सौगंध है तू लड़ !

सौगंध है तू लड़ !
आँखें मिलाकर काल से
निज आत्मबल की ढ़ाल से
समतल अचेतन मार्ग से
चेतन शिखर पर चढ़ !
सौगंध है तू लड़ ! ...

काले अंधेरे चीर कर
मुर्छा को अपनी क्षीण कर
पाबंदियों की भीड़ से
उन्मुक्त होकर बढ़ !
सौगंध है तू लड़ ! ...

तू द्वन्द्व से डरता है क्यों
पीछे क़दम रखता है क्यों
संघर्ष तो करना ही है
हर घड़ी हर क्षण
सौगंध है तू लड़ ! ...

ये कश्मकश किस काम की
उलझन है ये बस नाम की
दुविधा के बादल मेट दे
मझधार में मत पड़
सौगंध है तू लड़ ! ...

       -- दीपक शर्मा 'सार्थक'











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