प्रेम का प्रारूप
सागर में उठे तरंग कई
बिखरे हैं इसमें रंग कई
कहने के इसके ढंग कई
इसमें रहते हैं तंग कई
पर जीवन का आधार है ये
हर दिल में बसता प्यार है ये !
जलते-बुझते अंगारों सा
पतझड के बीच बहारों सा
प्रतिपल मजबूत सहारों सा
बिन मौसम राग मल्लारों सा
दिल में बजती झंकार है ये
हर दिल में बसता प्यार है ये !
शब्दों का इसमें काम नहीं
इसमें इक पल आराम नहीं
इससे बढ कर इल्ज़ाम नहीं
फिर भी कुछ कहीं हराम नहीं
हर बंधन के उस पार है ये
हर दिल में बसता प्यार है ये !
अपनें तक सीमित राज़ यही
नव जीवन का आगाज़ यही
लाखों संगत का साज़ यही
दिल से निकली आवाज यही
आनन्दमयी संसार है ये
हर दिल में बसता प्यार है ये !
इसकी अविरल सी धारा है
उम्मीदों भरा इशारा है
नीरसता नहीं गंवारा है
मन्दिर मस्ज़िद गुरूद्वारा है
गीता कुरान का सार है ये
हर दिल में बसता प्यार है ये !
© दीपक शर्मा 'सार्थक'
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