यार राम.. !!

यार राम.. !!
गज़ब ढ़ाए हो..। हमको तो तुम एकदम समझ ही नहीं आते हो। देखा जाए तो तुम्हारा पूरा जीवन कर्तव्य और त्याग को समर्पित रहा।
पुत्र का कर्तव्य निभाया और अयोध्या को त्याग दिया।
राजा का कर्तव्य निभाया और सीता को त्याग दिया।जीवन के अंतिम समय में अपने वचन का कर्तव्य निभाने के लिए तुमने लक्ष्मण को भी त्याग दिया।
तुम तो त्याग और कर्तव्य की प्रतिमूर्ति हो।फिर अचानक ऐसा क्या हो गया कि तुम "त्याग और कर्तव्य" को ताख़ पर रख कर अपनी पैत्रिक संपत्ति(जन्मभूमि) पर अधिकार को लेके ,"साड्डा हक़ ऐथे रख.." कहते हुए सुप्रीम कोर्ट पहुच गए..? और 20 साल से दीवानी का मुकदमा लड़ रहे हो।
यार राम.. !!
यही बात मुझे अखर रही है कि तुमने जीते जी अधिकारों की जगह कर्तव्यों को महत्व दिया। फिर तुम बदल कैसे गए..?
तुम्हारे भक्त तो करते हैं कि तुम्हारे रोंए रोंए में हज़ारो बृह्माण्ड हैं -
"बृह्माण्ड निकाया निर्मित माया..रोम-रोम प्रति वेद कहे"
फिर अचानक ज़मीन के एक छोटे से टुकड़े को लेकर तुम इतने व्याकुल कैसे हो गए..?
यार राम.. !!
अब लगता है कि शायद हम ही तुम्हें नही समझ पाए।
तुम तो जीवन भर कर्तव्योॆ के लिए त्याग किया... स्वार्थी तो हम हैं..
अपना स्वार्थ साधने के लिए हमने तुम्हे भी स्वार्थी बना दिया।हमने तुम्हारे नाम पर गंदी राज़नीति की और तुम्हें साम्प्रदायिक बना दिया। सही ही कहा गया है-
"जाकी रही धारणा जैसी..
प्रभु मूरत देखी तिन तैसी.."
यार राम.. !!
सुना है कि गांधी को भारत में  "राम राज्य" चाहिए था।
मरते समय भी गांधी ने तुम्हारा नाम(हे राम) पुकारा था।
शायद तुम्हीं से प्रभावित होकर गांधी ने कहा होगा कि
"यदि हम सभी अपने कर्तव्यों का पालन करने लगें तो अधिकारों की मांग समाप्त हो जाएगी।"
पर हवाएं बदल गई..राजनीतिज्ञों को तुम्हारा त्याग और कर्तव्यों वाला काॅन्सेप्ट अच्छा नहीं लगा। फिर क्या था ..राजनीति शुरू हो गई और "राम" का मतलब बदल गया।
यार राम... !!
भले हमारी आपस में नहीं बनती पर न जाने क्यों मेरा मन करता है...मैं ज़ोर से चीख के दुनियां को बताऊ कि हम "राम-राम नहीं...मरा-मरा जप रहे हैं ।"

                   
                              -- दीपक शर्मा 'सार्थक'


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