दधीचि और दान
इसी वैदिक परंपरा में आज के उत्तर प्रदेश के जिला सीतापुर का पवित्र नैमिषारण्य स्थान अट्ठासी हजार ऋषि मुनियों की तपस्थली हुआ करता था। और इसी के पास स्थित मिश्रिख में महर्षि दधीचि का आश्रम था।
एक ऐसे महर्षि जो त्याग और दान पर्याय हो गए।जिन्होंने लोकहित में जीते जी अपनी अस्थियों तक का दान कर दिया।
महर्षि दधीचि को समझने से पहले ये समझना जरूरी है कि आखिर दान क्या है ? इसे महाभारत काल की एक छोटी सी कहानी से समझते हैं।
कर्ण के दानवीर होने का यश चारो ओर फैला था। अर्जुन को इससे ईर्ष्या हुई, और एक दिन वो कृष्ण से बोले, “प्रभु! लोग बिना मतलब ही कर्ण के दानवीर होने का यशगान करते फिरते हैं, जबकि मेरे बड़े भाई सम्राट युधिष्ठिर कर्ण से कई गुना ज्यादा रोज दान करते हैं।“
भगवान कृष्ण मुस्कुराए और बोले,“ भले ही सम्राट युधिष्ठिर कितना भी दान करते हो लेकिन इस समय इस धरती पर कर्ण से बड़ा कोई दूसरा दानी नहीं।"
अर्जुन को अपनी बात से संतुष्ट होते न देख कर कृष्ण ने इसे साबित करने के लिए ब्रह्मण का भेष रख कर अर्जुन को साथ लेकर युधिष्ठिर के पास पहुंचे और उनसे चंदन की सूखी लकड़ी यज्ञ करने के लिए मांगी। उससे पहले उन्होंने अपनी कृपा से इतनी बारिश करा दी की सारे जंगल जलमग्न हो गए।
युधिष्ठिर ने ब्राह्मण भेषधारी कृष्ण से हाथ जोड़ के क्षमा मांग ली और कहा, प्रभु, बारिश के कारण सारी लकड़ियां भीग गई हैं, इसीलिए आपको सूखी चंदन की लकड़ी देने में असमर्थ हूं।“
फिर वो दोनो लोग उसी भेष में कर्ण के पास पहुंच कर वही इच्छा जाहिर की। कर्ण ने बिना एक छड़ विलंब किए अपना धनुष बाण निकाला और अपने महल के चौखट, दरवाजे, खंभे( जो चंदन की लकड़ी से बने थे) तोड़ कर उन दोनो को दे दिया।
बाद में कृष्ण, अर्जुन को समझाते हुए बोले, “देखा अर्जुन! युधिष्ठिर सोच समझ कर अपना अच्छा बुरा विचार करके दान करते हैं, जबकि कर्ण स्वभाव से दानी है। कर्ण इसलिए दान नहीं करता की इससे उसे पुण्य मिलेगा या स्वर्ग की प्राप्ति होगी। उसके दान के अंदर अपना कोई स्वार्थ नहीं निहित है, वो तो बस दानी है। उसके सामने कोई हाथ फैलाए तो वो कुछ भी दे सकता है।
महर्षि दधीचि भी उसी तरह के दानी थे। शास्त्रों ऐसा वर्णित है की उनमें लेशमात्र भी अहंकार नहीं था। ऐसा होना स्वाभाविक भी है क्योंकि अहंकारी व्यक्ति बाहर से चाहे जितना मजबूत होने का दंभ करे परंतु अंदर से वो बहुत कमजोर होता है।कभी–कभी अहंकार का सबसे खतरनाक रूप भी देखने को मिलता है जिसमे किसी को इस बात का अहंकार हो जाता है कि उसके अंदर अहंकार नहीं है। ये व्यक्ति को आत्मचिंतन का भी मौका नहीं देता। जबकि महर्षि दधीचि स्वभाव से बहुत ही सरल और पुण्यात्मा थे। उन्होंने घोर तप के बल पर स्वयं के शरीर को वज्र जैसा बना लिया था। उनमें जरा भी अहंकार और स्वार्थपरता नहीं थी।
पुराणों में ऐसा वर्णन मिलता है की देवगुरु बृहस्पति के नाराज हो जाने के कारण इंद्र ने ऋषि त्वष्टा के पुत्र विश्वदेव को अपना पुरोहित बनाया। विश्वगुप्त इंद्र के प्रति ईमानदार नहीं थे।उन्होंने चुपके से यज्ञ में असुरों के नाम की भी आहुति दे दी। इंद्र को जब ये पता चला तो क्रोध में आकर उन्होंने विश्वदेव सिर काट दिया।त्वष्टा को इंद्र के इस कृत्य पर बहुत क्रोध आया और उन्होंने महायज्ञ करके वृत्रासुर नामक असुर को उत्पन्न किया। कहा जाता है कि यज्ञ की अग्नि से उत्पन्न होने के कारण वृत्रासुर को मरना असंभव हो गया। देवताओं के कोई भी अस्त्र–शस्त्र उसके आगे बेकार हो गए। इस तरह वृत्रासुर ने स्वर्ग को जीत कर इंद्र को भागने पर मजबूर कर दिया। त्रिलोक में हाहाकार मच गया।