एक अकेला मै

लाखों परंपराएं जग में
एक अकेला हैं 

सोचा था कि रूढ़िवादिता
से बच जाऊंगा
दकियानूसी सोच के हत्थे
कभी न आऊंगा
पहली बॉल पे कैच हुआ
कुछ ऐसा खेला मैं
लाखों परंपराएं जग में
एक अकेला मैं !

मौलिकता का अंकुर उर से
निकला था जैसे
भेंड़ चाल चलने वालों ने
निगल लिया वैसे
तर्कहीन एवरेस्ट के जैसे
बस एक ढेला मैं
लाखों परंपराएं जग में
एक अकेला मैं !

घिसी–पिटी परिपाटी जैसे
 रट्टू तोता वो
सड़ी व्यवस्था को सदियों से
सिर पर ढोता वो
ईश्वर जाने इनकी संगत
कैसे झेला मैं
लाखों परंपराएं जग में
एक अकेला मैं !

            © दीपक शर्मा ’सार्थक’




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