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Showing posts from 2024

आधुनिक मित्र

इक पुराने मित्र से  हम दौड़ कर मिलने चले  पूर्व की ही भांति सोचा  आज फिर मिल लें गले ! चित्त में थे चित्र सारे  मित्र संग जो पल बिताए  मन था पुलकित और  हृदय से हम नहीं फूले समाए ! किन्तु जब हम मित्र के  सानिध्य में पहुचे अचानक  मित्र का था भाव जैसे  जब्त हो उसकी जमानत ! प्रेम आलिंगन को जैसे  हम तनिक आगे बढ़े तो पास आता देख हमको  दो कदम पीछे हटे वो ! हम चकित होकर के बोले  मित्र देखो हम वही हैं  मित्र बोला तुम वही हो  किन्तु अब हम वो नहीं हैं ! मैं अकेला हूं नहीं अब साथ मेरे 'पद' जुड़ा है  ढेर सारे धन के कारण  कद मेरा बेहद बढ़ा है ! और बड़ा मुझसे भी मेरा  मद है जो मुझमें समाया  गर्व है मुझको की मैंने  ढेर सारा यश कमाया ! अब हमारे मित्र बनने  की नहीं हालत तुम्हारी  तुम कहां हो मैं कहां हूं  भिन्न है स्थिति हमारी ! इसलिए ये मित्रता का ढोल ऐसे न बजाओ यूं गले पड़ने को फूहड़ की तरह ऐसे न धावो ! युग नहीं ये मित्रता का स्वार्थ से संबंध सारे अब नहीं केशव सुदामा मित्रता का बिम्ब प्यारे ! इ...

पंचायत सीजन 3 रिव्यू

पंचायत सीजन ३ को रिव्यू करने से पहले उसके एक सीन का जिक्र करना चाहूंगा ! दृश्य कुछ ऐसा है कि पुराने सचिव जी के ट्रांसफर के बाद नया सचिव फुलेरा ग्राम पंचायत में ज्वाइन करने आता है। प्रहलाद जिसे प्यार से विकास प्रहलाद चा बोलता है, वो उस नए सचिव को अपने विशेष फनी अंदाज में भगा देते हैं। इस घटना के बाद बलिया की डीएम प्रधान मंजू देवी एवम् प्रह्लाद को नाराज होकर बुलाती हैं। बहुत सी वार्तालाप के बाद मंजू देवी ऑफिस से उठकर जा रहे प्रह्लाद को टोक कर बोलती हैं, "प्रह्लाद ! सचिव जी(जिनको रोकने के लिए प्रह्लाद ने नए सचिव को धमकाया था) तो वैसे भी चार पांच महीने में जाने ही वाले थे!" प्रह्लाद (जिसका बेटा हाल ही में शहीद हुआ है) मूड कर मंजू देवी को देख कर बोलता है, "तो चार पांच महीने बाद चले जाएं भाभी ! समय से पहले कोई नहीं जाएगा..कोई नहीं मतलब कोई नहीं !" मंजू देवी और डीएम मोहोदया उसका द्रवित चेहरा देखती रह जाती हैं बैक ग्राउंड में हल्की सी करुणा से भरी बांसुरी का साउंड आता है। और यही ये दृश्य खत्म हो जाता है। इस एक ही लाइन में प्रह्लाद अपने अंदर की पीड़ा, और अथाह शोक में डूबी अप...

अहंकार और मूर्खता

आज आप को दो कहानी सुनाता हूं। परेशान न हों,कहानी बहुत छोटी–छोटी सी हैं। इन कहानियों का चुनाव परिणामों से कोई लेना देना नहीं हैं ( हालाकि ये झूठ भी हो सकता है) । इसीलिए बिना समय बरबाद किए कहानी शुरू करते हैं। पहली कहानी – ये बात द्वापर युग की है। बाणासुर नाम का शासक, भगवान शिव का आशीर्वाद पाकर बहुत ही ताकतवर और मतांध हो गया था। भगवान शिव के आशीर्वाद से उसके सहस्त्र ( हजार) हाथ हो गए थे। इसका उसे बहुत ही ज्यादा घमंड था। आगे चलकर उसका भगवान कृष्ण से युद्ध हुआ। इस युद्ध में भगवान ने उसके 996 हाथ काट डाले। बाणासुर की ये दशा देख कर भगवान शिव युद्ध के बीच में आ गए और कृष्ण को रोक दिया। भगवान शिव में कृष्ण से बाणासुर का ऐसा हाल करने का कारण पूछा। कृष्ण ने बताया, इसे अपने सहस्त्र हाथो का बहुत ज्यादा घमंड हो गया था। इसे लगता था की इस धरा में इसे कोई हराने वाला पैदा नहीं। इसीलिए मैंने इसका ये हाल किया। क्युकी मनुष्य का अहंकार ही मेरा भोजन है। मैं अहंकारियो के मद का पान करता हूं। इसके चार हाथ इसलिए छोड़ दिया है क्युकी अब ये मेरे बराबर हो गया है यानी मैं भी चतुर्भज और ये भी चार हाथो वाला हो गया। अह...

