आखिरी सलाम हो जाए

बुझी-बुझी सी है शब, एहतराम हो जाए
जलाओ दिल हि कि रौशन ये शाम हो जाए !

हुए बरबाद इस क़दर की मिट गई हस्ती
इसी ख़ुशी में एक-एक जाम हो जाए !

है हर तरफ मेरी नाकामियो भरे चर्चे
इसी बहाने सही कुछ तो नाम हो जाए !

बिछड़ रहे हो जाने कब मिलो फिरसे
चलो कहीं तो आखरी सलाम हो जाए !

जो राज़ दफ्न है खोलो न किसी के आगे
कहीं न प्यार के किस्से कलाम हो जाए !

करो तबाह किसी को न हद से ज्यादा यूँ
कि उसको ज़िन्दगी जीना हराम हो जाए !

जरा देखो तो सियासत का यही मकसद है
जो भी आज़ाद है कैसे ग़ुलाम हो जाए !

             © दीपक शर्मा 'सार्थक'

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