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Showing posts from 2019
नव नूतन नभ नयनो में बसे  नित नवयोदय निर्मित हो नया निखरे जो थे बिखरे सपने नववर्ष में लें संकल्प नया ! नव चेतन नित संवेदन नव नव चिंतन भी निर्गत हो नया निश्छल नीयत नव निर्मल मन नव उद्विकास हो नित्य नया ! नव स्वप्न नयन में बस जाएं निष्काम हृदय, नवयुग हो नया नर नारायण में निहित रहे निज राष्ट्र का हो उत्थान नया ! नव नीति निरंतर विकसित हो न्यायोचित हो और न्याय नया नैतिकता निर्मित हो सबमें  नववर्ष में हो सब नया-नया !             ©️ दीपक शर्मा 'सार्थक'
मेरी पीड़ा क्या समझोगे कितना भी कर लें हम ज्ञापित सारी दुनियाँ ये जानती है हम विस्थापित तुम स्थापित उर भी घायल पुर भी घायल निज अन्तरमन भी है शापित सारी सत्ता कर में उनके हम संतापित वो सत्यापित निर्जीव निरंकुश नाकाबिल निर्दोषो पर होते शासित निर्विग्न करो सब नाजायज हम निर्वासित तुम अभिलाषित तथ्यों पर ध्यान नहीं देते निर्णय सारे हैं अनुमानित निज दोष मढ़ो मेरे ऊपर हम अपमानित तूम सम्मानित     ● दीपक शर्मा 'सार्थक'

तू ग़ुमान कर तू जवान है !

तू ग़ुमान कर तू जवान है.. तेरे हाथ में वक्त का तीर है तेरे हाथ में ही कमान है संजीदगी से जो सोच ले क़दमों तले ये जहान है तू ग़ुमान कर तू जवान है.. मत कर फिकर हो जा निडर तेरी मुस्किलें आसान है नई चुन डगर कुछ कर गुज़र रच दे नया जो विधान है तू ग़ुमान कर तू जवान है.. चाहे जीत हो चाहे हार हो तू हर दशा में समान है बस कर्म कर न अधर्म कर गीता में कृष्ण का ज्ञान है तू ग़ुमान कर तू जवान है.. जो भटक गया तो अटक गया बिन लक्ष्य के बेजान है मंज़िल पे तेरी हो नज़र फिर हर तरफ उत्थान है तू ग़ुमान कर तू जवान है.. तेरी शक्ति है तेरा अात्मबल क्यों बेखबर बेध्यान है ये चुनौतियां ढ़ह जाएंगी अंदर तेरे तूफान है तू ग़ुमान कर तू जवान है..           ● दीपक शर्मा 'सार्थक'

बिचारे दुर्योधन!

निवस्त्र होते देखना तो पूरी सभा चाहती है बस कोई दुर्योधन बोल देता है ! चीरहरण तो पूरी सभा करना चाहती है बस कोई दुसाशन कर देता है ! बिचारे दुर्योधन ! काम पिपासा ज़ाहिर करके बदनाम हो जाते हैं और ये सभ्य समाज ! अपना दामन बचाता  गैरों पे  इल्ज़ाम लगाता अन्दर से आनंदित होकर आत्म मैथुन करता रहता है !           ●दीपक शर्मा 'सार्थक'

सुई -कपड़ा

इक सुई ने मन मे ठान लिया वो एक मिशाल बनायेगी दो अलग तरह के कपडों को वो एक बना कर मानेगी इस ज़िद के वशीभूत होकर भाईचारे का धागा लेकर सुई महासमर में कूद पड़ी  मन कड़ा किए निष्ठुर होकर दोनो कपडों में चुभ चुभ कर धागे से दोनो को सिलकर वो एक जगह पर ले आई दोनो कपडों को घायल कर कपड़े जुड़ गए मगर सुई को इक बात बहुत ही चुभने लगी ये भरत मिलाप अधूरा था गिरहें कपड़ो में दिखने लगी जो साथ नहीं रहने वाले यदि उनको साथ में लाओगे परिणाम बुरा होगा उसका सुई की तरह पछताओगे          ● दीपक शर्मा 'सार्थक'         

थोड़ा सा फरेब

थोड़ा फ़रेब खुद से ही करने के बदौलत एहसास-ए-ज़िन्दगी कि ज़मीं बरक़रार है ! उकता गया हूँ अब तो मोहोब्बत से इस क़दर दिल को सुकून का ही फ़कत इन्तज़ार है ! कुदरत बदल गई है खुदा भी बदल गया खुदप...

