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Showing posts from February, 2017

शिव स्तुति

ॐ तत् क्षण धरत करन अरचत जल ।। गज नग सघन कनक दरखत दर ।। तरल नयन धन धरत अधर तल ।। करतल करतब सरल गरल धर ।। अटत गहन घन रटत अजर जस ।। नगन सजत रज रचत अचल वर ।। कहत दहत अध दरसत दरसन ।। दरद न रहत कहत नर हर हर ।।                  ( रावण)

फलाने - ढमाके

दो ही मित्र हैं मेरे, एक 'फलाने' दूसरे 'ढमाके'। 'फलाने' राष्ट्रवादी हैं जबकी 'ढमाके' सेकुलर हैं। 'फलाने राष्ट्रवादी' बहुत गंभीर रहते हैं, ज्यादा मुस्कुराते नहीं। उन्हीं के शब्दों में कहें तो- " ज्यादा हँसने वाले लोग चूतिया होते हैं, ऐसे लोगों की बात में वजन नहीं होता है।" फलाने राष्ट्रवादी का मानना है कि 'राष्ट्रवाद' गंभीरता के खोल में ही रहता है अत: ज्यादा हँसने मुस्कुराने से राष्ट्रवाद शिथिल हो सकता है।वही ढमाके का हाल बहुत बुरा है, बुरा होना भी चाहिए क्योंकि ढमाके सेकुलर जो ठहरे । वैसे हँसते ढमाके भी नहीं हैं। उनको डर है कि कहीं किसी ने उन्हें हँसते हुए रंगे मुह पकड़ लिया तो लोग ये ना समझ लें कि अच्छे दिन आ गए हैं। इसलिए 'ढमाके सेकुलर' हमेशा उदास रहते हैं। वो चहरे पर मुर्दानगी लिए बसंत में भी पतझड़ सा मुँह बनाए बैठे रहते हैं। लेकिन असल समस्या ये है की फलाने और ढमाके को एक ही घर में रहना पड़ता है।जहाँ   दिक्कत ये है कि 'फलाने राष्ट्रवादी' चाहते हैं घर का माहौल गंभीर रहे, जाहिर है फलाने को गंभीरता  पसंद जो ह...

हमारी ख़ुद से ठनी हुई है..

है हर तरफ बेख़ुदी का आलम वो समझ बैठे नाराज़ हैं हम ख़ुदाया उनको बताए कैसे हमारी ख़ुद से ठनी हुई है... ग़रीब के घर को यूँ जलाना उजाड़ के उसका आशियाना तुम्हारे इस महल की दिवारे उसी ज़मी पर बनी हुई है... है हर तरफ बस तुम्हारे चर्चे मुकरते हो क्यों यूँ क़त्ल करके तेरी हथेली की ये उगलियां मेरे लहू से सनी हुई हैं... झुका के सर मिलगई मोहब्बत है ग़र समर्पण मिलेगी उल्फ़त बिना मोहब्बत के ही जियोगे तुम्हारी गर्दन तनी हुई है...                 -- दीपक शर्मा 'सार्थक'

सिम्पैथी बनाम खाद्यश्रृंखला

अमीर व्यक्ति ने मेरे देखते ही देखते उस बिचारे ग़रीब को देर से काम पर आने के लिए दो थप्पड मारे।ये घटना देखकर मेरा मन द्रवित हो गया। बिचारा ग़रीब.. !  भगवान भी न्याय नहीं करता। अमीर लोग ग़रीबों का शोषण कर रहे हैं। इस दुखद घटना के थोड़ी देर बाद मैं उस ग़रीब से मिलने उसके घर गया पर वहां का नज़ारा देख कर मेरी सारी सिम्पैथी वाष्पित हो गयी । वो ग़रीब महाशय अपनी पत्नी को डण्डे से मार रहे थे क्योंकि उसकी पत्नी ने खाना बनाने में देर कर दी थी । पत्नी की वेदना भरी चीखे सुनकर मुझे उस ग़रीब पर ग़ुस्सा आने लगा । मैने मन ही मन सोचा ठीक ही हुआ जो इसको अमीर मालिक ने मारा। बिचारी अबला महिला !  पुरुष महिलाओं का शोषण कर रहे हैं । इस तरह एक बार पुन: मेरा मन द्रवित हो गया । वो ग़रीब पुरुष महोदय अपनी पत्नी को मार पीटकर जा चुके थे। मेरे हृदय से उस महिला के लिए सिम्पैथी का झरना फूटा ही था कि कुछ ऐसा हुआ कि मैं हदप्रभ रह गया। हुआ ये कि वो महिला मार खाने के बाद खाना बनाने की तैयारी करने में लगी थी तभी घर में छप्पर के नीचे बधी बकरी,किसी तरह अपने खूटे से निकल कर आंगन में आ गयी। फिर क्या था वो ग़रीब की...

