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Showing posts from April, 2017

मुझे अच्छा नहीं लगता... !

मुझे अच्छा नहीं लगता ! जब लब पर दिल की बात न हो जब सीने में जज़्बात न हो जब हाथ में तेरा हाथ न हो जब काबू में हालात न हो मुझे अच्छा नहीं लगता.... !  आँखों में फरेब के बादल हो जो सच बोले..वो पागल हो हर कोई झूठ का कायल हो जब प्यार में कोई घायल हो मुझे अच्छा नहीं लगता... ! जहाँ प्यार किसी को रास न हो बिन लालच के कोई पास न हो उम्मीद न हो..कोई आस न हो इक दूजे पर विश्वास न हो मुझे अच्छा नहीं लगता... ! जो न सोचो वो हो जाए जब टूट को ख्वाब बिखर जाए कोई अपना हक़ न पाए जब 'अच्छे दिन' भी न आए मुझे अच्छा नहीं लगता... !         -- दीपक शर्मा 'सार्थक
सितम के आगे तो गर्दन झुकाए रहते हो कमी ये ख़ुद की है ग़ैरों पे थोपते क्यों हो... बहुत लज़ीज़ है रोटी भले हो रूखी ही ज़ुबां पे स्वाद है खाने में ढ़ूढ़ते क्यों हो... ये नासमझ से मशवरे बताते फिरते हो जो बात समझो नहीं उसपे बोलते क्यों हो... ज़ुबानी जंग में घायल किया है कितनो को यूं बेसबब ही हर किसी को कोसते क्यों हो.. दवा के बदले, जख्मों पे नमक छिड़क देंगे यूं हर किसी के आगे दिल को खोलते क्यों हो... मिलेगा प्यार जो दिल में उतर के जाओ तुम ये गहरा दरिया है सतह पे तैरते क्यों हो...       -- दीपक शर्मा 'सार्थक'

सौगंध है तू लड़ !

सौगंध है तू लड़ ! आँखें मिलाकर काल से निज आत्मबल की ढ़ाल से समतल अचेतन मार्ग से चेतन शिखर पर चढ़ ! सौगंध है तू लड़ ! ... काले अंधेरे चीर कर मुर्छा को अपनी क्षीण कर पाबंदियों की भीड़ से उन्मुक्त होकर बढ़ ! सौगंध है तू लड़ ! ... तू द्वन्द्व से डरता है क्यों पीछे क़दम रखता है क्यों संघर्ष तो करना ही है हर घड़ी हर क्षण सौगंध है तू लड़ ! ... ये कश्मकश किस काम की उलझन है ये बस नाम की दुविधा के बादल मेट दे मझधार में मत पड़ सौगंध है तू लड़ ! ...        -- दीपक शर्मा 'सार्थक'

मासूमियत टपक रही है..

टप !    टप ! टप ! ...... "अरे यार, आखिर ये क्या टपक रहा है ? अभी तो बारिश भी नहीं हो रही है।" वे चिढ़ कर बोले। "आपको नहीं पता क्या ? ...ये पानी नहीं टपक रहा है। बल्कि मासूमियत टपक नही है।"  मैने उत्तर दिया । "किसकी मासूमियत इतनी बढ़ गई है कि वो टपकने  लगे ?" उन्होने जिज्ञासा का तीर मारा । "दरसल ये 'सरकार' की मासूमियत है जो टपक रही है।" मैने संक्षिप्त सा उत्तर दिया। पर उनको इस संक्षिप्त उत्तर से पूरी तरह संतुष्ट न होते देखकर, इत्मिनान से पूरी बात बताने लगा- "असल में विभिन्न राज्यों की सरकारों ने हाल ही में कुछ ऐसे कद़म उठाए हैं कि जिससे उनकी मासूमियत इतनी बढ़ गई है कि वो टपकने लगे।" "कौन से क़दम ?" "सर्वोच्य न्यायालय ने हाल ही में एक आदेश दिया था जिसमें कहा था की शराब की दुकाने हाइवे से 500 मीटर की दूरी तक नहीं रहेंगी। मासूम सरकारों ने इतनी मासूमियत से इस कानून का तोड़ निकाला वो देखते बनता है। विभिन्न राज्यों की सरकारो ने कई राष्ट्रीय राजमार्गो एवं राज्य राजमार्गों(स्टेट हाइवे) का स्टेटस बदल दिया और उन्हें...
किस्से ये मोहब्बत के मेरी रूह से सुन ले लब्ज़ों में कहके इसको जताता नहीं हूँ मैं... ख़ुदको ही कहीं ख़ुद से न कर बैठे तू घायल खंजर ये मोहब्बत का थमाता नहीं हूँ मैं... माना की कौड़ियो में प्यार बिक रहा मगर क़ीमत सरे बाज़ार लगाता नहीं हूँ मैं... उलझाए रखा है कहीं दिल को न चीर दे नज़रे तेरी नज़र से हटाता नहीं हूँ मैं... शायद इसीलिए कहीं चर्चा नहीं मेरी अपने ही किस्से ख़ुद ही सुनाता नहीं हूँ मैं... दौलत हो या शोहरत कहीं पड़ जाए न गले मतलब से ज्यादा कुछ भी कमाता नहीं हूँ मैं... मर जाए न कानून कहीं मेरे हाथ से गर्दन पकड़ के उसकी उठाता नहीं हूँ मैं...        -- दीपक शर्मा 'सार्थक'

सेकुलर क्या है संघी क्या ..