पार्थ सुनो अब युद्ध करो

इस अन्तर्द्वन्द्व को रूद्ध करो हे पार्थ सुनो अब युद्ध करो ! संलिप्त न होना कर्मो में निज अन्तर्मन भी विदेह रहे कर्तव्य के पथ पर बढ़ता जा खुद पर ना कभी संदेह रहे ले प्रण, हर छड़ इ...
नासमझ थे वो जो हरदम हुक्म देने में लगे थे और हम बस प्यार से ही अर्ज़ करते रह गये गलतफ़ैमी थी की इक दिन हम समझ लेंगे उन्हे जितना सुलझाया उन्हे हम खुद उलझ के रह गए हमको भी अफ़सोस है ...
स्तब्ध कण्ठ बाधित धड़कन उद्विग्न हृदय व्याकुल तन मन काया किंकर्तव्यविमूढ़ हुई असमंजस में सारा कण-कण मानवता सारी छिन्न-भिन्न समरसता के बाकी न चिन्ह जो थे सुचिता के कर्णध...
मजदूरी का पता नहीं पर मजदूर बदल गये हैं अब ये टाई पहने मजदूर कंधे पर भारी बैग लादे पब्लिक बसों के धक्के खाते टारगेट पूरा करने को भागे कोई पीछे कोई आगे बिचारे ये टाई पहने मज़द...

अबकी बार

अबकी बार बदला नहीं बल्कि बदल दो.. उनकी वहियात सोच बात बात वाली धौंस उनके कायर दोस्त उनका आतंकी जोश अबकी बार हमला नहीं बल्कि हलक़ से खींच लो उनकी गंदी ज़बान उनकी आन बान शान उनक...

संविधान

संविधान ! संविधान ! कैसा है तेरा विधान ! लाईन में सबसे पीछे बैठा जो सबसे नीचे पैरों से कुचला जाए बाकी ना उसमे जान संविधान! संविधान! कैसा है तेरा विधान ! हो चाहे कोई जैसा यदि उसके ...

अवैध खनन

थामे कोई बुनियाद को कितने भी जतन से गिरती ही जा रही है ये अवैध खनन से ! वो लूटते ही जा रहे हम लुट रहे बेबस है वास्ता किसे मेरे अधिकार हनन से ! रस्ता बसन्त देख के वापस चला गया पतझड़ नहीं राज़ी हुआ जाने को चमन से ! वो खून का प्यासा बिछाए जा रहा लाशें हम रस्ता ढूँढे कोई मिल जाए अमन से! खैरात का खा के यहाँ बुज़दिल हुई अवाम उम्मीद क्या करें कोई अब अहले वतन से ! कहने को हैं ज़िन्दा मगर ये कब के मर चुके किस काम की दुनियां है इसे ढक दे कफन से ! बासी परंपराओ की ढकोसले बाजी कुछ भी नया बचा नहीं करने को लगन से ! थोड़ा सा फासला नहीं ख़तम हुआ ताउम्र ना हम बढ़े आगे न ही चला गया उनसे !            ● दीपक शर्मा 'सार्थक'

पाप चक्र

ये विज्ञान भी इतनी बुरी बला है ...ये आस्था के पीछे हाथ धोकर पड़ गया है। बिचारे भोले भाले सज्जन टाइप क कमीने व्यक्ति, थोक के भाव में पाप इकट्ठा करके गंगा जी में स्नान करने जा रहे है...

चहरे

उफ्फ़! ये तरह-तरह के चहरे ! हर चहरा, चहरो से जुदा है हर चहरे की अलग अदा है हर चहरे के राज हैं गहरे उफ्फ ! ये तरह-तरह के चहरे ! कुछ चहरे, चहरो को छलते कुछ चहरे हैं रंग बदलते कुछ चहरो पर ल...

महिला/ पुरुष

महिला - मै तो सबरीमाला मन्दिर मे ज़रूर जाऊंगी ! पुरुष - अरे ! लेकिन उस मन्दिर की ऐसी परम्परा है कि उसमे महिलाएं प्रवेश नही करती हैं महिला - नहीं, मै तो ज़रुर अन्दर घुसुंगी...अगर मुझे र...