आखिरी सलाम हो जाए

बुझी-बुझी सी है शब, एहतराम हो जाए जलाओ दिल हि कि रौशन ये शाम हो जाए ! हुए बरबाद इस क़दर की मिट गई हस्ती इसी ख़ुशी में एक-एक जाम हो जाए ! है हर तरफ मेरी नाकामियो भरे चर्चे इसी बहाने सही कुछ तो नाम हो जाए ! बिछड़ रहे हो जाने कब मिलो फिरसे चलो कहीं तो आखरी सलाम हो जाए ! जो राज़ दफ्न है खोलो न किसी के आगे कहीं न प्यार के किस्से कलाम हो जाए ! करो तबाह किसी को न हद से ज्यादा यूँ कि उसको ज़िन्दगी जीना हराम हो जाए ! जरा देखो तो सियासत का यही मकसद है जो भी आज़ाद है कैसे ग़ुलाम हो जाए !              © दीपक शर्मा 'सार्थक'

प्रेम का प्रारूप

हर दिल में बसता प्यार है ये  सागर में उठे तरंग कई बिखरे हैं इसमें रंग कई कहने के इसके ढंग कई इसमें रहते हैं तंग कई पर जीवन का आधार है ये हर दिल में बसता प्यार है ये ! जलते-बुझते अंगारों सा पतझड के बीच बहारों सा प्रतिपल मजबूत सहारों सा बिन मौसम राग मल्लारों सा दिल में बजती झंकार है ये हर दिल में बसता प्यार है ये ! शब्दों का इसमें काम नहीं इसमें इक पल आराम नहीं इससे बढ कर इल्ज़ाम नहीं फिर भी कुछ कहीं हराम नहीं हर बंधन के उस पार है ये हर दिल में बसता प्यार है ये ! अपनें तक सीमित राज़ यही नव जीवन का आगाज़ यही लाखों संगत का साज़ यही दिल से निकली आवाज यही आनन्दमयी संसार है ये हर दिल में बसता प्यार है ये ! इसकी अविरल सी धारा है उम्मीदों भरा इशारा है नीरसता नहीं गंवारा है मन्दिर मस्ज़िद गुरूद्वारा है गीता कुरान का सार है ये हर दिल में बसता प्यार है ये !                © दीपक शर्मा 'सार्थक'

मदीने की वजह भूल गए

जिंदगी जीते जी , जीने की वजह भूल गए चाक दिल सिल रहे, सीने की वजह भूल गए दर्द ए गम से मिले फुर्सत, गए मैखाने को इस कदर पी लिया, पीने की वजह भूल गए ! मुझे मुजरिम की तरह रोज़ बुलाता मुंसिफ इतना दौड़े कि, सफ़ीने की वजह भूल गए ! जो ये मजदूर हैं दिनभर हैं दिहाड़ी करते मिली मजदूरी, पसीने की वजह भूल गए सिर्फ दाढ़ी को ही वो दीन समझ बैठे जब ऐसा उलझे कि मदीने की वजह भूल गए                      © दीपक शर्मा ’सार्थक’

कच्ची दारू कच्ची वोट

लोकतंत्र को बना के कीचड़ सुअर के जैसे रहें हैं लोट कच्ची दारू..कच्चा वोट पक्की दारू..पक्का वोट मुर्गा दारू..खुल्ला वोट ! जाति कहीं यदि प्रत्याशी की उनसे मेल नहीं खाती मुद्दों पर ही वोट पड़ेगा सोच के नीद नहीं आती जाति उन्हीं की सर्वेसर्वा बाकी सब में खोट ही खोट इक दूजे को रहें हैं नोच जाति ने नाम पे पड़ेगा वोट गर्त में देश, नहीं अफसोस ! सुचिता बैठी सोच रही है कितने लीचड़ हैं ये लोग शर्म बेच के, मर्यादा का गला दिया है खुद ही घोंट था जमीर पहले ही गिरवी बेचा मत, कुछ पाकर नोट नशे में रहते हैं बेहोश देश की नीव रहें हैं खोद फिर नेता का देंगे दोष !           © दीपक शर्मा ’सार्थक’

