पंचायत सीजन 3 रिव्यू
दृश्य कुछ ऐसा है कि पुराने सचिव जी के ट्रांसफर के बाद नया सचिव फुलेरा ग्राम पंचायत में ज्वाइन करने आता है। प्रहलाद जिसे प्यार से विकास प्रहलाद चा बोलता है, वो उस नए सचिव को अपने विशेष फनी अंदाज में भगा देते हैं।
इस घटना के बाद बलिया की डीएम प्रधान मंजू देवी एवम् प्रह्लाद को नाराज होकर बुलाती हैं।
बहुत सी वार्तालाप के बाद मंजू देवी ऑफिस से उठकर जा रहे प्रह्लाद को टोक कर बोलती हैं, "प्रह्लाद ! सचिव जी(जिनको रोकने के लिए प्रह्लाद ने नए सचिव को धमकाया था) तो वैसे भी चार पांच महीने में जाने ही वाले थे!"
प्रह्लाद (जिसका बेटा हाल ही में शहीद हुआ है) मूड कर मंजू देवी को देख कर बोलता है, "तो चार पांच महीने बाद चले जाएं भाभी ! समय से पहले कोई नहीं जाएगा..कोई नहीं मतलब कोई नहीं !"
मंजू देवी और डीएम मोहोदया उसका द्रवित चेहरा देखती रह जाती हैं बैक ग्राउंड में हल्की सी करुणा से भरी बांसुरी का साउंड आता है। और यही ये दृश्य खत्म हो जाता है।
इस एक ही लाइन में प्रह्लाद अपने अंदर की पीड़ा, और अथाह शोक में डूबी अपनी काया को व्यक्त कर देता है।
कोई ताम–झाम नहीं, कोई चीख पुकार नहीं, कुछ भी हिंदी फिल्मों की तरह जब तक उबकाई न आ जाए, इतने लंबे-लंबे डायलॉग नहीं। बस एक लाइन कि “समय से पहले कोई नहीं जाएगा!" उस पूरे दृश्य के साथ-साथ उसको देख रहे दर्शक के हृदय को गमगीन और करुणा से भर देता है।
और यही पंचायत वेब सीरीज का सार है। यहां कुछ भी बड़ा या भव्य दिखाने के चक्कर में कोई अनावश्यक फूहड़पना या नौटंकी नहीं दिखाई गई है।
इसका हर एक चरित्र यथार्थपूर्ण और धरती से जुड़ा हुआ है।
इसी तरह सचिव जी और रिंकी के बीच के पनपते प्रेम की बात करें तो यहां भी बस पानी की टंकी पर एक साथ बैठ के चाय पीना हो या कि कार की पिछली सीट पर एक साथ बस बैठने भर के एक्साइटमेंट के माध्यम से जाड़े की गुनगुनी धूप में बैठने की तरह गुदगुदा कर रख देती है। यहां भी कोई प्यार मोहब्बत के लंबे और बोझिल संवाद नहीं हैं। कितनी सरलता से एक हल्की छुअन की तरह सारे भावो को व्यक्त कर दिया गया है।
कहानी लेखन के साथ ही संवाद लेखन पर भी उतना ही ध्यान दिया गया है, जैसे विनोद द्वारा विधायक जी से बोला गया संवाद , "सही बात है विधायक जी, कुत्ता मार कर खाने का आरोप लग जाए तो ब्लेड प्रेशर बढ़ ही न जाएगा जी!"
इसका हर एक चरित्र अपने आप में अनूठा है, लेकिन फिर वही बात दोहराना चाहूंगा, ये अनूठापन कुछ विशेष करने के कारण नहीं हुआ है, बस चरित्र और उनकी भाषा ऐसी रखी गई है जैसे वो कोई आप के आस-पास का व्यक्ति हो।
और इससे ये भी पता चलता है कि आज भी जो सरल है वही सुंदर है, कुछ भी गहरी बात दिखाने के लिए जरूरी नहीं की संवाद को बहुत ही रहस्यमय बनाया जाए, वो सरल और सहज तरीके से भी दिखाया जा सकता है।
आखिरी एपिसोड की अंत वाली विधायक जी और सचिव जी के लोगो के बीच की चप्पल, लात घूंसे और गन्ने वाली लड़ाई देख के आप हंसते-हंसते पेट पकड़ लेंगे। खास कर विकास को हिंदी फिल्मों के हीरो की तरह हाथ पैर घुमाते देख कर।
बमबहादुर, बुटकुन जैसे ग्रामीण नाम हो या कि गांव की इज्जत को लेकर विधायक की बंदूकों के आगे गांव वालों का इकट्ठा होकर लाठी पीटना हो, आप को यूपी बिहार की जड़ों से जोड़ देता है। दामाद जी का नया स्वैग देखते बनता है। प्रधान मंजू देवी और भी सशक्त नजर आ रही हैं। और मनोज तिवारी द्वारा गाया "हिंद के सितारा" सॉन्ग आप को पूरब की सोंधी मेट्टी की खुशबू से भर देता है।
कुल मिलाकर पंचायत ग्रामीण जीवन से जुड़े हर पहलू वो चाहे सामाजिक हो या राजनैतिक उठापटक हो, को बखूबी अपने अंदर समाहित करने में कामयाब नजर आती है।
इसके तीनों सीजन आप को हंसाएंगे, गुदगुदाएंगे, जरूरत पड़ने पर आपकी आंखों को नम कर देंगे।
लेकिन यदि इसकी व्यंजना इसका हास्य इसकी सरलता आपको एक बार समझ में आ गई तो बिना देखे रह नही पाएंगे।
© दीपक शर्मा ’सार्थक’
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