सिम्पैथी बनाम खाद्यश्रृंखला

अमीर व्यक्ति ने मेरे देखते ही देखते उस बिचारे ग़रीब को देर से काम पर आने के लिए दो थप्पड मारे।ये घटना देखकर मेरा मन द्रवित हो गया।
बिचारा ग़रीब.. !
 भगवान भी न्याय नहीं करता। अमीर लोग ग़रीबों का शोषण कर रहे हैं। इस दुखद घटना के थोड़ी देर बाद मैं उस ग़रीब से मिलने उसके घर गया पर वहां का नज़ारा देख कर मेरी सारी सिम्पैथी वाष्पित हो गयी । वो ग़रीब महाशय अपनी पत्नी को डण्डे से मार रहे थे क्योंकि उसकी पत्नी ने खाना बनाने में देर कर दी थी । पत्नी की वेदना भरी चीखे सुनकर मुझे उस ग़रीब पर ग़ुस्सा आने लगा । मैने मन ही मन सोचा ठीक ही हुआ जो इसको अमीर मालिक ने मारा।
बिचारी अबला महिला !
 पुरुष महिलाओं का शोषण कर रहे हैं । इस तरह एक बार पुन: मेरा मन द्रवित हो गया । वो ग़रीब पुरुष महोदय अपनी पत्नी को मार पीटकर जा चुके थे। मेरे हृदय से उस महिला के लिए सिम्पैथी का झरना फूटा ही था कि कुछ ऐसा हुआ कि मैं हदप्रभ रह गया। हुआ ये कि वो महिला मार खाने के बाद खाना बनाने की तैयारी करने में लगी थी तभी घर में छप्पर के नीचे बधी बकरी,किसी तरह अपने खूटे से निकल कर आंगन में आ गयी। फिर क्या था वो ग़रीब की पत्नी, जिसे मैं अबला समझकर दुखी हो रहा था। उसने वही डण्डा उठाया जिससे वो पिट रही थी और दनादन उस बकरी को पीटने लगी। मुझे उस बेचारी बकरी का कोई ज़ुर्म समझ नहीं आया । वो मिमियाते हुए बाहर भाग गई। मुझे वो महिला बहुत क्रूर लगने लगी ।
बिचारी बकरी... !
सब जानवरों का शोषण कर रहे हैं। बिचारे बेज़ुबान जानवरों ने दुनियां का क्या बिगाड़ा है।मेरा मन फिर से द्रवित हो उठा । मैं सिम्पैथी से दबा, भारी कदमों से अपने घर की ओर चल दिया। अपने घर के नज़दीक पहुच कर मैं अपने बगीचे में घूमने गया । पर बगीचे की दशा देखकर मेरा कलेजा मुह में आ गया। दरसल मैने कुछ देशी विदेशी पूलों की नर्सरी तैयार की थी जिन्हे बकरी चर गयी थी। मैं ग़ुस्से में जलने लगा। उन अबोध पौधों ने बकरी का क्या बिगाड़ा था ? अगल-बगल इतनी घास थी, बकरी उसे भी चर सकती थी।
बिचारे मूक पौधे.. !
सबसे ज्यादा शोषण का शिकार है।अभी उनसे फूल निकलना भी शुरू नहीं हुआ था । मेरे मन उन पौधों के लिए रोने लगा। कितनी दूर से लेकर आया था मैं उन पौधों को और उस दुष्ट बकरी ने मिनट भर में सब सत्यानाश कर दिया। मैं अपने द्रवित हृदय से डुण्डे हो चुके पौधों को निहार रहा था तभी मोबाइल की घन्टी बजी।मैने देखा कि एक मित्र की काॅल है अत: न चाहते हुए भी भारी मन से काॅल रिसीव की ।
मित्र- अरे कहाँ हो भाई ? आज डिनर पर मेरे घर आ जाओ।
मैं- नहीं यार ...आज मन नहीं है।
मित्र- अरे आओ यार ... मटन पक रहा है।
मटन का नाम सुनकर मुझे बकरी की याद गई जिसने मेरे पौधे चर लिए थे। मेरा मन बदले की भावना से भर उठा। मैने तुरन्त ही अपने मित्र को हाँ कर दिया और तेजी से उसके घर की ओर चल दिया। चाल में तेजी शायद इसलिए भी थी क्योंकि सारी सिम्पैथी उड़ गई थी और शरीर हल्का हो गया था।अब मैं भी उसी खाद्यश्रृंखला(फूड चैन) का हिस्सा था जहाँ हर जीव शोषित भी है और शोषणकर्ता भी है ।

                        -- दीपक शर्मा 'सार्थक'

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