कच्ची दारू कच्ची वोट

लोकतंत्र को बना के कीचड़
सुअर के जैसे रहें हैं लोट
कच्ची दारू..कच्चा वोट
पक्की दारू..पक्का वोट
मुर्गा दारू..खुल्ला वोट !

जाति कहीं यदि प्रत्याशी की
उनसे मेल नहीं खाती
मुद्दों पर ही वोट पड़ेगा
सोच के नीद नहीं आती
जाति उन्हीं की सर्वेसर्वा
बाकी सब में खोट ही खोट
इक दूजे को रहें हैं नोच
जाति ने नाम पे पड़ेगा वोट
गर्त में देश, नहीं अफसोस !

सुचिता बैठी सोच रही है
कितने लीचड़ हैं ये लोग
शर्म बेच के, मर्यादा का
गला दिया है खुद ही घोंट
था जमीर पहले ही गिरवी
बेचा मत, कुछ पाकर नोट
नशे में रहते हैं बेहोश
देश की नीव रहें हैं खोद
फिर नेता का देंगे दोष !

          © दीपक शर्मा ’सार्थक’




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