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Showing posts from February, 2023

कहानी एक क्लास की

प्राइमरी के बच्चों की ये आदत होती है, अपनी कॉपी पर काम लेने के लिए उनमें होड़ सी लग जाती है। कॉपी पर शिक्षक द्वारा काम मिल जाने पर उनको उतनी ही प्रसन्नता होती है जितनी किसी जन्मजात ठेकेदार को उसके मनपसंद टेंडर की कॉपी मिलने पर होती है। वो बात अलग है की कॉपी पर मिले उस काम को गिनती के बच्चे करते हैं, बाकी उसे झोले में डालकर सट्टा गुट्टा खेलने में व्यस्त हो जाते हैं। ऐसी ही कॉपियों की सुनामी से उबर कर( उनपर काम देकर) क्लास की चेयर पर पीछे की ओर गर्दन झुकाकर मैं सुस्ताने लगा। ऋतु बदल रही थी।जाड़ा गर्मी से ठिठुर कर भाग रहा था। और धूप पूरे शबाब पर थी। इसलिए प्यास लगने पर मैंने अपनी क्लास 2 के एक बच्चे आलोक से कहा, "आलोक ! जाओ ऑफिस में मेरी पानी की बॉटल रखी है, उसे उठा लाओ!" आलोक दुबला पतला पर पढ़ने में तेज बच्चा था, वो मेरी हर मानता भी था। अतः मेरी ये बात सुनकर जोश में उठकर खड़ा हो गया, और ऑफिस की तरफ जाने लगा। लेकिन अचानक पता नहीं क्या हुआ वो अपनी जगह ठिठक कर खड़ा हो गया। फिर वो मेरी तरफ देखने लगा।  मैंने पूछा, "क्या हुआ.. जाओ बॉटल लेकर आओ!" अचानक उसका चेहरा भाव शून्य ह...

सब्स्टीट्यूट

कभी किसी रोज अचानक कोई मिल जाता है बिना किसी प्रयास के बिना किसी प्लानिंग के अंजाने में ही सही उसका वास्तविक स्वरूप, हृदय के अंतःतल में बस जाता है बिना कोई शोर के बिना किसी हलचल के लेकिन नहीं समझते उसकी अहमियत अहम में खो देते हैं  दिखाकर बचानका सा  और बेहूदा सा अपना एटीट्यूड  उसके बाद उम्र के उस मोड़ से लेकर उम्र के आखरी छोर तक पागलों की तरह, हर किसी में ढूढते फिरते हैं, बस उसी का सब्स्टीट्यूट !               ©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’
तुम लकड़ी मे माचिस दिखाकर  चाहती हो, आग न लगे तुम अंधेरे में दीपक जलाकर चाहती हो, प्रकाश न रहे ! तुम कनखियों से देखकर चाहती हो, मुझे इसका आभास न रहे तुम प्रतिपल पास रहकर चाहती हो, मुझे इसका अहसास न रहे ! तुम ये चाहती हो की मैं तुमको चाहूं लेकिन ये चाहत तुमको न दिखाऊं  तुम सब कुछ चाहते हुए, चाहती हो मैं कोई भी बात आगे न बढ़ाऊं ! कभी–कभी लगता है मुझे सब पता है कि तुम क्या चाहती हो  वहीं दूसरे पल संशय से भर जाता हूं कि भगवान जाने तुम क्या चाहती हो !                    ©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’

मेरे पसंदीदा रचनाएं

अपने पसंद की रचनाओं पर एक विशेष श्रृंखला मैं लिखना तो बहुत दिनों से चाह रहा था, लेकिन कुछ कारणों या कह ली जिए अंदर के आलस्य के कारण नहीं लिख पा रहा था। वैसे भी मेरे अंदर का साहित्यकार, नेटफ्लिक्स और एमेजॉन प्राइम रूपी राहु से ग्रस्त हो गया था। लेकिन ये तो अच्छा है की ग्रहण बहुत दिनो का नहीं होता। इसलिए पुनः अपने कुछ पसंदीदा साहित्यकारों की कुछ विशेष रचनाएं जो मुझे बहुत पसंद हैं वो आपके सम्मुख लेकर लेकर उपस्थित हूं।  अब जब पसंद की बात चल ही निकली है तो हजारों साहित्य प्रेमियों की तरह मुझे भी महाप्राण निराला की रचनाएं बहुत पसंद हैं। निराला का लेखन अद्भुत है। उनका साहित्य, स्थापित्य मान्यताओं से जकड़े अंतर्मन को झझकोर कर रख देता है। वैसे तो उनकी सभी रचनाएं अपने आप में एक विश्वविद्यालय समेटे हैं। उनमें से कोई एक चुनना बहुत कठिन है। लेकिन फिर भी मैं उनकी प्रसिद्ध रचना ’कुकुरमुत्ता’ को चुनता हूं। और उस रचना का वो हिस्सा जिसमे वो कुकुरमुत्ता, गुलाब को संबोधित कर रहा है, मेरे दिल के बहुत करीब है। वो हिस्सा कुछ इस तरह है– “अबे , सुन बे, गुलाब, भूल मत जो पायी खुशबु, रंग-ओ-आब, खून चूसा खाद का...

