नासमझ थे वो जो
हरदम हुक्म देने में लगे थे
और हम बस प्यार से ही
अर्ज़ करते रह गये

गलतफ़ैमी थी की इक दिन
हम समझ लेंगे उन्हे
जितना सुलझाया उन्हे
हम खुद उलझ के रह गए

हमको भी अफ़सोस है
उस रोज़ के बर्ताव का
आप ने छिड़का नमक
हम ज़ख्म ढकते रह गए

आप का दिल क्या दुखा
और हाय तौबा मच गई
और हम चुपचाप ही
सब दर्द सहते रह गए

थे वो आमादा बढ़ाने को
बहुत हर बात को
बात ना आगे बढे
हम सोचते ये रह गए

अपने अहसासो को
लफ्ज़ों में कोई कैसे कहे
इसलिये हर बात पे
गर्दन हिलाते रह गए

आप नाजायज़ को जायज़ की
सकल देते रहे
और हम बेबस बने
पहलू बदलते रह गए

छोड़िए हर बात की
तह तक नहीं जाना मुझे
आप समझाते रहे
हम मुस्कुराते रह गए

     ● दीपक शर्मा 'सार्थक'

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