किसान का दर्द

दर्द किसान का राम ही जाने सब्र का बांध गया है फूट ! बिन मौसम मल्हार गा रहे इंद्र देवता जबसे  वज्रपात ओला बारिश की झड़ी लग गई तबसे फसल बेच, बेटी ब्याहेगा सपने सारे गए हैं टूट  दर्द किसान का राम ही जाने सब्र का बांध गया है फूट (१) औने–पौने भाव बिक गए चना बाजरा तिलहन गिरवी खेत हुआ, खर्चे से व्याकुल हुआ है तन–मन थे किसान, मजदूर हो गए साहूकार रहा है लूट दर्द किसान का राम ही जाने सब्र का बांध गया है फूट (२) खड़ी फसल चर गए जानवर घर ना आया दाना कहीं बाढ़ तो कहीं है सूखा  मुश्किल है सह पाना दुगनी आय हुई खेतिहर की युग का सब से बड़ा है झूठ दर्द किसान का राम ही जाने सब्र का बांध गया है फूट (३)          ©दीपक शर्मा ’सार्थक’

रौशनी से नहाए हुए हैं

हक़ीकत से नज़रें चुराए हुए हैं ज़खम हर किसी से छुपाए हुए हैं जो हमदर्द बनकर चले साथ मेरे है सच हम उन्हीं के सताए हुए हैं ये खंडहर कभी थे मीनार-ए-मोहब्बत सितमग़र के हाथो गिराए हुए हैं बहुत ही घिनौनी हक़ीकत है जिनकी शराफ़त के चहरे लगाए हुए हैं नहीं है वज़न जिनकी बातों में एकदम वही शोर तबसे मचाए हुए हैं मदद में जो उनकी, था आया उसे ही बली का वो बकरा बनाए हुए हैं कभी सूरत-ए-हाल बदलेगा इक दिन उसी के ही सपने सजाए हुए हैं भले दर्द सह के जले बनके ’दीपक’ मगर रौशनी से नहाए हुए हैं                     © दीपक शर्मा ’सार्थक’

भवसागर भी तर जायेंगे

भवसागर भी तर जाएंगे  यदि आप हमें मिल जाएंगे लम्हों की बात नहीं है ये आजीवन तुमको पूजा है हो भीड़ भले जग में कितनी प्रतिपल तुमको ही खोजा है जितने भी घाव हृदय के हैं पाकर तुमको सिल जाएंगे भवसागर भी तर जाएंगे  यदि आप हमें मिल जाएंगे (१) जो चित्र बसा चित में मेरे हर दृष्टि में वो ही दिखते हैं इन गीत गज़ल और छंदों में अभिव्यक्त तुम्हें ही करते हैं हर पुष्प हृदय के उपवन में तुम देखो बस खिल जाएंगे भवसागर भी तर जाएंगे यदि आप हमें मिल जाएंगे (२)             © दीपक शर्मा ’सार्थक’

दधीचि और दान

भारत सदा से ही ऋषि मुनियों दार्शनिकों और विद्वानों की भूमि रही है। इस बात को ऐसे भी समझ सकते हैं कि जब पूरा यूरोप, जो खुद को आधुनिक सभ्यता के विकास का इंजन समझ रहा है, वो आज से 2500 साल पहले जब मात्र पेट भरने के लिए दर–दर भटकते खानाबदोश वाला जीवन जी रहा था। तब भारत में वेदों के साथ–साथ चार्वाक, न्याय,जैन, बौद्ध जैसे दर्शनों का उद्भव हो चुका था। इसी वैदिक परंपरा में आज के उत्तर प्रदेश के जिला सीतापुर का पवित्र नैमिषारण्य स्थान अट्ठासी हजार ऋषि मुनियों की तपस्थली हुआ करता था। और इसी के पास स्थित मिश्रिख में महर्षि दधीचि का आश्रम था। एक ऐसे महर्षि जो त्याग और दान पर्याय हो गए।जिन्होंने लोकहित में जीते जी अपनी अस्थियों तक का दान कर दिया।  महर्षि दधीचि को समझने से पहले ये समझना जरूरी है कि आखिर दान क्या है ? इसे महाभारत काल की एक छोटी सी कहानी से समझते हैं। कर्ण के दानवीर होने का यश चारो ओर फैला था। अर्जुन को इससे ईर्ष्या हुई, और एक दिन वो कृष्ण से बोले, “प्रभु! लोग बिना मतलब ही कर्ण के दानवीर होने का यशगान करते फिरते हैं, जबकि मेरे बड़े भाई सम्राट युधिष्ठिर कर्ण से कई गुना ज्यादा रोज द...

