आधुनिक मित्र
हम दौड़ कर मिलने चले
पूर्व की ही भांति सोचा
आज फिर मिल लें गले !
चित्त में थे चित्र सारे
मित्र संग जो पल बिताए
मन था पुलकित और
हृदय से हम नहीं फूले समाए !
किन्तु जब हम मित्र के
सानिध्य में पहुचे अचानक
मित्र का था भाव जैसे
जब्त हो उसकी जमानत !
प्रेम आलिंगन को जैसे
हम तनिक आगे बढ़े तो
पास आता देख हमको
दो कदम पीछे हटे वो !
हम चकित होकर के बोले
मित्र देखो हम वही हैं
मित्र बोला तुम वही हो
किन्तु अब हम वो नहीं हैं !
मैं अकेला हूं नहीं अब
साथ मेरे 'पद' जुड़ा है
ढेर सारे धन के कारण
कद मेरा बेहद बढ़ा है !
और बड़ा मुझसे भी मेरा
मद है जो मुझमें समाया
गर्व है मुझको की मैंने
ढेर सारा यश कमाया !
अब हमारे मित्र बनने
की नहीं हालत तुम्हारी
तुम कहां हो मैं कहां हूं
भिन्न है स्थिति हमारी !
इसलिए ये मित्रता का
ढोल ऐसे न बजाओ
यूं गले पड़ने को
फूहड़ की तरह ऐसे न धावो !
युग नहीं ये मित्रता का
स्वार्थ से संबंध सारे
अब नहीं केशव सुदामा
मित्रता का बिम्ब प्यारे !
इसलिए फूटो यहां से
तुम नहीं हो मित्र मेरे
मैं प्रकाशित पुंज
तुम ठहरे निपट गहरे अंधेरे !
©️ दीपक शर्मा 'सार्थक'
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