नैतिकता और मर्यादा की आपबीती
"तुम कौन हो?" उसकी दयनीय दशा देखकर अनायास ही मेरे मुह से प्रश्न निकल गया।
"मुझे नहीं पहचाना !"...उसने दर्द से सिसकते हुए कहा। फिर मेरे प्रश्नचिन्ह सी बनावट वाले चहरे को देखकर पुन: बोली,"मैं 'नैतिकता हूँ।"
"और जो तुम्हारे साथ लुटी पिटी सी खड़ी है ...ये कौन है?" मैने अगला प्रश्न दागा।
"ये मेरी छोटी बहन ..'मर्यादा' है" वो करुणा और दुख से भीगे लहजे में मेरी ओर देख कर बोली।
"अच्छा ! तो तुम नैतिकता और मर्यादा हो...बहुत दुख हुआ तुम्हारी ऐसी दशा देख कर.."मैं किसी संवेदनहीन पड़ोसी की तरह मात्र शब्दो का मरहम लगाते हुए बोला।
अपनी इस बनावटी संवेदना पर उसका कोई जवाब न पाकर मैने अगला प्रश्न किया," तुम्हारा ये हाल किसने किया है ?"
अस्त-व्यस्त मर्यादा ने तो मेरे प्रश्न पर सकुचाते हुए नज़रे नीची कर ली पर नैतिकता अपने चहरे पर कठोरता लाकर बोली "हम दोनो बहनो को तुम्हारा ये समाज खुलेआम नोच घसीट रहा है...किस-किस का नाम लूँ ,हर कोई हर जगर हमें क्षीण करने में लगा है।"
"ओह ! ये तो बहुत बुरा हुआ तुम लोगो के साथ....पर इतने दिन तक तुम दोनो कहाँ रह रहे थे ?" अब मेरी जिज्ञासा बढ़ती जा रही थी और साथ-साथ प्रश्न भी।
मेरे इस सवाल पर भी मर्यादा यथावत सहमी- सहमी चुप रही अत: नैतिकता पुन: बोली,"हम दोनो बहने(नैतिकता और मर्यादा) ठेकेदार के घर मे थी।"
"कौन ठेकेदार ?" मैने पूछा
"अरे ! हमारे ठेकेदार...यानी मर्यादा और नैतिकता के ठेकेदार" नैतिकता थोड़ा झुझलाहट में बोली।
मेरे बोलने का इंतज़ार किए बिना नैतिकता पुन: आँख में आँसू भर कर बोली," ये मतलबी ठेकेदार अपनी महत्वाकाँक्षा और स्वार्थ के वशीभूत होकर हमको अपने घर में आश्रय तो दिया...पर जैसे ही इनके स्वार्थ की पूर्ति हुई, इन्होने मेरा तो गला ही घोट दिया और बिचारी मर्यादा की खुलेआम चौराहे पर इज्जत लूट कर इसे भंग कर दिया।"
नैतिकता बिना रुके बोलती जा रही थी-
"हम दोनो बहने अवसरवादी राजनीति का शिकार हुए हैं।ये पूरी दुनियां कहने के लिए हमें(नैतिकता और मर्यादा) सम्मान देता है...अंदर से सब अवसरवादी हैं।"
नैतिकता की बाते सुनकर मैं थोड़ा आवेश में बोला,"ज़रा बताना तो ये ठेकेदार कौन है?"
"ये आजकल तुम जितने नेताओ को देखते हो..ये सब हमारे ठेकेदार ही तो हैं।" नैतिकता बोली।
"तब तो इन नेताओ की शिकायत जनता से करनी चाहिए। आखिर ये नेता बने तो जनता की बदौलत हैं।" मैने दुनियां का सबसे आसान काम (फ्री में सलाह देना) वही किया।
मेरी बात सुनकर नैतिकता के चहरे पर अथाह पीड़ा के बावजूद एक अजीब सी मुस्कुराहट आ गयी। फिर वो मेरी ओर देख कर बोली,"ये जनता कौन है? ये किस चिड़िया का नाम है?...आजकल जनता कहीं है ही नहीं, हर कोई नेता है। जिसे देखो नेतागीरी झाड़ता फिर रहा है।और ऐसा इसलिए है क्योंकि इस समय दुनियां का सबसे आसान काम है...नेता बनना। वो समय चला गया जब नेता बनने के लिए सेवा , संघर्ष, बलिदान करने की ज़रूरत पड़ती थी। अब तो कुछ आपस में लड़ाने वाले भड़काऊ बयान दो, एक पैर आस्था के ऊपर और दूसरा धर्म के ऊपर रखो और लम्बी छलांग मारो, बस बन गए नेता !"
