मैं ज़मीं पे जलता चिराग हूँ..
तू फ़लक पे रौशन आफ़ताब
इसका तुझे क्यों ग़ुरूर है
मैं ज़मीं पे जलता चिराग हूँ
मेरा ख़ुद का अपना नूर है...
तेरी कैफियत, तेरी हैसियत
मुझसे बड़ी तो ज़रूर है
मेरी सल्तनत मेरे दिल में है
इसका मुझे भी सुरूर है...
तुझे नाज़ है, तेरी शक्ल पे
तेरी अक्ल का ये कुसूर है
सूरत में ग़र सीरत नहीं
फिर बेमज़ा वो हुज़ूर है...
तेरे दिल में है जो अहं भरा
मेरे दिल को कब मंजूर है
हैं दरमियां यही फासले
बस इसलिए ही तू दूर है...
इसका तुझे क्यों ग़ुरूर है
मैं ज़मीं पे जलता चिराग हूँ
मेरा ख़ुद का अपना नूर है...
तेरी कैफियत, तेरी हैसियत
मुझसे बड़ी तो ज़रूर है
मेरी सल्तनत मेरे दिल में है
इसका मुझे भी सुरूर है...
तुझे नाज़ है, तेरी शक्ल पे
तेरी अक्ल का ये कुसूर है
सूरत में ग़र सीरत नहीं
फिर बेमज़ा वो हुज़ूर है...
तेरे दिल में है जो अहं भरा
मेरे दिल को कब मंजूर है
हैं दरमियां यही फासले
बस इसलिए ही तू दूर है...
-- दीपक शर्मा 'सार्थक'
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