पत्तों का महल बनाए जा रहा है 
जैसे सच को नजरअंदाज कर कोई 
अपनी गर्दन जमीन में धंसाए जा रहा है 

                ©️ दीपक शर्मा 'सार्थक'




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