नैतिकता लगातार बोलती जा रही थी। उसका लहजा हर शब्द के साथ और कठोर होता जा रहा था।
जब वो थक कर चुप हो गई तो मैने धीरे से पूछा," तो अब तुम दोनो क्या करोगी?"
"हम दोनो ये दुनियां छोड़ के जा रहे हैं।" वो शांत स्वर में बोली।
"ऐसा मत कहो ! अगर नैतिकता और मर्यादा दुनियां से चली गई तो फिर दुनियां चलेगी कैसे?" मैने शंका व्यक्त की।
नैतिकता ने मुझपर एक सरसरी सी नज़र डाली फिर शून्य की ओर देखते हुए बोली,"हमारा इस दुनियां में कोई स्थान नहीं बचा है। जहाँ ज़मीन के छोटे से टुकड़े के लिए भाई-भाई की जान ले लेता हो ! जहाँ संसद के अंदर नेता बैठ कर अश्लील वीडियो देखता हो ! जहाँ एक छोटी सी बात पर नेता किसी कर्मचारी को अपनी सैन्डिल से मार कर गर्व से फूला न समाता हो ! जहाँ धर्म को चारो तरफ से राजनीति ने जकड़ रखा हो ! वहाँ नैतिकता और मर्यादा कैसे टिक सकती है ?"
इतना कह कर नैतिकता ने दबी सहमी खड़ी मर्यादा का हाथ पकड़ा और जाने लगी। मेरे मन में और भी बहुत से प्रश्न थे पर मैं पूछ नहीं पाया बस उन्हे जाते हुए देखता रहा,जब तक वो नज़रो से ओझल नहीं हो गए।
-- दीपक शर्मा 'सार्थक'
"मुझे नहीं पहचाना !"...उसने दर्द से सिसकते हुए कहा। फिर मेरे प्रश्नचिन्ह सी बनावट वाले चहरे को देखकर पुन: बोली,"मैं 'नैतिकता हूँ।"
"और जो तुम्हारे साथ लुटी पिटी सी खड़ी है ...ये कौन है?" मैने अगला प्रश्न दागा।
"ये मेरी छोटी बहन ..'मर्यादा' है" वो करुणा और दुख से भीगे लहजे में मेरी ओर देख कर बोली।
"अच्छा ! तो तुम नैतिकता और मर्यादा हो...बहुत दुख हुआ तुम्हारी ऐसी दशा देख कर.."मैं किसी संवेदनहीन पड़ोसी की तरह मात्र शब्दो का मरहम लगाते हुए बोला।
अपनी इस बनावटी संवेदना पर उसका कोई जवाब न पाकर मैने अगला प्रश्न किया," तुम्हारा ये हाल किसने किया है ?"
