मदीने की वजह भूल गए

जिंदगी जीते जी , जीने की वजह भूल गए
चाक दिल सिल रहे, सीने की वजह भूल गए

दर्द ए गम से मिले फुर्सत, गए मैखाने को
इस कदर पी लिया, पीने की वजह भूल गए !

मुझे मुजरिम की तरह रोज़ बुलाता मुंसिफ
इतना दौड़े कि, सफ़ीने की वजह भूल गए !

जो ये मजदूर हैं दिनभर हैं दिहाड़ी करते
मिली मजदूरी, पसीने की वजह भूल गए

सिर्फ दाढ़ी को ही वो दीन समझ बैठे जब
ऐसा उलझे कि मदीने की वजह भूल गए

                     © दीपक शर्मा ’सार्थक’








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