रौशनी से नहाए हुए हैं

हक़ीकत से नज़रें चुराए हुए हैं
ज़खम हर किसी से छुपाए हुए हैं

जो हमदर्द बनकर चले साथ मेरे
है सच हम उन्हीं के सताए हुए हैं

ये खंडहर कभी थे मीनार-ए-मोहब्बत
सितमग़र के हाथो गिराए हुए हैं

बहुत ही घिनौनी हक़ीकत है जिनकी
शराफ़त के चहरे लगाए हुए हैं

नहीं है वज़न जिनकी बातों में एकदम
वही शोर तबसे मचाए हुए हैं

मदद में जो उनकी, था आया उसे ही
बली का वो बकरा बनाए हुए हैं

कभी सूरत-ए-हाल बदलेगा इक दिन
उसी के ही सपने सजाए हुए हैं

भले दर्द सह के जले बनके ’दीपक’
मगर रौशनी से नहाए हुए हैं 

                   © दीपक शर्मा ’सार्थक’

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