यूँ करवटो से जैसे सिलवटे बनती हैं
खुली आँखो की धार से रातें कटती हैं
जाने कितने ख़यालो को किस्सो में पिरोता हूँ
इन किस्सो के नूर में तेरी रूह झलकती है ....

सारी रात अहसासो से यूँ ही घिरी रहती है
उदासी की ये धुन हरदम बजा करती है
खुरच के रोज हर्फों को मिटाता हूँ हटाता हूँ
ये ऐसी लिखावट है मिटाने से न मिटती है

ये बेजान दीवारें भी मुझसे बात करती हैं
 मेरी ख़ामोशी को भी ये खूब समझती हैं
जब भी इन दीवारों को गौर से देखता हूँ
हर हिस्से में इनके तेरी तस्वीर उभरती है....


तेरी यादें मेरी गलियों से हर रोज़ गुज़रती हैं
तेरे दामन की ख़ुशबू से मेरी रूह महकती है
बस एक ही सफर पे मैं हर रोज निकलता हूँ
मेरे दिल से तेरी ओर जो पगडण्डी निकलती है...

                -- दीपक शर्मा 'सार्थक'









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