स्तब्ध कण्ठ बाधित धड़कन
उद्विग्न हृदय व्याकुल तन मन
काया किंकर्तव्यविमूढ़ हुई
असमंजस में सारा कण-कण
मानवता सारी छिन्न-भिन्न
समरसता के बाकी न चिन्ह
जो थे सुचिता के कर्णधार
स्तर गिर के हो गया निम्न
शायद अब ब्रम्ह भी विचलित है
मनु पुत्रों के उत्पातों से
क्या फिर से श्रष्टि को नष्ट करे
जो रचा है अपने हाथो से
कुंठित जिव्हा मायूस नयन
सूखी धरती निर्जीव गगन
विषयों के बीज विषाक्त हुए
बेताल हुआ लयबद्ध सृजन
एक युग सा बीत रहा हर छड़
बिखरे सब बिम्ब हुआ तरपण
करुणा के श्रोत भी सूख गए
कोमलता का हो गया क्षरण
शायद ये नियति प्रकृति की है
हर कृति, विकृति हो जाती है
आयाम बदल कर प्रत्यय का
नव रूप ग्रहण कर लेती है
● दीपक शर्मा 'सार्थक'
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