उन्हें अच्छा नहीं लगता ये आलम साफगोई का उन्हें जचता नहीं है 'मत' सिवाए अपने कोई का यही हैं जो ज़हर ख़ुद ही मिला लेते हैं खाने में फ़रक इनको नहीं पड़ता है खाना किस रसोंई का..... किसे समझा रहे हो तुम तुम्हें मालूम भी है क्या ख़ुदी को ख़ुद ख़ुदा समझे सुनेगा दूसरों की क्या ये ऐसे बुलबुले हैं जो उबल पड़ते हैं थोड़े में इन्हें मतलब नहीं इससे कि सेकुलर क्या है, संघी क्या....        -- दीपक शर्मा 'सार्थक'

बेच दे!

ख्वाबों का ये खजाना क्यों ढ़ो रहा है तू क़ीमत सही मिले तो ये सामान बेच दे ! इंसानियत,इंसान की अब बात छोड़िए मौका अगर मिले तो वो भगवान बेच दे ! नाहक ही मुफलिसी में जिए जा रहे हो क्यूँ  जाकर  खुले बाज़ार में ईमान बेच दे ! सारे सफेद पोशो की हूं नस्ल से वाकिफ़  जो बस चले इनका तो हिंदुस्तान बेच दें!                   ©️ दीपक शर्मा 'सार्थक'
यूँ करवटो से जैसे सिलवटे बनती हैं खुली आँखो की धार से रातें कटती हैं जाने कितने ख़यालो को किस्सो में पिरोता हूँ इन किस्सो के नूर में तेरी रूह झलकती है .... सारी रात अहसासो से यूँ ही घिरी रहती है उदासी की ये धुन हरदम बजा करती है खुरच के रोज हर्फों को मिटाता हूँ हटाता हूँ ये ऐसी लिखावट है मिटाने से न मिटती है ये बेजान दीवारें भी मुझसे बात करती हैं  मेरी ख़ामोशी को भी ये खूब समझती हैं जब भी इन दीवारों को गौर से देखता हूँ हर हिस्से में इनके तेरी तस्वीर उभरती है.... तेरी यादें मेरी गलियों से हर रोज़ गुज़रती हैं तेरे दामन की ख़ुशबू से मेरी रूह महकती है बस एक ही सफर पे मैं हर रोज निकलता हूँ मेरे दिल से तेरी ओर जो पगडण्डी निकलती है...                 -- दीपक शर्मा 'सार्थक'

नैतिकता और मर्यादा की आपबीती

"तुम कौन हो?" उसकी दयनीय दशा देखकर अनायास ही मेरे मुह से प्रश्न निकल गया। "मुझे नहीं पहचाना !"...उसने दर्द से सिसकते हुए कहा। फिर मेरे प्रश्नचिन्ह सी बनावट वाले चहरे को देखकर पुन: बोली,"मैं 'नैतिकता हूँ।" "और जो तुम्हारे साथ लुटी पिटी सी खड़ी है ...ये कौन है?" मैने अगला प्रश्न दागा। "ये मेरी छोटी बहन ..'मर्यादा' है" वो करुणा और दुख से भीगे लहजे में मेरी ओर देख कर बोली। "अच्छा ! तो तुम नैतिकता और मर्यादा हो...बहुत दुख हुआ तुम्हारी ऐसी दशा देख कर.."मैं किसी संवेदनहीन पड़ोसी की तरह मात्र शब्दो का मरहम लगाते हुए बोला। अपनी इस बनावटी संवेदना पर उसका कोई जवाब न पाकर मैने अगला प्रश्न किया," तुम्हारा ये हाल किसने किया है ?" अस्त-व्यस्त मर्यादा ने तो मेरे प्रश्न पर सकुचाते हुए नज़रे नीची कर ली पर नैतिकता अपने चहरे पर कठोरता लाकर बोली "हम दोनो बहनो को तुम्हारा ये समाज खुलेआम नोच घसीट रहा है...किस-किस का नाम लूँ ,हर कोई हर जगर हमें क्षीण करने में लगा है।" "ओह ! ये तो बहुत बुरा हुआ तुम लोगो के ...