अस्त-व्यस्त मर्यादा ने तो मेरे प्रश्न पर सकुचाते हुए नज़रे नीची कर ली पर नैतिकता अपने चहरे पर कठोरता लाकर बोली "हम दोनो बहनो को तुम्हारा ये समाज खुलेआम नोच घसीट रहा है...किस-किस का नाम लूँ ,हर कोई हर जगर हमें क्षीण करने में लगा है।"
"ओह ! ये तो बहुत बुरा हुआ तुम लोगो के साथ....पर इतने दिन तक तुम दोनो कहाँ रह रहे थे ?" अब मेरी जिज्ञासा बढ़ती जा रही थी और साथ-साथ प्रश्न भी।
मेरे इस सवाल पर भी मर्यादा यथावत सहमी- सहमी चुप रही अत: नैतिकता पुन: बोली,"हम दोनो बहने(नैतिकता और मर्यादा) ठेकेदार के घर मे थी।"
"कौन ठेकेदार ?" मैने पूछा
"अरे ! हमारे ठेकेदार...यानी मर्यादा और नैतिकता के ठेकेदार" नैतिकता थोड़ा झुझलाहट में बोली।
मेरे बोलने का इंतज़ार किए बिना नैतिकता पुन: आँख में आँसू भर कर बोली," ये मतलबी ठेकेदार अपनी महत्वाकाँक्षा और स्वार्थ के वशीभूत होकर हमको अपने घर में आश्रय तो दिया...पर जैसे ही इनके स्वार्थ की पूर्ति हुई, इन्होने मेरा तो गला ही घोट दिया और बिचारी मर्यादा की खुलेआम चौराहे पर इज्जत लूट कर इसे भंग कर दिया।"
नैतिकता बिना रुके बोलती जा रही थी-
"हम दोनो बहने अवसरवादी राजनीति का शिकार हुए हैं।ये पूरी दुनियां कहने के लिए हमें(नैतिकता और मर्यादा) सम्मान देता है...अंदर से सब अवसरवादी हैं।"
नैतिकता की बाते सुनकर मैं थोड़ा आवेश में बोला,"ज़रा बताना तो ये ठेकेदार कौन है?"
"ये आजकल तुम जितने नेताओ को देखते हो..ये सब हमारे ठेकेदार ही तो हैं।" नैतिकता बोली।
"तब तो इन नेताओ की शिकायत जनता से करनी चाहिए। आखिर ये नेता बने तो जनता की बदौलत हैं।" मैने दुनियां का सबसे आसान काम (फ्री में सलाह देना) वही किया।
मेरी बात सुनकर नैतिकता के चहरे पर अथाह पीड़ा के बावजूद एक अजीब सी मुस्कुराहट आ गयी। फिर वो मेरी ओर देख कर बोली,"ये जनता कौन है? ये किस चिड़िया का नाम है?...आजकल जनता कहीं है ही नहीं, हर कोई नेता है। जिसे देखो नेतागीरी झाड़ता फिर रहा है।और ऐसा इसलिए है क्योंकि इस समय दुनियां का सबसे आसान काम है...नेता बनना। वो समय चला गया जब नेता बनने के लिए सेवा , संघर्ष, बलिदान करने की ज़रूरत पड़ती थी। अब तो कुछ आपस में लड़ाने वाले भड़काऊ बयान दो, एक पैर आस्था के ऊपर और दूसरा धर्म के ऊपर रखो और लम्बी छलांग मारो, बस बन गए नेता !"
नैतिकता लगातार बोलती जा रही थी। उसका लहजा हर शब्द के साथ और कठोर होता जा रहा था।
जब वो थक कर चुप हो गई तो मैने धीरे से पूछा," तो अब तुम दोनो क्या करोगी?"
"हम दोनो ये दुनियां छोड़ के जा रहे हैं।" वो शांत स्वर में बोली।
"ऐसा मत कहो ! अगर नैतिकता और मर्यादा दुनियां से चली गई तो फिर दुनियां चलेगी कैसे?" मैने शंका व्यक्त की।
नैतिकता ने मुझपर एक सरसरी सी नज़र डाली फिर शून्य की ओर देखते हुए बोली,"हमारा इस दुनियां में कोई स्थान नहीं बचा है। जहाँ ज़मीन के छोटे से टुकड़े के लिए भाई-भाई की जान ले लेता हो ! जहाँ संसद के अंदर नेता बैठ कर अश्लील वीडियो देखता हो ! जहाँ एक छोटी सी बात पर नेता किसी कर्मचारी को अपनी सैन्डिल से मार कर गर्व से फूला न समाता हो ! जहाँ धर्म को चारो तरफ से राजनीति ने जकड़ रखा हो ! वहाँ नैतिकता और मर्यादा कैसे टिक सकती है ?"
इतना कह कर नैतिकता ने दबी सहमी खड़ी मर्यादा का हाथ पकड़ा और जाने लगी। मेरे मन में और भी बहुत से प्रश्न थे पर मैं पूछ नहीं पाया बस उन्हे जाते हुए देखता रहा,जब तक वो नज़रो से ओझल नहीं हो गए।
-- दीपक शर्मा 'सार्थक'
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