इंद्र आदि देवता दर–दर भटक रहे थे। ये सभी अपनी पीड़ा लेकर भगवान शिव के पास पहुंचे। महादेव ने उन्हें रास्ता दिखाया कि महर्षि दधीचि जिन्होंने घोर तप करके अपनी अस्थियों को वज्र के समान मजबूत बना लिया है, यदि उनकी अस्थियों के अस्त्र बनाया जाए तो वृत्रासुर का वध संभव है। सभी देवता महर्षि के पास अपनी वेदना लेकर आए। महर्षि ने बिना किसी हिचकिचाहट के अपनी अस्थियां देना स्वीकार कर लिया। वो भी उस इंद्र के लिए जिन्होंने कई मौकों पर उनका उपहास किया था और यहां तक उनको अपने स्वार्थ के लिए मारने की कोशिश भी की थी।लेकिन लोक कल्याण के आगे महर्षि दधीचि ने अपने जीवन का कोई महत्व नहीं आंका।महर्षि दधीचि अनन्य शिव भक्त थे। उनके आराध्य भी जनकल्याण के लिए समुद्र से निकला विष पी गए थे। इसीलिए उनके मन में भी जनकल्याण के लिए अपने प्राणों की आहुति देने में कोई संशय नहीं था। वैसे भी संशय के साथ दिया गया दान, दान नहीं होता।
उनकी अस्थियों से इंद्र के वज्र सहित पिनाक , सारंग और गांडीव जैसे महान धनुष बनाए गए जिनसे आगे चलकर बड़े असुरों और राक्षसों का वध किया गया। पिनाक से भगवान शिव ने त्रपुरासुर का भी वध किया था। ये वही धनुष था जिसे सीता स्वयंवर में बड़े–बड़े वीर हिला तक नहीं पाए थे। सारंग से ही भगवान राम ने रावण का वध किया था।
आधुनिक पूंजीवादी और कार्पोरेट कल्चर वाले दौर में जहां स्वार्थपरता चरम पर है, भाई–भाई का गला काटने से नहीं चूक रहा है। जहां सारे नाते रिश्ते संबंध केवल स्वार्थ पर आधारित हैं ऐसे में महर्षि दधीचि के त्याग को समझना भी कठिन है। आधुनिक समय में दान देने का तरीका भी बहुत गजब का है। सर्दी में मरते गरीब को एक कम्मल देने के लिए दस लोग फोटो खिचाएंगे। दान भी अपने स्वार्थ के लिए दिया जा रहा है। गरीब को वोट के लालच में दान दिया जाता है। ईश्वर के नाम पर भी ऐसे मठाधीशों को दान देंगे, जो करोड़ों रूपये के मालिक हैं। दान भी ऐसे देंगे जैसे ईश्वर को अपनी सुरक्षा और आवश्यकता पूरी करने के लिए हफ्ता दे रहे हों। स्वार्थपरता का जाल सत्कर्मों को निगलता जा रहा है। महर्षि दधीचि जैसा दूसरे के हित के लिए सर्वोच्च बलिदान दे देना आधुनिक पीढ़ी को अचरज में डाल देता है।
लेकिन इतिहास साक्षी है इस संसार में उन्हीं को याद किया जाता है जिन्होंने त्याग किया। जो मात्र अपने स्वार्थ के लिए जिए, उनको कोई नहीं जानता।
राम महान हुए क्योंकि उन्होंने अपने पिता के वचन के लिए अपना सब कुछ त्याग दिया।
महाराज हर्षवर्धन को प्रयाग में अपना सब कुछ दान करने के लिए याद किया जाता है।
भामाशाह ने राणा प्रताप को अपना धन दान देने के लिए आज भी याद किया जाता है।
स्वार्थियो का जीवन बस उनके जीवित रहने भर का होता है। इतिहास में उनका कोई स्थान नहीं होता। उनके मरते ही उनको समाज भूल जाता है।
महर्षि दधीचि ने दान का प्रतिमान स्थापित किया है। जहां ’परिहित सरिस धर्म नहिं भाई’ का भाव है। उनके जीवन से सीखने को मिलता है कि योग और तप से अपना शरीर वज्र ऐसा मजबूत बनाया जा सकता है और जरूरत पड़ने पर लोककल्याण के लिए उसका त्याग भी किया जा सकता है।
इसी बलिदान को ध्यान में रखकर देश के पूर्व प्रधानमंत्री पंडित अटल बिहारी वाजपेई ने अपनी कविता में कहा था–
आहुति बाकी यज्ञ अधूरा
अपनों के विघ्नों ने घेरा
अंतिम जय का वज़्र बनाने-
नव दधीचि हड्डियां गलाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएँ।
अपनों के विघ्नों ने घेरा
अंतिम जय का वज़्र बनाने-
नव दधीचि हड्डियां गलाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएँ।
– दीपक शर्मा ’सार्थक’
प्रा वि अभनापुर
वि क्षे रामपुर मथुरा
जिला सीतापुर
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