दूरदर्शी बजट

इस बजट की सबसे मुख्य बात ये बहुत ही दूरदर्शी बजट है। बजट इतना दूरदर्शी है की मध्यवर्ग को इसके दूर से ही दर्शन हो रहे हैं। ये बजट इसीलिए दूरदर्शी है क्योंकि बजट बनाने वालों को पहले से ही भरोसा है कि वो आम चुनाव जीत रहे हैं।इसीलिए जो आम आदमी को दूर–दूर तक समझ में न आए, ऐसा दूरदर्शी बजट लेकर आए हैं। बजट इसीलिए भी दूरदर्शी बनाया गया है ताकि सुदूर अपने फाइव स्टार होटलनुमा ऑफिस में बैठ के पूंजीवादी विशेषज्ञ, बजट के दूरदर्शी होने की लम्बी–लम्बी बकैती झाड़ सकें। ऐसा माना जाता है कि मध्यवर्ग बड़ा दूरदर्शी होता है(कम से कम खयाली पुलाव तो पकाता ही है)इसीलिए खास कर मध्यवर्ग के लिए दूरदर्शी बजट बनाया गया है ताकि वो मुंगेरी लाल के हसीन सपने देख सके। बजट की दूरदर्शिता का इसी से अंदाजा लगा लीजिए कि इस बजट में जिनको कुछ नहीं मिला है वो तो चुप हैं ही, लेकिन जिन्हें मिला है उनकी अभी तक समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर उनको मिला क्या है।  बजट का दूरदर्शी होना इसीलिए भी जरूरी है ताकि आम लोग अपनी प्रत्यक्ष समस्याओं जैसे गरीबी, महंगाई, टैक्स के नाम पर कटती जेब के बारे में न सोचें बल्कि ये सोचे की हजार साल ब...

एक अकेला मै

लाखों परंपराएं जग में एक अकेला हैं  सोचा था कि रूढ़िवादिता से बच जाऊंगा दकियानूसी सोच के हत्थे कभी न आऊंगा पहली बॉल पे कैच हुआ कुछ ऐसा खेला मैं लाखों परंपराएं जग में एक अकेला मैं ! मौलिकता का अंकुर उर से निकला था जैसे भेंड़ चाल चलने वालों ने निगल लिया वैसे तर्कहीन एवरेस्ट के जैसे बस एक ढेला मैं लाखों परंपराएं जग में एक अकेला मैं ! घिसी–पिटी परिपाटी जैसे  रट्टू तोता वो सड़ी व्यवस्था को सदियों से सिर पर ढोता वो ईश्वर जाने इनकी संगत कैसे झेला मैं लाखों परंपराएं जग में एक अकेला मैं !             © दीपक शर्मा ’सार्थक’

प्रेम का पूर्वाग्रह

प्रेम की वर्षा से बच करके चलने वाला छाता तुम हो प्रेम के पथ पर, पग में सबके चुभने वाला कांटा तुम हो ! प्रेम को लेकर भ्रामक खबरें सदियों से फैलाया है प्रेम कठिन है, प्रेम असंभव सबको यही बताया है प्रेम की गरदन काट रहे जो वो बल्लम और काता तुम हो प्रेम के पथ पर, पग में सबके चुभने वाला कांटा तुम हो !  (१) ज़हर तुम्हारे अंदर है और प्रेम तुम्हे विष लगता है दूषित कुंठित सोच जहां हो कैसे प्रेम पनपता है ? प्रेम के गाल पे पड़ने वाला अवसरवादी चाटा तुम हो प्रेम के पथ पर, पग में सबके चुभने वाला कांटा तुम हो ! (२) मनगढ़ंत गढ़ डाली कितनी प्रेम की तुमने परिभाषा कहीं बताया ’आग का दरिया’ कहीं लिखा बस अभिलाषा प्रेम पे ऐसे भाषण देते  जैसे भाग्यविधाता तुम हो प्रेम के पथ पर, पग में सबके चुभने वाला कांटा तुम हो ! (३) सच पूछो तो प्रेम से कोमल प्रेम से सुंदर क्या होगा प्रेम में होना, प्रेम का होना प्रेम सा चिंतन क्या होगा  प्रेम का मौन नहीं समझा जो वो फैला सन्नाटा तुम हो प्रेम के पथ पर, पग में सबके चुभने वाला कांटा तुम हो ! (४)                © दीपक शर्मा ’स...