तेरी रहगुज़र से गुज़र गए

ख़ामोश सी ख़्वाहिश लिए वो अधूरेपन की तपिश लिए जख्मों को दिल में समेटकर तेरी रहगुज़र से गुज़र गए... इक राह है तेरे बज़्म की और इक तरफ मंज़िल मेरी ये कश्मकश तो देखिए न इधर गए न उधर गए... तेरे आब से रौशन जहां तेरा अक्स है देखू जहाँ वो फलक हो चाहे ये ज़मी बस तू नज़र में, जिधर गए... मेरा हौसला तुझसे ही है सब फैसला तुझपे ही है ग़र तू नहीं तो बिखर गए तेरा साथ है तो सवर गए...             -- दीपक शर्मा 'सार्थक'

मेरी समस्याएं

एक अकेला मैं... कितनी समस्याओं से जूझ रहा हूँ। कुछ  समस्याएं पेशेख़िद्मत हैं- 1-चीन मसूद अजहर को अंतर्राष्ट्रीय फलक पर बचा लेता है। 2-मेरा अंतर्जनपदीय ट्रांसफर नहीं हो रहा है 3- मैं अंतर्जातीय विवाह नहीं कर सकता हूँ 4-  मैं अंतर्मुखी हूँ इसलिए मैं अपनी बात नहीं कह पाता हूँ 5- मेरी अंतर्आत्मा  कुपोषण का शिकार होकर धीरे-धीरे मरती जा रही है। 6-देश में चुनावों के कारण अंतर्कलह मची है। 7- नेताओं की कथनी और करनी में बहुत अंतर्विरोध है। 8-लोग मुझे शरीफों के अतंगत नहीं रखते। 9- अंतर्यामी लोग दूसरों की ज़िन्दगी में बहुत ताक-झांक करते है। (उक्त समस्याएं मेरी अपनी है..इनका किसी जीवित या मृत व्यक्ति के साथ कोई संबंध नहीं है। अगर कोई संबंध हो तो इसे मात्र संयोग समझा जाए।)                        --दीपक शर्मा 'सार्थक'

मैं ज़मीं पे जलता चिराग हूँ..

तू फ़लक पे रौशन आफ़ताब इसका तुझे क्यों ग़ुरूर है मैं ज़मीं पे जलता चिराग हूँ मेरा ख़ुद का अपना नूर है... तेरी कैफियत, तेरी हैसियत मुझसे बड़ी तो ज़रूर है मेरी सल्तनत मेरे दिल में है इसका मुझे भी सुरूर है... तुझे नाज़ है, तेरी शक्ल पे तेरी अक्ल का ये कुसूर है सूरत में ग़र सीरत नहीं फिर बेमज़ा वो हुज़ूर है... तेरे दिल में है जो अहं भरा मेरे दिल को कब मंजूर है हैं दरमियां यही फासले बस इसलिए ही तू दूर है...              -- दीपक शर्मा 'सार्थक'

यार राम.. !!

यार राम.. !! गज़ब ढ़ाए हो..। हमको तो तुम एकदम समझ ही नहीं आते हो। देखा जाए तो तुम्हारा पूरा जीवन कर्तव्य और त्याग को समर्पित रहा। पुत्र का कर्तव्य निभाया और अयोध्या को त्याग दिया। राजा का कर्तव्य निभाया और सीता को त्याग दिया।जीवन के अंतिम समय में अपने वचन का कर्तव्य निभाने के लिए तुमने लक्ष्मण को भी त्याग दिया। तुम तो त्याग और कर्तव्य की प्रतिमूर्ति हो।फिर अचानक ऐसा क्या हो गया कि तुम "त्याग और कर्तव्य" को ताख़ पर रख कर अपनी पैत्रिक संपत्ति(जन्मभूमि) पर अधिकार को लेके ,"साड्डा हक़ ऐथे रख.." कहते हुए सुप्रीम कोर्ट पहुच गए..? और 20 साल से दीवानी का मुकदमा लड़ रहे हो। यार राम.. !! यही बात मुझे अखर रही है कि तुमने जीते जी अधिकारों की जगह कर्तव्यों को महत्व दिया। फिर तुम बदल कैसे गए..? तुम्हारे भक्त तो करते हैं कि तुम्हारे रोंए रोंए में हज़ारो बृह्माण्ड हैं - "बृह्माण्ड निकाया निर्मित माया..रोम-रोम प्रति वेद कहे" फिर अचानक ज़मीन के एक छोटे से टुकड़े को लेकर तुम इतने व्याकुल कैसे हो गए..? यार राम.. !! अब लगता है कि शायद हम ही तुम्हें नही समझ पाए। तु...