फूहड़ भीड़

जो कभी मशहूर थे, दिलकश अदाओं के लिए आज फूहड़ भीड़ की महफिल में खोकर रह गए ! मुद्दतों जिस ख्वाब की तामीर में उलझे रहे ख्वाब तब पूरा हुआ जब खाक बनकर रह गए ! दर्द का सैलाब ये सब कुछ डुबो देता मगर रिस के आखों में उतर के अश्क बनकर बह गए ! गुफ्तगू किस काम की जिसमें नहीं शिकवा गिला हर बार की तरह वही, हम सुन लिए, वो कह गए ! झूठ के बाजार में व्यापार सच का चल रहा  सच अगर बोला तो पीछे हाथ धोकर पड़ गए ! दे रहे खुद को दिलासा जुर्म जो खुद पर हुए हालात से मजबूर हैं बस इसलिए हम सह गए ! हम समझते थे जिन्हे मजबूत सी बुनियाद अपनी वक्त की ठोकर लगी वो भरभराकर ढह गए ! इंतहा की हद से आगे हिज्र में बैठे थे जिनकी वो मिले बस मुस्कुराए और आगे बढ़ गए !                               ©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’

वेलेंटाइन डे

अक्सर देखा है किसी गरीब के वेलेंटाइन डे के प्रस्ताव का हाल, कमजोर विपक्ष के द्वारा सदन में रखे गए किसी प्रस्ताव की तरह होता है ! भले ही चीख–चीख के विपक्ष  अपने पक्ष में कितने भी तर्क दे पर बहुमत के नशे में डूबा सदन इस प्रस्ताव को कुचल देता है ! ये वेलेंटाइन डे,  एक प्रस्ताव ही तो है किसी गरीब देश के द्वारा यूनाइटेड नेशंस के सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता प्राप्त करने के लिए दिए गए प्रस्ताव के जैसा ! लेकिन कोई अमीर देश इसपर वीटो करता है और प्रस्ताव खारिज कर देता है ! कुल मिलाकर कमजोर हो या गरीब हों इनके प्रस्ताव या तो  खारिज कर दिए जाते हैं या कुचल दिए जाते हैं और इस तरह ये लीचड़ पूंजीवादी अपना वेलेंटाइन डे मनाते हैं !                ©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’
धन्यभाग्य हैं ये सेवता के तिमिर को नष्ट कर जो क्षेत्र के लिए प्रकाश पुंज के समान हैं चल रही विकास की बयार आज हर तरफ ये सत्य है, प्रत्यक्ष को न चाहिए प्रमाण है दो तरह की बात से हैं दूर, दूर झूठ से  हृदय से और कथन से नित्य एक ही समान हैं। निर्बलों के बल गरीब के सदा से हमनवाज दुष्ट दुर्जनों की बंद कर दिया दुकान है राम भक्त राम में रमे हैं रात दिन सदा हृदय में साक्षात जैसे राम विद्यमान हैं बना रहे ये साथ आम जन की ऐसी भावना सकल समाज भय रहित जो साथ उसके ’ज्ञान’ हैं                        ©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’

मेरा आंगन मेरे बच्चे

अब निरक्षरता हुई गुजरे हुए कल का जमाना घर के आंगन की तरह स्कूल का मौसम सुहाना ! नवनिहालो को मिले निज मात्र भाषा में ही शिक्षा  गीत कविता से सजी स्कूल की हर एक कक्षा खेलते और कूदते हैं बोझ न लगाती परीक्षा अब अशिक्षा और कुपोषण से हुई बच्चो की रक्षा हो निपुण हर एक बच्चा लक्ष्य ये हमने है ठाना घर के आंगन की तरह स्कूल का मौसम सुहाना ! कल्पनाओं को निखरने के लिए अवसर मिला है फूल की तरह सभी बच्चों का अब चेहरा खिला है सबको शिक्षा मिल रही अब न कोई शिकवा गिला है स्वच्छ लगती है जमीं और आसमा जैसे धुला है सज रहा बचपन यही सबसे बड़ा अपना खजाना घर के आंगन की तरह स्कूल का मौसम सुहाना ! अब निरक्षरता हुई गुजरे हुए कल का जमाना घर के आंगन की तरह स्कूल का मौसम सुहाना !                             ©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’                                 प्रा वि अभनापुर                  

बजट

मुबारक हो ! चार्वाकवादी बजट में आपका स्वागत है। अब कुछ लोग ये जरूर पूछ सकते हैं की हर विषय और घटना में दर्शनशास्त्र घुसेड़ने की क्या आवश्यकता है? तो इसका उत्तर ये है की संसार का कोई ऐसा विषय नहीं है जिसके केंद्र में कोई दर्शन न हो। अब इस बजट को ’चार्वाकवादी’ बजट कहने के पीछे की मंशा क्या है, वो स्पष्ट करता हूं। इस बजट के मूल में उपभोग वादी विचारधारा है। और ये सबको पता है की उपभोगवाद का मूल ही चार्वाक दर्शन है। "यावज्जीवेत्सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्" जैसा कि इस चार्वाक वादी कहावत से स्पष्ट है की मनुष्य जब तक जीवित रहे तब तक सुखपूर्वक जिये ।जरूरत हो तो ऋण करके भी घी पिये।  वर्तमान बजट हमको यही सिखाता है की आप खूब कमाइए और खूब उड़ाइए। बचत का नाम भी अपनी जुबान पे मत लाइए। आप जितना उपभोग करेंगे उतना ही बाजार रूपी दानव को ताकत मिलेगी। अगर आप पैसा बचा के रखेंगे, सोना खरीद डालेंगे या बुढ़ापे के लिए पैसा जोड़ेंगे तो इसका बाजार पर नकारात्मक असर पड़ेगा। वित्त मंत्री जी ने अपने नए टैक्स स्लैप ( थप्पड़) में वो तमाचा मारा है की मार खाने वाले को अभी तक यही समझ नहीं आ रहा की ये दुलार...