किस्से ये मोहब्बत के
मेरी रूह से सुन ले
लब्ज़ों में कहके इसको
जताता नहीं हूँ मैं...

ख़ुदको ही कहीं ख़ुद से
न कर बैठे तू घायल
खंजर ये मोहब्बत का
थमाता नहीं हूँ मैं...

माना की कौड़ियो में प्यार
बिक रहा मगर
क़ीमत सरे बाज़ार
लगाता नहीं हूँ मैं...

उलझाए रखा है कहीं
दिल को न चीर दे
नज़रे तेरी नज़र से
हटाता नहीं हूँ मैं...

शायद इसीलिए कहीं
चर्चा नहीं मेरी
अपने ही किस्से ख़ुद ही
सुनाता नहीं हूँ मैं...

दौलत हो या शोहरत
कहीं पड़ जाए न गले
मतलब से ज्यादा कुछ भी
कमाता नहीं हूँ मैं...

मर जाए न कानून
कहीं मेरे हाथ से
गर्दन पकड़ के उसकी
उठाता नहीं हूँ मैं...

       -- दीपक शर्मा 'सार्थक'

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